एमएसपी की गणना का आधार हो पिछले मौसम में फसल उत्पादन की लागत

एनडीए 3.0 सरकार के केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अपनी पहली बैठक में 14 फसलों के लिए नये न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की घोषणा की है। यह बढ़ोतरी बहुत मामूली है और पांच से 7 प्रतिशत (तिलहन और रागी को छोड़कर) के बीच है और यह खेती की बढ़ी हुई लागत को नहीं दर्शाती है। यद्यपि उत्तरी ग्रामीण क्षेत्रों में हाल ही में भाजपा को मिली भारी हार से संकेत मिलते हैं कि सत्तारूढ़ पार्टी अपनी किसान विरोधी नीतियों के कारण कृषक समुदाय के बीच तेज़ी से अपनी जमीन खो रही है, मोदी सरकार ने एमएसपी के सन्दर्भ में अपनी पुरानी नीति कायम रखी है।
उदाहरण के लिए मुख्य खरीफ फसल धान का एमएसपी 2023 में 2,183 रुपये से 117 रुपये बढ़ाकर 2024 में 2,300 रुपये प्रति क्विंटल किया गया है। यह बढ़ोतरी सिर्फ 5.3 प्रतिशत है। खुदरा किराना दुकानों में 140 रुपये प्रति किलो बिकने वाले लाल चने के लिए किसानों को सिर्फ 75 रुपये प्रति किलोग्राम मिलेंगे, जो पिछली दर से महज 7.3 प्रतिशत की बढ़ोतरी है। एक मात्र राहत तिलहन फसल और बाजरा रागी है, जिसमें क्रमश: 12.7 प्रतिशत और 11.5 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। हालांकि सरकार इन फसलों में आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के लिए दालों और तिलहनों के लिए एमएसपी बढ़ाने का दावा करती है, लेकिन वास्तव में तिलहन को छोड़कर अन्य सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य बहुत कम हैं। नये एमएसपी खेती की लागत को भी पूरा नहीं करते हैं। हमने 2023 में अपनी खपत का लगभग 14 प्रतिशत यानी 46.5 लाख टन दालों का आयात किया, जबकि 2022-23 में यह 25.3 लाख टन था। हमने 2023 में लगभग 3.74 अरब डॉलर का भुगतान किया जबकि यह 2022 में 1.94 अरब डॉलर था। 
तिलहन में भी खपत के मामले में हमें 28 प्रतिशत की कमी का सामना करना पड़ रहा है। सरकार ने 18 अरब डॉलर का भुगतान करके विदेशों से 120 लाख टन पाम ऑयल, सूरजमुखी और अन्य तेलों का आयात किया है। यूक्रेन और रूस में चल रहे युद्ध के कारण इस वर्ष यह खर्च 20 अरब डॉलर होने वाला है। आयात पर भारी खर्च करने के बजाय हमारी सरकार एम.एस. स्वामीनाथन समिति द्वारा अनुशंसित सही फसल समर्थन मूल्य किसानों को देकर यह खर्च आधी कर सकती है। चूंकि अधिकांश दलहन, तिलहन की खेती गरीब छोटे किसानों द्वारा वर्षा आधारित परिस्थितियों में की जाती है, इसलिए मूल्य वृद्धि उन्हें मौजूदा ग्रामीण संकट से राहत दिलायेगी। 
हाल के लोकसभा चुनाव नतीजों से साफ पता चलता है कि भाजपा ने उत्तर प्रदेशए पंजाब, हरियाणा व राजस्थान में अपनी जमीन खो दी है, क्योंकि किसानों में सरकार की किसान विरोधी नीतियों के चलते असंतोष है। संसद तक किसान मार्च, नासिक से मुंबई पदयात्रा और तीन कृषि कानूनों के खिलाफ एकजुट किसानों के आंदोलन से शुरू हुए किसान आंदोलन मौजूदा ग्रामीण संकट को दर्शाते हैं। बदतर जमीनी आर्थिक, सामजिक व राजनीतिक हकीकत के बावजूद भाजपा ने हाल के चुनावों में फसल एमएसपी के लिए कानूनी गारंटी और अन्य जैसी किसानों की मांगों से बचने की कोशिश की। सीएसडीएस लोकनीति द्वारा हाल ही में किये गये पोस्ट पोल सर्वे से पता चला है कि 61 प्रतिशत से ज्यादा किसानों ने कांग्रेस के नेतृत्व वाले ‘इंडिया’ गठबंधन को वोट दिया, जबकि केवल भाजपा को वोट देने वाले किसानों की संख्या मात्र 35 प्रतिशत ही थी। 
सरकार का दावा है कि वह उत्पादन की लागत का 50 प्रतिशत अतिरिक्त भुगतान कर रही है, जो एक सफेद झूठ है। डीएपी, डीजल, कपास के बीज, परिवहन शुल्क जैसे इनपुट की लागत 2014 व 2024 के बीच तीन गुना बढ़ गयी है। अन्य बीजों, खादों, कीटनाशकों आदि की कीमतों में भी भारी वृद्धि हुई है। फिर भी भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के अधीन सीपीसीए अभी भी एमएसपी की गणना के लिए खेती की लागत के लिए 2011-12 को आधार वर्ष मानता है, जो आज की बढ़ी हुई कीमतों से काफी कम है। 2.4 एकड़ से कम जोत वाले काश्तकार और छोटे किसान इस देश के 84 प्रतिशत हैं। लेकिन सरकार केवल 125 रुपये प्रति क्विंटल को ही भुगतान की गयी लागत मानती है। वास्तव में फसल सीजन के दौरान धान उत्पादन में परिवार का श्रम घटक लगभग 700 रुपये प्रति क्विंटल होता है। पिछले सीजन की खेती की लागत को आधार मानकर नये एमएसपी की गणना वैज्ञानिक तरीके से (सी2+50 के आधार पर) की जानी चाहिए। फसल एमएसपी में बढ़ोतरी को थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) से जोड़ा जाना चाहिए। खाद, कीटनाश्क और बीज जैसे इनपुट पर जीएसटी हटाया जाना चाहिए। बाज़ारों में घोषित एमएसपी के भुगतान की गारंटी के लिए कानून लाया जाना चाहिए। अब समय आ गया है कि एनडीए 3.0 सरकार दीवार पर लिखी इबारत को समझे और संकटग्रस्त कृषक समुदाय को राहत पहुंचाने के लिए किसानों के मुद्दों पर ध्यान देना शुरू करे। (संवाद)