‘फैसले का इंतज़ार’
वह खुश थे कि आज वह ज़िन्दगी जीने के अभियोग से मुक्त हो गये। कारण यह नहीं था कि वह दोष- रहित हो गये थे, बल्कि यह था कि उनके मुकद्दमे की सुनवाई इतनी लम्बी हो गयी थी, और कानून के रक्षक उनके आरोप को साबित करने के सुबूत नहीं जुटा पाये थे, इसलिये उन्हें ज़मानत पर रिहा कर दिया गया। उन पर दर्ज मुकद्दमे की सुनवाई उसी तरह चलती रहेगी, लेकिन वह तो इसे अभियोग मुक्ति ही मान रहे थे। किस मुकद्दमे और ज़मानत की बात कर रहे हो आप? यूं ज़िन्दगी जीना एक अभियोग ही तो है यहां। पैदा हुए तो कहा गया, इस भीड़ भरे देश में लो एक और पैदाइश हो गयी। इसके बिना भी तो चल सकता था ज़िन्दगी का कारोबार! पैदा हो गये तो हो गये। न होते तो परिवार नियोजन का आंकड़ा सुधर जाता। तो पहला अभियोग क्या यह है कि आप बेवजह पैदा क्यों हो गये? जबकि देश पहले ही अत्याधिक जनसंख्या की व्याधि से ग्रस्त है।
बड़े होने लगे तो आप उस युवा देश का एक हिस्सा बन गये कि जिसमें बदलती दुनिया के मुताबिक पढ़ने-लिखने का कोई ठिकाना नहीं। सही या फर्जी डिग्री हासिल कर ली, तो आपके उचित रोज़ी-रोज़गार का कोई वसीला नहीं। लोग उधार खाते नहीं बल्कि उधार खाने की ज़िन्दगी जीते हैं, और जीवन-यापन के लिए अनुकम्पा की नित्य नयी घोषणाओं का इंतज़ार करते हैं। लगता है जन्म लेते ही आदमी ज़मानत पर जीने का समाधान तलाशने लगा। दुनिया जैसे उसे कहती हो, कि ‘वैसे इस भीड़ भरे देश में तुम्हारी कोई ज़रूरत तो नहीं थी। अब पैदा हो ही गये तो ज़मानत पर जियो कि तुम सिद्ध कर सकते हो कि इस देश के अदब कायदे के मुताबिक जीते रहे। तुम जीने के अधिकार की मांग नहीं करोगे और धन्ना सेठों से लेकर प्रशासन की रेवड़ियों तक से कृत्य-कृत्य हो जाओगे। इस मुखौटाधारी समाज में पूरी तरह से फिट हो जाओगे। हर कदम पर राष्ट्र धर्म का गौरव गान करोगे और माहौल की तलछट में से जो वंचित को मिल गया, उसे अपना अहोभाग्य मानोगे।
यह युवा देश अपने आप को तेज़ गति से विकसित होने की घोषणा करते थकेगा नहीं। देश में कामयाबी के आंकड़ों की अल्पना सजायी जायेगी, और आप अपने आपको किसी अन्धी गली के मोड़ पर ठिठका पाकर भी इस सफलता के आरोपित उत्साह का उत्सव मनाने से चूकोगे नहीं।
यहां हमें उत्सव मनाने के लिए कोई न कोई कारण तो मिल ही जाता है। नहीं मिलता तो पैदा कर लिया जाता है। जैसे आंकड़ा शास्त्री आप को बता देंगे कि देश ने अपने भागीरथ प्रयास से महंगाई पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया है। तनिक थोक कीमतों की ओर देखो, शून्य से नीचे चल रही हैं और परचून कीमतें भी पांच प्रतिशत की सुरक्षित दर से नीचे ले जायी जा रही हैं। आओ, इनका थोड़ा-सा उत्सव मना लें कि महंगाई को हमने विदा कर दिया, लेकिन कहां? बाज़ार तो उसी कीमत उछाल के मूड में है। तेल से लेकर प्याज तक कहते हैं, हाथ न लगा। कीमतें कहां कम हुईं भय्या। वे तो और भी अस्पर्शय हो गयीं। आओ उनके अस्पर्शय होने का उत्सव मना लें, और खुद ज़मानत पर चले जायें।
