और बेहतर बनाये जा सकते हैं आपराधिक कानून

ब्रिटिश युग के लगभग 200 वर्ष पुराने तीन कानूनों- भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) व भारतीय साक्ष्य कानून (आईईए) की जगह तकरीबन छह माह पहले तीन नये आपराधिक कानूनों- भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस), भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) व भारतीय साक्ष्य अधिनियम (बीएसए) का गठन किया गया था। इन्हें आज (एक जुलाई, 2024) से लागू कर दिया गया है। इसका अर्थ यह है कि अब से सभी एफआईआर बीएनएस के प्रावधानों के तहत पंजीकृत की जायेंगी, लेकिन जो मामले 1 जुलाई से पहले दर्ज किये गये थे, वे आईपीसी, सीआरपीसी व आईईए के तहत ही चलते रहेंगे, जब तक कि उन पर अंतिम फैसला नहीं हो जाता है। 
ये नये कानून देश की आपराधिक न्याय व्यवस्था में ज़बरदस्त परिवर्तन ला सकते हैं। नये कानून इस लिहाज़ से महत्वपूर्ण हैं कि ये इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि भारत की आपराधिक न्याय व्यवस्था पर से ब्रिटिश युग के गहरे कुप्रभाव को अब हटाना आवश्यक हो गया था। साथ ही इनकी अहमियत इस वजह से भी है ताकि एक ऐसी व्यवस्था स्थापित की जा सके, जिसमें सज़ा पर इंसाफ को वरीयता दी जा सके। नस्लीय भेदभाव से प्रभावित ब्रिटिश कानून निर्माताओं ने भारत के लिए अपराध व दंड को इस तरह परिभाषित किया था कि देशज भारतीय जनसंख्या पर उनका नियंत्रण बना रहे। नतीजतन विशेष कानून के ज़रिये दमनकारी पुलिस प्रथाओं को संस्थागत कर दिया गया था, अनेक समुदायों को अपराधी घोषित कर दिया गया था और हर किसी पर शक करते हुए निगरानी के दायरे में रखा गया था। इस स्थिति में सुधार के लिए नये कानूनों में कुछ कदम अवश्य उठाये गये हैं। सामुदायिक सेवा, समयबद्ध प्रक्रिया, पुलिस द्वारा पीड़ितों को जांच की प्रगति से अवगत कराना, तलाशी व ज़ब्ती की लाज़मी वीडियोग्राफी करना और इलेक्ट्रॉनिक एफआईआर दर्ज करना व ट्रायल के ज़रिये यह कानून पारदर्शिता, निपुणता व समसामयिकता की दिशा में प्रगतिशील परिवर्तन का 
संकेत देते हैं।
लेकिन ये नये कानून सज़ा पर इंसाफ को वरीयता देंगे इस पर शक है। क्योंकि इनमें भी विस्तृत पुलिस शक्तियों व अपराधों को बरकरार रखा गया है। इसलिए इनका दुरूपयोग आशंकित है, विशेषकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व असहमति को कुचलने के लिए। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि नये कानूनों में दण्डित करने की आउटडेटेड ब्रिटिश मानसिकता को बरकरार रखा गया है क्योंकि इन्हें डिटरेंस पर अत्यधिक निर्भर रखा गया है जैसा कि लम्बे समय तक जेल में डालना, मृत्युदंड और अनेक अपराधों में न्यूनतम सज़ा में वृद्धि। इससे स्पष्ट है कि ऐसा बिना किसी स्पष्ट संभावित नतीजे के किया गया है कि इन सजाओं से सुधार या पुनर्वास होगा या नहीं। बीएनएस के तहत सजाएं बिना किसी तर्क के निर्धारित की गई हैं। सज़ा के रूप, कैद की अवधि, कैद की प्रकृति या जुर्माने की राशि निर्धारित करने के लिए कोई ज़ाहिर तरीका प्रयोग किया गया हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता है। इसी तरह इसका भी कोई स्पष्ट जवाब नहीं है कि कुछ अपराधों में कैद की समान सज़ा क्यों है, जबकि अन्यों में कठोर सज़ा क्यों है। यह इसलिए हो सकता है क्योंकि नये ड्राफ्ट को आईपीसी की सजाओं पर निर्भर किया गया है, नतीजतन ब्रिटिश तर्क ही लौटकर आ गया है। सज़ा के रूप में सामुदायिक सेवा को छोड़ दिया जाये तो बीएनएस में वर्तमान मनमानी व असंगतियों के साथ समान सजाओं को ही बरकरार रखा गया है।
