सैनिकों की वापसी

पूर्वी लद्दाख के डेमचोक तथा देपसांग क्षेत्रों से चीनी एवं भारतीय सैनिकों के पीछे हटने के बाद दोनों देशों में विगत 4 वर्ष से भी अधिक अवधि से बना तनाव कुछ सीमा तक कम हुआ है। जून, 2020 को गलवान घाटी में वास्तविक नियन्त्रण रेखा की सीमांत चौकियों पर दोनों देशों के सैनिकों में भीषण टकराव पैदा हुआ था, जिसमें भारत के 20 सैनिक शहीद हुए थे तथा चीन के भी कई सैनिक मारे गये थे। उसके बाद दोनों देशों के सैनिक आमने-सामने आ खड़े हुए थे तथा युद्ध छिड़ने का ़खतरा पैदा हो गया था। भारत ने भी इसके लिए पूरी तैयारी कर ली थी परन्तु इसे हम भारत का दृढ़ निश्चय ही मानते हैं कि बार-बार सीमाओं पर चीनी सैनिकों की ओर से की जाती घुसपैठ को रोकने के लिए भारत की ओर से उठाये गये मज़बूत कदमों ने चीन को न सिर्फ बातचीत के लिए ही विवश किया, अपितु उसने दोनों देशों की वास्तविक नियन्त्रण रेखा को स्वीकार करते हुए यह समझौता किया है।
कुछ वर्ष पहले भूटान एवं भारत की सीमाओं पर भी चीनी सैनिकों की ओर से किए जा रहे उल्लंघन के सामने भारतीय सैनिकों ने महीनों तक डट कर ऐसी ही दृढ़ इच्छा प्रकट की थी। चाहे इन क्षेत्रों में सैनिक गश्त संबंधी समझौता तो हो गया है परन्तु सीमाओं पर अभी भी बहुत-से ऐसे क्षेत्र हैं, जिन पर चीनी सेना अपना हक जताती आ रही है। इनमें गलवान घाटी तथा गोगरा हॉट स्प्रिंग पर भी अभी तक दोनों देशों के सैनिक तैयार-बर-तैयार खड़े हैं परन्तु अब जो दोनों देशों में आपसी समझौता हुआ है, उससे एक अच्छा माहौल ज़रूर बन गया है, जिससे आगे सीमाओं के यह शेष टकराव वाले इन क्षेत्रों संबंधी भी आपसी सहमति बनने की सम्भावना बन गई है। भारत और चीन दोनों ही एशिया के बड़े देश हैं। विगत लम्बी अवधि से सीमाओं को लेकर दोनों का बड़ा विवाद चलता रहा है। इसके दृष्टिगत ही चीन ने वर्ष 1962 में भारत पर हमला किया था, जिसके बाद भारी यत्नों के बावजूद भी दोनों देशों के संबंध सामान्य नहीं बने थे। चाहे आज भी दोनों देशों में व्यापक स्तर पर व्यापार चल रहा है, दोनों कई बड़े अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के सदस्य भी हैं। दोनों देशों के प्रमुख अक्सर किसी न किसी स्थान पर मिलते भी रहते हैं तथा आपसी वार्ता के लिए एक दूसरे देश की यात्राएं भी करते रहते हैं परन्तु एक बड़ी शक्ति के रूप में उभरने के बाद चीन ने अपनी विस्तारवादी नीतियां भी जारी रखी हुई हैं, जिस कारण आज दर्जनों देश उसके विरुद्ध आ खड़े हुए हैं। हिन्द प्रशांत सागर में भी चीन की ऐसी भड़काऊ एवं विस्तारवादी नीतियों के दृष्टिगत आस्ट्रेलिया, अमरीका एवं जापान जैसे देश इस मामले पर भारत के साथ सहमति प्रकट करते हुए मज़बूत संगठन में बंधे हुए हैं। दूसरे शब्दों में चीन ने विगत लम्बी अवधि से अपनी ऐसी गतिविधियों के चलते अन्य देशों के साथ अपने संबंधों की विश्वसनीयता भी गंवा दी है। आज उसे ज्यादातर देशों की ओर से सन्देह की दृष्टि से देखा जा रहा है। भारत भी हमेशा चीन के इरादों से सचेत रहा है। इसलिए इसने पिछले कई दशकों से अपनी सैन्य शक्ति को बढ़ाना शुरू किया हुआ है। चाहे अपने हर तरह के विकास के स्थान पर इसे सैन्य शक्ति बढ़ाने हेतु भारी खर्च करना पड़ रहा है, परन्तु चीन का मुकाबला करने के लिए आज ऐसा करना भी ज़रूरी प्रतीत होता है, परन्तु यदि आगामी समय में चीन के साथ संबंध सुखद बन जाते हैं तो निश्चय ही भारत सैन्य शक्ति बढ़ाने के लिए बड़ी राशि खर्च करने की बजाये इसे अपने विकास कार्यों पर लगाने को प्राथमिकता दे सकता है परन्तु चीन ने लगातार भारत विरोधी नीति अपनाते हुए न सिर्फ पाकिस्तान को हर पक्ष से बड़ी सहायता देना जारी रखा है, अपितु वह समय-समय पर उसे भारत के विरुद्ध शह देने की नीति भी अपनाता आया है।
यह बात समझ में आना कठिन है कि एक तरफ चीन अपने उद्देश्य सिद्ध करने के लिए भारत के साथ लगातार व्यापार बढ़ाने की नीति पर चल रहा है, दूसरी ओर वह भारत को धमकाने की नीति से भी बाज़ नहीं आ रहा। अब तक भारत ने चीन के समक्ष डट कर खड़े होने की नीति अपनाई है। आगामी समय में भी उसकी ऐसी ही धारणा चीन के विस्तारवादी रवैये को नकेल डालने में सहायक हो सकती है, परन्तु इसके बावजूद इस समय दोनों देशों में जो अच्छे हालात बने हैं, उन्हें आगे बढ़ाने में ही दोनों  देशों की भलाई समझी जा सकती है। ऐसी नीति समूचे रूप में एशिया के क्षेत्र के बड़े विकास की भी साक्षी बन सकती है।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द