कहां-कहां नहीं भेजा इन्होंने आपको ज़मानत पर। आप पर अभियोग है कि आप उम्र भर गालियों के सिवा कुछ न मिलने के बावजूद निरन्तर लिखते क्यों चले गये? इतनी किताबें लिख डालीं, एक पैसा कमा कर नहीं देखा बल्कि माहौल तो यह बन गया कि इसकी प्रशंसा भी दूसरों की चिरौरी करके करवाओ। उसकी गोष्ठियां भी स्वयं आयोजित करके इसमें अपना महिमामण्डन करवाओ। इसके बाद भी अगर आप लिखते चले जाने की गुस्ताखी करते हैं, तो उसे हम आपके लिखने के अभियोग से ज़मानत पर रिहा न माने तो और क्या कहें? हां, अब आप ज़मानत पर रिहा हो गये हैं, तो इसे आप साहित्य के लिए अपनी शहादत या बलिदान की घोषणा कर सकते हो।
लेकिन ऐसा क्यों? आपने नेताओं के निरन्तर भाषण सुने हैं न, कि अपने समाज को भ्रष्टाचार से मुक्त करवा देंगे, या रिश्वतखोरी को ज़ीरो स्तर पर सहन किया जाएगा। लेकिन इन घोषणाओं का तालियों से स्वागत करने के बावजूद आप अपना छोटा-सा दफ्तरी काम निकलवाने के लिए अपनी फाइल को चांदी के पहिये लगवाते हो। लगवा कर काम हो जाने पर अपने-आपको संतुष्ट और मुक्त महसूस करते हो। यह संतोष, यह मुक्ति ज़मानत पर रिहा हो जाना नहीं तो और क्या है?
अजी क्या ज़मानत और अभियोग का पचड़ा लेकर बैठ गये आप। न यहां ज़मानत मिलती है, न अभियोगों से छुटकारा। तनिक राजनीति को देख लीजिये। आज वह आम आदमी की ज़िन्दगी में भी कितना घुसपैठ कर गई। अभी पढ़ा एक सास और बहू में भयानक घरेलू झगड़ा हो गया। इसके प्रतिरोध में सास ने अगर वाटर की ऊंची टंकी पर चढ़ कर धरना लगा दिया तो बहू ने किसी पास लगे बिजली के ऊंचे टावर पर। अब राजनीति भी इसमें दखल देने लगी। एक दल सास अर्थात बूढ़ों की उपेक्षा का मामला उठा रहा है, तो दूसरा दल बहुओं पर अत्याचार का। शक है इन टावरों पर चढ़ी सास बहू के समर्थन में पूरे राजनीतिक दल धरना न लगा दें।
लेकिन कहां-कहां धरने लगाओगे बन्धु! अचानक एक चुनौती दी जाती है, तो सड़कों पर धरना लग जाता है, और आने-जाने वाले लोगों का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। विरोध को और तीखा करना हो तो रेल पटरियों पर धरने लगा दो, आती-जाती टे्रनें बन्द करवा दो।
जब हर बात का फैसला यूं राजनीतिक धरातल पर ही होना है, तो कानून ही नहीं समाज की विसंगतियों के सभी अभियुक्त भी तारीख पर तारीख झेल रहे हैं, और फैसले तक जनता को ज़मानत पर रिहा कर रहे हैं। ज़मानत पर रिहा हो कर आने के अन्तिम फैसले का इन्तज़ार। जी हां, नौकरी मिलने से लेकर महंगाई खत्म होने का, भ्रष्टाचार के खात्मे से लेकर अफसरशाही की लगाम लगने का। इसके ज़िम्मेदार लोगों पर अभियोग लग गये, लेकिन मुकद्दमा आम जनता भुगत रही है। बेशक फैसले में अभी विलम्ब है, स्थगन की तारीख पर तारीख पड़ेगी, तो क्यों न फिलहाल भुगतने वालों को ज़मानत पर रिहा कर दिया जाये?