कैसी वीरानी है यह!
‘मुझे तो वह सब याद भी नहीं था, पर प्रदीप ने जब बताया, तब मुझे सब याद आ गया। मैं तो बस अपने संस्कारों से बंधी डोलती थी और मेरे दरवाजे से कोई भूखा न जाए, यह सोचकर उसे घर में जो बना था, थाल भरकर परोस दिया। एक आत्म-तुष्टि का शायद अहंकार ही था।
हां! वे दिन ही ऐसे थे। बस हरियाली और सावन की बहार का आभास। कहीं कोई अभाव नहीं था, कोई कठिनाई नहीं। भरा पूरा परिवार, सेब का बाग और बस, ऐश ही ऐश।’ श्रुति अब तनिक रुकी। ‘ओए! ये तुझे आराम से लेटे लेटे क्या याद आ गया बोबो!’ साधना ने श्रुति को झिंझोड़ते हुए कहा, ‘मेरी तो आंख भी लग गई थी पर तू है कि दो मिनट भी चैन नहीं। चल, अब खोल डाल इस पिटारे को भी। देखें क्या निकलेगा इसमें से।’
गर्मियों की तपती दोपहरी में थोड़ी देर आराम करने की नीयत से दोनों सहेलियां पास-पास लेटी हुई थीं। श्रुति का जब भी मन उदास होता, वह साधना के पास आ जाती थी। जब से श्रुति वापस चंडीगढ़ आ गई है, साधना उससे मिलने तो जाती पर कम ही जा पाती क्योंकि बृजेश का व्यापार इतना फैला हुआ था कि उन्हें अगले पल क्या करना है इसका पता नहीं रहता था। ऐसे में उन्हें हर पल पत्नी की ज़रूरत महसूस होती। कई बार तो वह बाहर जाते हुए उसे भी साथ ले जाते। रही श्रुति, तो वह तो एकदम अकेली थी, कोई बंधन नहीं। थोड़ी-बहुत पेंशन थी काम चलाने के लिए। अकेली जान के खर्च भी सीमित थे या उसने औक कम कर लिए थे। हां, स्वाध्याय तो चलता ही रहता था। कुछ पैसे बच जाते तो पुस्तकें खरीद लाती और पढ़ती रहती।
वैसे तो बचपन साथ-साथ गुजरा था दोनों का, पर विवाह के बाद श्रुति बहुत दूर चली गई थी। उसे पता था कि करण को पहाड़ बहुत पसंद थे पर यह तो पता नहीं था कि अपने इस शौक
के लिए वह नौकरी भी छोड़ सकता है, वह भी सरकारी नौकरी। और हां, करण ने छोड़ ही दी थी नौकरी। चंडीगढ़ की आसान ज़िन्दगी छोड़कर शिमला के दूर दराज पहाड़ पर जमीन खरीद ली और सेब का बाग लगा लिया। श्रुति को तो जैसे मुंह मांगी मुराद मिल गई हो, खुला आसमान, घर के चारों तरफ रंग-बिरंगे फूल, हर दिन ऊंचे उठते सेब के नन्हें पौधे जो अब फलदार वृक्ष बन चुके थे। नाशपाती, खुमानी और आलूबुखारे के फलदार पेड़, उस पर मस्तमौला पति। हंसते-गाते कट रही थी। यह उमर ही अल्हड़पने की थी। पहाड़ों की सुरम्य सुषमा में श्रुति ऐसी रच बस गई कि कुछ होश हवास बाकी नहीं रहा। लेकिन दिन एक से कहां रहते हैं। श्रुति के भी नहीं रहे। वे लम्बे-लम्बे तीस साल तो जैसे पलक झपकते ही बीत गये थे कि पता ही नहीं चला और फिर एक भयंकर वज्रपात हुआ। हमेशा की तरह सेब बेचकर चंडीगढ़ से लौटते हुए करण की गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो गई और सबकुछ समाप्त हो गया। कुछ दिन और गुज़र गए, समय बीतने के साथ-साथ बेटे-बहुओं ने वह तांडव मचाया कि श्रुति घर छोड़कर मायके आ गई। इस बीच क्या झेला श्रुति ने वह कुछ इसी तरह साधना को धीरे-धीरे टुकड़ों में ही पता चलता था। पर हां, भाग्य ही कहें इसे कि करण ने जीवन बीमा योजना के अंतर्गत एक ऐसी योजना का चयन किया था कि एक साथ एक अच्छी राशि जमा करने से करण के बाद उसे इतनी पेंशन तो लग ही गई थी कि गुजारा हो जाता था।
‘अरे कहां खो गई बोबो!’ साधना ने श्रुति को एक बार फिर झिंझोड़ा।
‘हां साधना, वही तो बता रही थी। कभी-कभार कोई दबी हुई टीस फिर उभर आती है न और मेरे ये पिटारे साधना के अलावा किसी और के सामने तो खुल भी नहीं सकते, ‘एक बात बता श्रुति, यह प्रदीप तो शायद वही पंडित है न जो तुम्हारे घर दुर्गा सप्तशती का पाठ और दूसरे कर्म काण्ड करता रहा है!’ करण ऐसे पूजा पाठ में मित्रों परिचितों को सोत्साह बुलाया करते थे। साधना भी दो बार नवरात्र पाठ में वहां गई थी, इसीलिए शास्त्री से परिचय था उसका।
‘हां, है तो वही। पर..!’
‘पर क्याड़ उसे तो तुम लोग शास्त्री जी कहते थे न, फिर यह प्रदीप।’
‘हां, वह करण के रहते शास्त्री ही था, काशी का पढ़ा हुआ विद्वान ब्राह्मण, लेकिन करण के जाने के बाद वह बस एक पुरुष मात्र रह गया।’ श्रुति ने घृणा से मुंह बिचका दिया, ‘सिर्फ प्रदीप कुमार शर्मा, अध्यापक गवर्नमेंट हाई स्कूल।’
‘क्या कह रही हो, यह तो आज पहली बार सुन रही हूं तुम्हारे मुंह से। ऐसा क्या हुआ था?’
‘तुम्हें क्या लगता है?’
‘बताओगी या बस पहेलियां ही बुझाती रहोगी,’ साधना उठकर बैठ गई लेकिन श्रुति अभी भी आंखें बंद किये पीठ दीवार से टिकाए अधलेटी अवस्था में जैसे सपना देख रही हो। फिर बोलने लगी, आंसू की दो बूंदें उसकी बंद आंखों से ढलक आई थीं।
‘धीरू की गाड़ी का एक्सीडेंट हो गया था और ड्राइवर के पास लाइसेंस नहीं था इसलिए वह गाड़ी छोड़कर भाग गया था। अब धीरेंद्र बिल्कुल खाली था, ऊपर से पत्नी और दो बच्चे सो कुछ तो करना ही था।
फिर एक दिन शहर से करण के एक मित्र का बेटा जनक हमारे बेटे धीरू के साथ घर आया था। बच्चों के दोस्त आते ही रहते थे कोई नई बात नहीं थी। जनक कहने लगा, ‘चाची जी, हमारे पड़ोस में एक दुकान खाली हुई है। आप कहो तो धीरू वहां दुकान कर ले।’ (क्रमश:)