दलितों ने क्यों छोड़ा भाजपा का साथ ?
देश के राजनीतिक हल्कों में इस बात की जोरदार चर्चा हो रही है कि भाजपा को सत्ता सुख देने वाले दलित वोटर्स 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा से विमुख क्यों हुए? लोकसभा चुनावों में दलितों ने भाजपा के खिलाफ मतदान किया। दलितों की बेरुखी ने भाजपा का 400 पार का नारा ध्वस्त कर दिया। उन्हें यह डर था सत्ता रहा था कि फिर मोदी सरकार बनी तो वह आरक्षण खत्म कर देगी। या यूँ कहे विपक्ष के बनाये भ्रम का दलित शिकार हो गए। चुनाव में विपक्ष ने संविधान खतरे में का मुद्दा जोर शोर से उठाया जिससे दलित मतदाता बिदक गए। 2019 लोकसभा चुनाव में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 84 लोकसभा सीटों में भाजपा ने 46 सीटें जीतीं, लेकिन इस बार केवल उन्हें केवल 30 सीटों पर ही वोट मिल पाई। वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस ने आरक्षित सीटों की संख्या 6 से तीन गुना बढ़ाकर 19 कर दी है। माना जा रहा है कि विपक्ष देश के दलित समुदाय तक अपनी यह बात पहुंचाने में कामयाब रहा है कि भाजपा बाबा साहेब के बनाए संविधान को बदल सकती है। परिणाम बताते हैं कि देश की 131 अजा जजा आरक्षित सीटों में से भाजपा के हाथ इस बार 55 सीटें आई हैं, जबकि पिछली बार ऐसी 77 सीटें भाजपा ने जीती थी, वहीं ऐसी करीब 61 सीटें विपक्ष की झोली में गईं। देश में लोकसभा की 84 सीटें दलितों के लिए आरक्षित है। बताते है जो पार्टी दलितों की अधिकतम सीटें प्राप्त करेगी वही देश पर राज करेगी। इसी को ध्यान में रखते हुए भाजपा सहित सभी सियासी पार्टियों ने दलित मतदाताओं को रिझाने के लिए साम दाम दंड भेद की नीति अख्तियार कर ली।
दलित का मतलब पीड़ित, शोषित व्यक्ति से है। अनुसूचित जाति को दलित बताया जाता है। संवैधानिक भाषा में इन्हें अनुसूचित जाति कहां गया है। भारतीय जनगनणा 2011 के अनुसार भारत की जनसंख्या में लगभग 16.6 प्रतिशत या 20.14 करोड़ आबादी दलितों की है। आज़ादी के बाद दलितों को चुनावी हथियार समझा गया। कांग्रेस पार्टी का इस वर्ग के वोटों पर एकाधिकार स्थापित हो गया। जगजीवन राम 1977 तक दलितों के एकछत्र नेता के रूप में स्थापित हुए। दरअसल 1977 के बाद दलित सियासत में एक नए युग की शुरुआत हुई। दलित वोट कांग्रेस से छिटक कर दूसरे दलों की तरफ जाने लगे। इंदिरा गांधी ने एक बार फिर दलितों का विश्वास जीता। राजीव गांधी को भी दलितों का हितचिंतक समझा गया। जनता पार्टी के विघटन के बाद दलित भी बिखर गए। महाराष्ट्र के कुछ नेताओं ने दलित सियासत की कमान संभालने का प्रयास किया मगर सफल नहीं हुए। जगजीवन राम के बाद कांशीराम दलितों के बड़े नेता के रूप में उभरे और कुछ हद तक यूपी के दलितों के एक बड़े तबके ने उन्हें अपने रहनुमा के रूप में स्वीकारा। शुरू में उन्होंने सवर्णों के विरुद्ध आग उगली मगर जल्दी ही उन्हें समझ में आ गया की ऊंची जातियों से गठजोड़ किये बिना दलितों का भला नहीं होगा। मुलायम सिंह से गठजोड़ कर कांशीराम ने दलित सियासत को धार दी जिसके फलस्वरूप यूपी की राजनीति में उन्हें पैर जमाने में सफलता मिली। बाद के दिनों में मायावती को साथ लेकर कांशीराम ने स्वर्ण जातियों से गठजोड़ कर दलित सियासत को शिखर पर पहुंचाया। कांशीराम ने बसपा का गठन किया जिसने तिलक, तराजू व तलवार इनको मारो जूते चार नारे के साथ कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों के सारे समीकरण बिगाड़ दिए। कांशीराम को मायावती जैसी सहयोगी मिलने के बाद उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य की सत्ता हासिल करने में ज्यादा जोर नहीं लगाना पड़ा। कांशीराम के निधन के बाद मायावती दलितों की नेता के रूप में स्थापित हो गयी।
इसी बीच भाजपा ने दलित वोटों को अपनी झोली में डाल कर दलित वोटों पर अपनी पकड़ मज़बूत की। मायावती से यूपी का ताज छीनने के बाद भाजपा ने दलितों में अपना आधार बढ़ाया। दलित वोटों का कांग्रेस से मोह भंग होने से यह पार्टी सत्ताविहीन हो गयी। मायावती का जनाधार खिसकने से दलितों के पास शक्तिशाली नेतृत्व नहीं रहा। दलित नेतृत्व भाजपा ने हथिया लिया। मगर भाजपा को सबसे बड़ा झटका हालिया लोकसभा चुनावों में तब मिला जब दलितों के एकमुश्त वोट भाजपा से छिटक गए फलस्वरूप भाजपा अकेले दम पर बहुमत से पिछड़ गई। भाजपा में दलित वोट छिटकने पर गंभीर रूप से मंथन चल रहा है। पार्टी नेतृत्व उन कारणों को खोज रहा है जिसके कारण दलित वोटों का खामियाज़ा भुगतना पड़ा। तीन विधानसभाओं के चुनाव इस साल होने है। भाजपा दलित वोटों को फिर अपनी झोली में डालने की रणनीति को तैयार कर रही है। इसमें कितनी सफलता मिलेगी यह तो चुनाव परिणामों से ही मालूम होगा।