मनुष्य के मन में प्रेम और सद्भाव से रहने की सोच विकसित की जाए

कहते हैं कि युद्ध मनुष्य के दिमाग की उपज होता है। प्रश्न यह है कि क्या इसके स्थान पर उसमें शांति की पैदावार नहीं हो सकती। संयुक्त राष्ट्र ने पच्चीस वर्ष पहले अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस की शुरुआत की थी। यह दिवस 21 सितम्बर को मनाया जाता है। इस संदर्भ में यह समझना होगा कि हमारे लिए आज इसका क्या महत्व है। हमारे देश में भारतीय शांति स्थापना बल की कल्पना और उसका गठन स्वर्गीय राजीव गांधी ने अपने कार्यकाल में किया था। भारतीय शांति स्थापना बल के बारे में दो बहुत ही सारगर्भित तथा चौंकाने वाले तथ्यों से भरपूर पुस्तकें उनके लेखक तथा सम्पादक और संकलनकर्ता कर्नल अतुल कोचर तथा कर्नल बी.आर. नायर ने पढ़ने के लिए दीं। इस विषय पर उनसे विस्तार से बातचीत भी हुई। इनमें जांबाज बहादुर सैनिकों के आंखों देखे, स्वयं अनुभव किए संस्मरण हैं।
हुआ यह था कि पड़ोसी देश श्रीलंका में तमिल और सिंहली भाषियों के बीच सत्ता को लेकर संघर्ष चल रहा था।  राजीव गांधी से श्रीलंका के राज्यवर्धने ने उनसे सहायता हेतु या जो भी उनका मंसूबा रहा हो, मुलाकात की। आनन-फानन में भारत श्रीलंका समझौता हो गया। इस बारे में मणि शंकर अय्यर ने राजीव गांधी पर लिखी पुस्तक में इस घटना का ज़िक्र किया है। वह लिखते हैं कि बाहर हॉल में समझौते पर हस्ताक्षर हुए और उसके बाद राजीव और राज्यवर्धने बगल के कमरे में गये। उनके बीच जो बात हुई, वही जानें, लेकिन बाहर आकर घोषणा कर दी कि भारत श्रीलंका में शांति स्थापित करने के लिए अपना सैन्य बल भेजेगा। इस तरह भारतीय शांति स्थापना बल का गठन हो गया और चुनिंदा सैनिकों को भेजने के आदेश दे दिये गये।
यहां यह बताना सही होगा कि विश्व की दो महाशक्तियां अमरीका और रूस दूसरे देशों के आंतरिक और आपसी झगड़ों को सुलझाने तथा वहां शांति स्थापित करने के नाम पर अपनी सेनाओं को भेजते रहे हैं। उनका काम उस बंदर की तरह होता है जो दो बिल्लियों की लड़ाई में चौधरी बनकर अपना उल्लू सीधा करता है। इन दोनों ताकतों का असली मकसद अपने हथियारों का परीक्षण और उनकी मारक क्षमता को भुनाकर अन्य देशों को बेचना होता है। इस चक्कर में वे देश तबाह हो जाते हैं जो उनके शांति बहाल करने के झांसे में आ जाते हैं। भारत ने कभी अपनी सैन्य शक्ति का बेवजह प्रदर्शन नहीं किया और महासमर शक्ति कहलवाने की हवा को बढ़ावा नहीं दिया और न ही कोई सनक पाली।
 अंग्रेज़ी में लिखी दोनों पुस्तकें जिनके शीर्षक ‘रिसरेक्टिंग आईपीकेएफ लेगेसी’ और ‘वेलिएंट डीड्स, अनडाइंग मेमोरीज़’ हैं, हमारे उन वीर सपूतों की कलम से निकली हैं जिन्होंने अपने अदम्य साहस, शौर्य, जीवट और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद देश का नाम रौशन किया है। सीधी, सरल और ओजस्वी भाषा में उन्होंने जो कहानियां कही हैं, उन्हें पढ़ते हुए लगता है कि हमारे सामने ही वह घटना घट रही है। कुछ वर्णन तो ऐसे हैं जिन्हें पढ़ना एक ओर हमारे सैनिकों के पराक्रम को दर्शाता है तो दूसरी ओर आश्चर्यचकित करता है कि किस प्रकार बिना किसी भरपूर तैयारी के हमारे योद्धाओं ने सीमित संसाधनों से वह कर दिखाया जिसकी गाथा प्रेरणास्रोत बन गई। 
