हाथरस हादसा महज अव्यवस्था का नतीजा तो नहीं है !

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हाथरस ज़िला हेडक्वार्टर से करीब 47 किलोमीटर दूर नेशनल हाइवे-91 पर स्थित फुलरई गांव मुगलगढ़ी में एक और हाहाकारी हादसा हो गया। इन पंक्तियों के लिखे जाने के समय तक इस हादसे में आधिकारिक तौर पर 122 लोगों की मौत हो चुकी है और अभी भी करीब 200 लोग हाथरस, एटा, अलीगढ़ और कासगंज के विभिन्न अस्पतालों में भर्ती हैं। इसलिए अभी तक कुछ कहा नहीं जा सकता कि अंतिम रूप से इस हादसे के हिस्से में कितनी मौतें आएंगी। लेकिन गौर से देखें तो पिछले कुछ दशकों में हिंदुस्तान में हादसे होना एक आम बात हो गई है। ऐसा कोई साल नहीं जाता, जब कम से कम दो दर्जन ऐसे हादसे न होते हों, जिनमें कई सौ लोग तक न मारे जाते हों और जो नहीं होने चाहिए। ऐसे हादसों के पीछे हर बार एक जैसी लापरवाही, वही बाबाओं के प्रति अंधविश्वास और फिर सरकार और प्रशासन को कोसने का रटा रटाया परिदृश्य दोहराया जाता है। लेकिन लाचारी यह है कि आप चाहे बाबाओं को कितना ही कोसिए, शासन-प्रशासन को कितनी ही लानत-मलानत भेजिए और अंधविश्वास में पगलाये लोगों को कितना भी समझाइये, इन्हें कितना भी झिड़किए, मगर यह सिलसिला अनवरत जारी है।
अगर इस हाथरस हादसे की तकनीकी वजहों पर नज़र दौड़ाएं तो ऐसी कोई वजह नहीं है, जो ऐसे मामलों में पहली बार सामने आयी हो और न ही शासन-प्रशासन को सवालों के घेरे में खड़ा करने वाला ऐसा कोई सवाल आपको मिलेगा, जो पहली बार पूछा जाए। अगर समूचे हादसे को मीडिया के लेंस से देखें तो इसमें कोई नई बात नहीं है। घटनास्थल पर न तो सही से बैरिकेडिंग थी, न तो भीड़ को संभालने के लिए पर्याप्त वॉलियंटर थे। 80 हजार लोगों को कार्यक्रम में शामिल होने की अनुमति दी गई थी, जबकि अभी तक की जो सभी मीडिया रिपोर्टें सामने आयी हैं, उसके मुताबिक यहां 2 लाख से भी ज्यादा लोग पहुंचे थे। यह इसलिए भी हैरानी की बात हो सकती है कि मौके पर स्थानीय एसडीएम भी मौजूद थे और उनकी सहायता के लिए राजस्व अधिकारी और पुलिस के जवान भी थे। मगर व्यवस्था तो तब संभलती, जब संभालने वालों के बस में इसे संभालना होता। महज कुछ दर्जन पुलिस वाले, लाखों लोगों की भीड़ नहीं संभाल सकते और जब अंधविस्वास में लोग पगला जाएं, तो कुछ सौ वॉलियंटर भी लाखों लोगाें की भीड़ को नहीं संभाल सकते। अब भला इन खामियों को गिनाने का क्या फायदा कि पहले एग्जिट और एंट्री प्वाइंट नहीं बनाया गया था। 