आनुपात का सिद्धांत मांग करता है कि सज़ाएं अपराध की गंभीरता को प्रतिविम्बित करती हुई हों, लेकिन बीएनएस में अक्सर अलग-अलग गंभीरता वाले अपराधों के लिए समान सज़ाएं हैं और समान अपराधों के लिए अलग-अलग सज़ाएं हैं। शपथ लेकर झूठा बयान (सेक्शन 216, बीएनएस) देने पर सज़ा 3 वर्ष की कैद है और महिला के विरुद्ध क्रूरता (सेक्शन 85, बीएनएस) करने पर भी यही सज़ा है। मानहानि (सेक्शन 356/2, बीएनएस) करो या बच्चे के जन्म को छुपाने के लिए उसके मृत शरीर का चुपके से अंतिम संस्कार (सेक्शन 94, बीएनएस) कर दो, दोनों में सज़ा दो साल तक की ही मिलेगी। अगर नाबालिग बच्चे को वेश्यावृत्ति के लिए बेचा (सेक्शन 98, बीएनएस) तो 10 साल की कैद होगी और वेश्यावृत्ति कराने के लिए नाबालिग बच्चे को खरीदा (सेक्शन 99, बीएनएस) तो सज़ा 14 साल तक की हो सकती है। इससे भी अधिक चिंताजनक यह है कि कम गंभीर अपराधों की तुलना में अधिक गंभीर अपराधों में सज़ा कम है। मसलन, धोखे से विवाह करने (सेक्शन 83, बीएनएस) पर अधिकतम सज़ा 7 साल की है, लेकिन जबरन अवैध श्रम कराने (सेक्शन 146, बीएनएस) पर एक साल तक ही जेल में रहना होगा और क्रूरता (सेक्शन 85, बीएनएस) व यौन उत्पीड़न (सेक्शन 75, बीएनएस) में सज़ाएं 3 साल तक की हैं। 
इसी तरह आजीवन कारावास के संदर्भ में भी असंगति है कि कुछ अपराधों के लिए तो यह सज़ा है, लेकिन अन्य गंभीर अपराधों के लिए नहीं है। बीएनएस के तहत जुर्माना लगाने में भी तर्क नदारद है कि एसिड अटैक (सेक्शन 124, बीएनएस) में तो दोनों कैद व जुर्माना का प्रावधान है, लेकिन दहेज हत्या (सेक्शन 80, बीएनएस) में जुर्माना का प्रावधान नहीं है। कुछ जुर्मानों का उद्देश्य पुनर्वास है और कुछ का नहीं है। कुछ अपराधों में पूर्व निर्धारित जुर्माना है और कुछ में नहीं है, जिनमें जुर्माना निर्धारित है, उनमें भी अपराध की गंभीरता को अक्सर ध्यान में नहीं रखा गया है। बीएनएस ने 6 अपराधों में सामुदायिक सेवा का प्रावधान बतौर सज़ा रखा है, जिसका अर्थ है कि अदालत दोषी से बिना वेतन के ऐसा काम करा सकती है जो समाज के लिए लाभकारी हो। ज़ाहिर है यह मामूली अपराधों के लिए है जैसे शराब पीकर पब्लिक में बदतमीजी करना, लेकिन अन्य मामूली अपराधों को इस सज़ा से बाहर रखा है।
ब्रिटिश की सज़ा नीति का उद्देश्य स्थानीय जनता (जिसे वह ऐसा गंवार समझते थे, जिसमें सुधार की गुंजाइश नहीं) में भय उत्पन्न करना था ताकि उसे नियंत्रित किया जा सके। लेकिन बीएनएस में ‘न्याय’ शब्द पर बल देने और अधिक पारदर्शिता व कार्यक्षम के बावजूद सुधार, पुनर्वास व बहाली के विचारों का फिलहाल के लिए अभाव है। इसके अतिरिक्त मैरिटल रेप को अपराध के दायरे में नहीं रखा गया है; यौन अपराध लिंग विशिष्ट ही हैं; राजद्रोह के अपराध की जगह ‘भारत की प्रभुसत्ता, एकता व अखंडता को खतरा का कानून आ गया है; पुलिस रिमांड प्रावधान पुलिस को गिरफ्तार किये गये व्यक्ति की पुलिस कस्टडी बढ़ाने का अधिकार दिया गया है; चेहरा पहचान टेक्नोलॉजी के बढ़ते उपयोग को संबोधित करने हेतु प्रावधानों का अभाव है; मानहानि अब भी आपराधिक मामला है; और सेक्शन 377 को पूरी तरह से गायब कर दिया गया है जो जबरन समलैंगिक मैथुन को अपराध बनाता है। इन बातों पर नये कानूनों में गौर करना चाहिए था। नये कानून विक्टोरिया युग की नैतिकता से मुक्ति नहीं देते हैं। सबसे चिंताजनक यह है पुलिस को यह अधिकार दे दिए गये हैं कि जो व्यक्ति पुलिस अधिकारी द्वारा पारित निर्देशों का पालन न करे उसे हिरासत में लिया जा सकता है।

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