इन पुस्तकों में आंखों देखी सच्ची कहानियां तो हैं ही, साथ में लेखकों के जीवन, उपलब्धियों, उपाधियों और वर्तमान कार्यक्षेत्र के बारे में भी संक्षिप्त जानकारी दी गई है। कर्नल भदौरिया, ब्रिगेडियर यू.के. उन्नी, कोमोडोर जोसेफ, लेफ्टिनेंट जनरल पी. सी. भारद्वाज, सतीश दुआ, डॉक्टर कर्नल बत्रा, राजदूत गुरजीत सिंह तथा अन्य जीवित, शहीद अथवा स्वर्गीय सैन्य कर्मियों का वर्णन पढ़ते हुए आंखें नम होना स्वाभाविक है। हृदय से निकले शब्द किसी साहित्यिक विधा या योग्यता के मोहताज नहीं होते, वे बस तल्लीनता से पढ़ने योग्य होते हैं। इन पुस्तकों का हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में रूपांतर एक ऐसी आवश्यकता है जिसके लिये लेखक और श्रेष्ठ अनुवादक वर्ग को आगे आना चाहिए। पुस्तकों के संकलनकर्ता और सम्पादक श्री कोचर और श्री नायर बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने भारत के इतिहास के उस पहलू को उजागर करने का बीड़ा उठाया जो अद्वितीय है। जहां तक भारत द्वारा दुनिया भर में अमन-चैन से रहने की नीति पर चलने का प्रश्न है तो तथ्य यह है कि हमने तब ही हथियार उठाये हैं, जब हमारी सीमाओं पर ख़तरा उत्पन्न हुआ हो। इस नीति के दुष्परिणाम भी झेलने पड़े हैं, जैसे कि कोई भी अपने देश के जुल्मों का शिकार होकर भारत को अपनी शरणस्थली समझ लेता है। हम इतने उदार बन जाते हैं कि उन्हें अपना ही नहीं लेते, बल्कि सभी प्रकार की सुविधाएं देने तक की बात करने लगते हैं। 
शांति का एक पहलू यह भी है कि ‘भय बिन होय न प्रीत’ की नीति पर चलना ही श्रेयस्कर है। हम अपने अस्त्र-शस्त्र, धन-धान्य और शिक्षित समाज के बल पर ही शांति से रह सकते हैं। किसी पर अक्रमण करना हमारी नीति बेशक न हो लेकिन दूसरों के निजी मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति ही हमारी सुरक्षा है। हम विस्तारवादी नहीं हैं, लेकिन दूसरों पर उपकार करना कभी-कभी घातक सिद्ध हो सकता है। आर्थिक और सैन्य सहायता की ज़रूरत किसी को पड़ने पर ऐसा करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन इसके लिए व्यवहारिक होना आवश्यक है। शांति स्थापना के नाम पर हम अपने स्रोत किसी को भी अकारण नहीं दे सकते। दूसरों का भला करने की नीयत रखना अच्छी बात है, लेकिन यह अपने देशवासियों की सुरक्षा और सुविधा की कीमत पर नहीं होना चाहिए। ‘आप भले तो जग भला’ से ही स्थायी शांति रह सकती है। 
भारत के सैनिकों के सम्मान में इंडिया गेट पर जो स्मारक बना है, वह हमारी धरोहर है। वास्तव में हमारे रणबांकुरे चाहे सशस्त्र सेनाओं में हों, अर्ध सैनिक बलों या फिर पुलिस और भारतीय शांति सेना जैसे संघटनों में हों, वे समान रूप से अपने लिए विशेष स्मरण स्थल बनाए जाने के अधिकारी हैं। भारतीय शांति स्थापना बल में तो सब ही सेनाओं के वीर थे। यह देखकर आश्चर्य होता है कि उनका ज़िक्र तक राष्ट्रीय युद्ध स्मारक में नहीं है। हालांकि प्रतिवर्ष भारतीय शांति स्थापना बल से जुड़े लोग वहां अपने बल के शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करने जाते हैं लेकिन उनके नाम यहां न होना एक विसंगति है। बेहतर होगा कि इस बारे में सरकार द्वारा उचित निर्णय लिया जाये और भारतीय शांति स्थापना बल के योगदान को यहां अंकित किया जाये। 
जहां तक शांति दिवस की बात है तो इसकी चर्चा केवल एक परम्परा का निर्वाह करने जैसी नहीं होनी चाहिए, बल्कि प्रयास यह होना चाहिए कि मनुष्य के मन में प्रेम और सद्भाव से रहने की सोच विकसित हो। इतिहास गवाह है कि जिन राजाओं, शासकों ने जीवन भर आक्रमण, युद्ध और ताकत से अपने साम्राज्य का विस्तार किया, अंतिम समय में वे ही शांति के पक्षधर और उसका सूत्रपात करने वालों में रहे। धार्मिक कट्टरता, जातीय उन्माद और स्वयम् को नियंता अथवा ईश्वर समझने की भूल समूल नाश का ही कारण बनती है।