अगर कार्यक्रम की इजाजत दी गई थी और घटना और कार्यक्रम स्थल पर पुलिस भी मौजूद थी, तो यह किसके देखने और जांचने का विषय था कि सतसंग में आने वालों की प्रॉपर एंट्री हो और उनके बाहर जाने के लिए प्रॉपर एग्जिट की व्यवस्था हो? अब इन लापरवाहियों को भी गिनाने का कोई फायदा नहीं है कि सतसंग स्थल पर इमरजेंसी रास्ता नहीं बनाया गया था, मौके पर मौजूद भीड़ के मुताबिक वहां कोई मैडीकल टीम नहीं थी, कम से कम ऐसे मौके पर पांच से दस एम्बुलेंस होनी चाहिए, जो नहीं थीं। सच बात तो ये है कि इतनी गर्मी और उमस के बावजूद अब जो बातें पता चल रही हैं, उसमें ये भी शामिल हैं कि सतसंग स्थल पर मौजूद भीड़ के अनुपात में कूलर और पंखों की व्यवस्था भी नहीं थी। जाहिर है फिर खाने पीने की बदइंतजामी की बात कहनी ही बेईमानी है। 
कुल मिलाकर अगर हम इस हाथरस के पास हुए एक और भयावह हादसे को इन्हीं पारंपरिक कसौटियों में कसेंगे तो शायद ही इसके पीछे के किसी ठोस वजह और निष्कर्ष पर पहुंच सकेंगे। दरअसल यह मामला महज लापरवाही और अव्यवस्था का नहीं है और अगर यह मामला महज लापरवाही और अव्यवस्था का है, तो यह भी जान और समझ लीजिए कि अब अपने देश में लापरवाही और अव्यवस्था के साथ जीना हमारी मज़बूत परंपरा का हिस्सा बन चुका है या यह भी कह सकते हैं कि ये हमारे डीएन में शामिल हो चुका है। अगर ऐसा न होता तो पिछले एक दशक में ही ऐसे दर्जनों हृदयविदारक हादसे न हुए होते, जब इसी तरह की लापरवाहियों के चलते भगदड़ में सैकड़ों लोग मारे गये। चाहे दान की साड़ी पाने के लिए वृंदावन में उमड़ी गरीब महिलाओं की भगदड़ से हुई मौत हो या दक्षिण के एक प्रसिद्ध मंदिर में मच गई भगदड़ में जान गंवा देने वाले श्रद्धालु हों। एक किस्म से हादसे हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा हो चुके हैं। 
चाहे हरियाणा के बाबा रामपाल के डेरों में हुई गोलीबारी का हादसा रहा हो या फिर चाहे यही हाथरस का हादसा ही क्यों न हो। इन ज्यादातर हादसों में पिछड़ी और दलित जातियों के बाबाओं के प्रति उभरी अंधविश्वास में हृदयविदारक घटनाएं घटती रही हैं। ..तो सवाल है क्या आलोचना की जद में रहने वाला पारंपरिक ब्राह्मणवाद, ऊंची जातियां या कुछ विशेष राजनीतिक पार्टियों के परे भी इन हादसों की कड़ी जुड़ती है? तो इस सवाल का जवाब है कि हां, कम से कम हाथरस के इस हादसे को देखें तो यह महज लापरवाही या अव्यवस्था का नतीजा नहीं है। इस अव्यवस्था और लापरवाही के पीछे सामाजिक प्रतिरोध का भी एक जबरदस्त पहलू है।
सटीक ढंग से कहा जाए तो इस देश में ब्राह्मणवादी आचरणों का विरोध करने वाली जातियां मौका मिलने पर पहली फुर्सत में वैसा ही आचरण खुद करके गौरान्वित होने की कोशिश करती हैं। हाल के दशकों में पूरे देश में दलितों और पिछड़े समाज से आने वाले बाबाओं का उभार, इसी बात की पुष्टि करता है कि दलित और पिछड़े वर्ग भले सवर्णों को दिन रात कोसते हों, लेकिन जब ये ताकतवर होते हैं तो इनके समूचे हावभाव और क्रियाकलाप ब्राह्मणवादी जैसे ही हो जाते हैं। एक तरह से यह इन्हें रिप्लेस करना ही अपनी जीत समझते हैं। इसलिए चाहे मामला हाथरस का हो, हरियाणा का, ये महज अव्यवस्था भर का नतीजा नहीं होते।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर