नये कानूनों से उम्मीद

पहली जुलाई से देश में तीन नये आपराधिक कानूनों के लागू होने से न्याय प्रणाली में एक बहुत बड़ा कदम उठाया गया है। इन्होंने ब्रिटिश काल में बने कानूनों का स्थान लिया है। नये कानूनों के तहत 1860 में बने इंडियन पीनल कोड (आई.पी.सी.) के स्थान पर भारतीय न्यायिक संहिता (बी.एन.एस.) बाद में बने कानून कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर (सी.आर.पी.सी.) के स्थान पर भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बी.एन.एस.एस.) तथा 1872 में बने इंडियन एवीडैंस एक्ट के स्थान पर भारतीय साक्ष्य अधिनियम (बी.एस.ए.) आदि कानूनों को पारित करवा कर लागू किया गया है।
इसके साथ न्याय क्षेत्र में एक बड़ी तथा नई शुरुआत हुई है। इस संबंध में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि ब्रिटिश काल का दौर अब खत्म हो गया है। अब देश में सज़ा के स्थान पर न्याय होगा। देरी के स्थान पर तेज़ी से सुनवाई होगी। यह भी कि 77 वर्ष बाद आपराधिक न्याय प्रणाली अब पूरी तरह स्वदेशी हो गई है। देश-द्रोह का कानून खत्म कर दिया गया है जो अंग्रेज़ों ने अपने शासन की सुरक्षा के लिए बनाया था। इसी कानून के तहत ही उस समय देश की आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे बड़े नेताओं को लम्बी सज़ाओं के भागी बनाया जाता था। 
इस संबंध में कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों ने अपने ये एतराज़ उठाये हैं कि पिछली सरकार के दौरान लोकसभा में भाजपा का बहुमत होने के कारण इसे जल्दबाज़ी में पारित कर दिया गया था  जिन पर विस्तारपूर्वक तथा गहन विचार-विमर्श किया जाना ज़रूरी था। उस समय लगभग 146 विपक्षी दलों के सांसदों को निलम्बित भी किया गया था। दूसरी तरफ गृह मंत्री ने यह दावा किया है कि चार वर्ष तक इनके संबंध में प्रत्येक वर्ग तथा पार्टी के साथ विस्तारपूर्वक विचार-विमर्श किया गया तथा उनकी ओर से मिले अधिकतर सुझावों को इनमें शामिल किया गया है। इसके संबंध में लोकसभा में साढ़े 9 घंटे तथा राज्यसभा में 7 घंटे से अधिक बहस हुई तथा दर्जनों ही सांसदों ने इसमें भाग लिया। इन कानूनों पर कुछ अहम पहलू ये बनाए गए हैं कि किसी भी मामले का समय-बद्ध होना बेहद ज़रूरी है तथा समूची प्रक्रिया के तहत इसका निपटारा तीन वर्ष में किया जाना ज़रूरी है। समूची प्रक्रिया में पारदर्शिता होनी चाहिए। यहां तक कि ली जा रही तलाशी या की गई बरामदगी की वीडियो-ग्राफी होना ज़रूरी है।
आज हालात ये हैं कि ज्यादातर मामलों में इन्स़ाफ लेते-लेते दशकों व्यतीत हो जाते हैं तथा व्यक्ति बूढ़ा हो जाता है या उसकी मृत्यु हो जाती है। इस प्रक्रिया के दौरान निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक लाखों नहीं, अपितु करोड़ों मामले अधर में ही पड़े हुए हैं। एक सूचना के अनुसार ज़िला स्तरीय अदालतों से लेकर हाईकोर्ट तथा सर्वोच्च न्यायालय तक 3 करोड़ से अधिक मामले लम्बित पड़े हैं। 
अक्सर यह कहा जाता है कि अदालतों में न्यायाधीशों की संख्या जनसंख्या के अनुपात में कहीं कमी है। पिछले समय में भीड़ तंत्र की व्यापक चर्चा होती रही है। कई व्यक्तियों को उत्तेजित भीड़ द्वारा धर्म, जाति या समुदाय के नाम पर मार दिया जाता रहा है। इसके लिए कानून में बेहद कड़ी व्यवस्था की गई है। इनके लिए सात वर्ष से लेकर उम्र भर या घटना की गम्भीरता के अनुसार मौत की सज़ा निश्चित की गई है। इसी तरह नये कानून में महिलाओं और बच्चों के साथ होते अनेक तरह के अत्याचारों के लिए भी कड़ी सज़ाएं निर्धारित की गई हैं। मामला दर्ज करवाने की प्रक्रिया को बेहद सरल बनाया गया है। जहां तक शहरी स्वतंत्रता का संबंध है, इस सन्दर्भ में नये कानून पर विशेष रूप से विपक्षी दलों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं की ओर से आपत्ति दर्ज की गई है। इन नये कानूनों के तहत सरकारों की ओर से, विरोधी स्वर उठाने वाले व्यक्तियों को निशाना बनाये जाने की व्यक्त की जा जा रही आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता। खास तौर पर नये कानून के तहत पुलिस को 60 से 90 दिनों तक रिमांड लेने की दी गई छूट तथा किसी भी आरोपी पर आतंकवाद संबंधी कानून के तहत कार्रवाई करने का अधिकार केन्द्रीय एजेंसी के सब-इन्स्पैक्टर तथा प्रदेश पुलिस के डी.एस.पी. को देने पर आपत्ति दर्ज की गई है। पहले कानून के तहत ऐसी कार्रवाई के लिए सरकारी स्वीकृति ज़रूरी थी।
चाहे इन नये कानूनों को पहली जुलाई से ही लागू कर दिया गया है, परन्तु पिछले मामलों का निपटारा पुराने कानूनों के अनुसार ही किया जाएगा। फिलहाल नये कानूनों को लागू करने में अनेक तरह की रुकावटें पेश होंगी, जिनके हल के लिए अदालतों की ओर से लगातार विचार-विमर्श की ज़रूरत होगी। इसके लिए समाज के भिन्न-भिन्न वर्गों के प्रतिनिधियों तथा राजनीतिक पार्टियों के सुझावों को भी सुना जाना चाहिए तथा सही सुझावों को क्रियात्मक रूप में लागू करना भी उचित रहेगा, ताकि देशवासियों को सही अर्थ में न्याय मिल सके।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द