कैसी वीरानी है यह!

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‘मैंने कब मना किया है? कर ले न।’ मैंने बेटे की तरफ देखा तो वो कुछ नहीं बोला। जवाब फिर जनक ने ही दिया,
‘तो कल चलकर आप उसे कुछ एडवांस दे देते। इसके पास क्या है, जो उसे देगा? फिर आपको माल डालने के लिए भी तो देना पड़ेगा पैसा।’
‘ठीक है, पर इसे सिफारिश की ज़रुरत क्यों पड़ी?’
‘डर गया था। शायद आप मना कर देंगे।’ 
हां, यह सच था कि कुछ समय पहले ही उसने ट्रक में भारी नुकसान किया था, इसलिए मैं नाराज़ थी। फिर भी मैंने 50 हज़ार की एफडी तोड़कर बेटे की दुकान खुलवा दी।
‘धीरे-धीरे दुकान अच्छी चल निकली तो कामिनी और बच्चे भी शहर चले गये थे, फिर भी दो-चार दिन बाद गांव आ ही जाते और पूजा-पाठ, व्रत-त्योहार के लिए गांव के घर का ही उपयोग होता क्योंकि घर बड़ा था और वहां हर तरह की सुविधा भी थी।’
‘सचमुच, तेरा घर तो बृजेश को भी बहुत पसंद था। इन्होंने तो मोड़ से तेरा घर दिखाई देते ही कहा था, कि यह शायद कोई सरकारी रैस्ट हाउस है। पर जब मैंने इन्हें बताया कि वह तुम्हारा घर है तो बृजेश बहुत खुश हुए थे। याद है..?’
‘हां, जीजा जी ने बहुत तारीफ की थी हम दोनों की पसंद की। सच साधना! क्या दिन थे न वे दिन भी।’ श्रुति सीधी होकर बैठ गई। 
‘चाय हो जाए साधना?’
‘जा, बना कर ला तू ही।’ फिर श्रुति जल्दी से दो कप चाय बना लाई और दोनों बिस्तर पर बैठकर ही चाय पीने लगीं।
‘तू अब रास्ते से भटक रही है, अभी तो तू प्रदीप शास्त्री की कथा कह रही थी।’
‘हां! पिटारा खुल गया तो उसमें बंद जीव-जन्तु भी निकलेंगे ही।’ श्रुति फीकी हंसी हंसकर बोली, ‘तुम्हें पता ही है न साधना! हमारा सेब का बाग जिस ऊंचाई पर है, वहां अच्छी खासी बर्फ पड़ती है तो हर समय सर्दी रहती है और आंगन की धूप अच्छी लगती है। तो मैं कह रही थी कि उस दिन भी घर में नियम के अनुसार दुर्गा सप्तशती का पाठ चल रहा था। 
मैं बाहर आंगन में बैठी धूप का आनन्द ले रही थी। चार अध्याय समाप्त करके वह बाहर आंगन में रखी कुर्सी पर मेरे सामने आ बैठा। थोड़ा असहज होने के बावजूद मैं चुपचाप बैठी रही। रसोई आंगन के साथ होने से भीतर की आवाज़  बाहर तक सुनाई देती थी।
‘अब यह नाटक इनका झेलो पूरे नौ दिन, बनी हैं बड़ी देवी की भक्त। बहू है न नौकरानी, करेगी सारा काम झख मारकर।’ कामिनी भीतर से बड़बड़ा रही थी, वह शायद मुझे सुना रही थी हालांकि पाठ उसके खसम ने ही रखवाया था, मैंने नहीं। उसकी यह बात शास्त्री के कान में भी पड़ गई थी यह उसकी शकल से पता चल रहा था। मैंने बात आई-गई करने के लिए नौकर को आवाज़ दी : ‘माघी! मेरे और शास्त्री जी के लिए दो कप चाय बना ला। बाकी जिसे पीनी हो पूछ ले।’ 
‘जी मां जी! मैंने गुरुजी को उठते देख लिया था।’ माघी दो कप चाय लिए हाज़िर था। कामिनी भी स्वयं को समर्पित दिखाने या फिर धूप का आनन्द लेने के लिए चाय लेकर बाहर आ बैठी थी। माहौल को सहज करने के लिए बात शास्त्री ने ही छेड़ी थी।
‘कामिनी जी, आपको शायद पता नहीं, बाबू जी के रहते बड़ा रौब था इनका। मैं आपकी सास जी से पहली बार जब मिला तो मैं बेहद डरा हुआ था। दरअसल मैं काशी से शास्त्री का कोर्स करके आया ही था कि स्कूल में नौकरी मिल गई और फिर पिता जी ने मुझे सेब की फसल समेटने के काम पर लगा दिया। उस दिन मैं आपकी दुकान पर सेब भरने के लिए पेटियां लेने आया था। स्कूल की छुट्टी के बाद सीधा यहां आ गया। यहां भीड़ बहुत थी सो दिनभर भूखा रहना पड़ा और काम भी नहीं हुआ।
दूसरे दिन भी भीड़ देखकर मुझे लगा आज भी भूखा ही रहना पड़ेगा। मैं बस यही बात किसी से कह रहा था जो आपकी सास जी ने ऊपर से सुन ली। थोड़ी ही देर में आपका नौकर आकर कहने लगा, ‘आपको घर में बीबीजी बुला रहे हैं।’ बस! मैं बुरी तरह डर गया मुझे लगा, शायद कोई गलती हो गई है। किसी दुकान पर सामान लेने जाओ तो घर पर बुलाहट के कोई अर्थ नहीं होते जबकि घर में आपका किसी से परिचय भी न हो। पर इन्होंने मेरे हाथ धुलाकर तुरन्त ही मेरे सामने भोजन की थाली परोस दी। मैं हैरान था फिर भूख भी लगी थी, सो खा लिया। चार बजे स्कूल की छुट्टी के बाद घर जाकर खाना और खाकर लौटना सम्भव नहीं था। इन्होंने उसी समय मुझे बताया कि कल जब मैं बात कर रहा था तो ये ऊपर खिड़की में खड़ी सुन रही थीं। इन्होंने यह भी कहा कि इनके लिए यह एक गाली जैसा है कि कोई घर से भूखा चला जाए। बाबू जी ने तो मेरा परिचय बाद में लिया। पर बाद में पता चला कि आपकी सास ऐसी ही हैं। कोई घर से भूखा नहीं जा सकता यह इस घर का नियम है।’
कामिनी चाय के खाली बर्तन उठाकर चुपचाप भीतर चली गई तो प्रदीप शास्त्री ने दाद तलब नज़रों से मेरी तरफ देखा। पर मैंने उसकी तरफ ध्यान ही नहीं दिया, वह शायद मेरा पक्ष लिए जाने की प्रतिक्रिया देख रहा था। पर मुझे न जाने क्यों उससे चिढ़ सी होने लगी थी। शायद मेरी छटी नस मुझे कुछ संकेत दे रही थी।  (क्रमश:)

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