कैसी वीरानी है यह!
(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)
शाम को कामिनी भी घर आ गई, बाज़ार बंदी का दिन था। दूसरे दिन सुबह सवेरे शास्त्री जी भी पधार गए। फसल का काम लगभग समाप्त हो चुका था। अब सेब दिल्ली ले जाने के लिए ट्रक की प्रतीक्षा हो रही थी।
रसोई मेरे कमरे के साथ लगी हुई थी इसलिए धीरेंद्र और शास्त्री वहीं बैठकर जलपान करने लगे। मैं शायद नाश्ता कर चुकी थी और कुछ लिख रही थी। नाश्ते से निपटकर धीरेन्द्र बोला, ‘आप कल दुकान पर गये थे क्या?’
‘हां! क्यों क्या हुआ?’
‘वहां से आप कुछ सामान निकालकर लाए थे?’ यह उसका दूसरा सवाल था।
‘हां, पर तू यह क्यों पूछ रहा है?’
‘आप को शर्म तो नहीं आई होगी न अपने आप किसी दुकान से सामान निकालते?’
‘क्या बक रहा है रे, मैं माँ हूँ तेरी।’ मैं हक्की बक्की उसका मुंह देख रही थी और शास्त्री प्रदीप कुमार सिर नीचे करके मुस्कुराहट बिखेर रहा था। पूरे बदन में आग ही तो लग गई मेरे। तभी मेरे सुपुत्र के मुख से फिर फूल झरे, ‘ऐसे तो कोई भी आकर दुकान से सामान उठाकर चलता बनेगा। मांग नहीं सकते थे?’
‘नहीं, क्योंकि हमारी बोलचाल बंद थी।’
‘तो मैं आ जाता, मुझसे मांग लेते, मर तो नहीं रहे थे इतनी जल्दी।’
मैं मारे गुस्से के थरथर कांप रही थी। मेरी आंखों से आग निकल रही थी, सच साधना! उस समय मैं इतना अधिक बौखला गई थी कि शायद मैं हत्या भी कर सकती थी। लड़की सत्ती रसोई के दरवाजे में हक्की बक्की खड़ी थी। बहू रानी आराम से रसोई में बैठी तमाशा देख रही थी और वह हराम की औलाद प्रदीप कुमार बड़े ही व्यंग्य से मुझे चुनौतीपूर्ण नज़रों से देख रहा था। जैसे उसके सामने मेरा अपमान होना ही चाहिए था।
मैं अपनी जगह से उठी और पर्स में से लिफाफा निकालकर धीरेन्द्र के मुंह के सामने जोर से जमीन पर पटकते हुए बोली, ‘यह ले। और जाकर अपने बाप के साथ फूंक आ। साथ-साथ उसको यह भी कहकर आना कि इस कुतिया को भी ले जा। क्यों छोड़ गया कमीनी औलाद के पास जिसके पास सिर्फ कान हैं, न तो दिल है और न दिमाग। अरे कमीने, मैं यह तेरी नौकरानी के लिए लाई थी, अपने लिए नहीं। क्या मैंने तुझे 50 हज़ार की रकम इसलिए दी थी कि मैं दुकान में हाथ भी न लगा सकूं? द़फा हो जाओ मेरे कमरे से। नहीं तो एक-एक की चटनी कर दूँगी।’ और फिर छाती पर दोहत्थड़ मार-मार कर रोने लगी तो सब चुपचाप बाहर निकल गए। जब देर तक मेरा रोना बंद नहीं हुआ तो मेरा बड़ा पोता आकर मेरे आंसू पोंछने लगा।
शास्त्री तो मेरा रौद्र रूप देखकर दुम दबाकर तभी खिसक लिया था। शायद उसे क्या मुझे खुद को भी ऐसी उम्मीद नहीं थी। शाम तक मुझे ज़ोर का ज्वर हो आया, इस पर भी मेरा रुदन दो दिन तक लगातार चलता रहा। शाम को मैंने हॉल की अल्मारी में रखी धीरू की शराब की बोतलें अलमारी से निकालकर फर्श पर पटक दीं। पूरे घर में गंध फैल गई, मैंने पूरी रात बरामदे में बैठकर गुजार दी। बेटे की तो मेरे सामने आने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी पर कामिनी जी आकर बार-बार क्षमा मांगने लगीं। कटोरी में तेल लाकर मेरी टांगों की मालिश करने लगी तो मैंने लेटे ही लेटे खींचकर लात फटकार दी। फिर थोड़ी देर बाद वह खीर की कटोरी ले आईं और अपने हाथ से खिलाने लगीं, तब मैं उठकर बैठी हुई थी। मेरे हाथ के एक ही झटके से खीर सारे फर्श पर फैल गई और मैं फिर मुंह लपेटकर पड़ी रही। बुखार तेज़ हो रहा था, बस एक सत्ती थी जो बार-बार मेरे उपद्रव के कारण गंदे हुए फर्श को साफ कर रही थी और किसी के न होने पर आकर थोड़ा पानी जबरदस्ती मेरे मुंह में डाल जाती।
दो दिन गुजर गए थे, मैं बिना कुछ भी खाए पिये बस सिर्फ रो ही रही थी। दूसरे दिन सत्ती काम छोड़कर घर चली गई। बड़ा पोता आटा घोलकर आड़ी टेढ़ी चपाती बना लाया था। साथ में शायद अचार था पर मैं नहीं उठी।
धीरे-धीरे बुखार कम होने लगा तो मैंने खुद उठकर सिर्फ एक कप चाय बनाई और पी ली। किसी से कुछ नहीं कहा। तीसरे दिन सुबह सवेरे ही ट्रक दरवाजे पर आ लगा था और सेब की पेटियां गाड़ी में भरी जाने लगीं। दोपहर को कामिनी खिचड़ी लेकर आई पर मैंने पीठ फेर ली। कुछ देर तक वह खड़ी रही कि शायद मैं सुलह कर लूँ, पर मैं टस से मस नहीं हुई। मेरा मन उन्हें माफ नहीं कर रहा था। थक हारकर वह लौट गई।
शाम हो गई थी मैंने एक कप चाय बनाकर पी ली थी। तभी बेटे को सामने खड़े देखा, वह आकर पांव छूने लगा और बोला, ‘मैं दिल्ली जा रहा हूँ सेब लेकर।’
‘काम खत्म हो गया?’ मैं तीन दिन बाद बोली थी, पर एक फैसला ले चुकी थी। हालांकि मैं जानती थी कि सारी फसल चली गई तो सालभर मेरा क्या होगा। रोटी कैसे चलेगी, पर कुछ तो करना ही था।
‘हां जी।’
‘सारे सेब तोड़ लिए या हैं?’
‘नहीं सारा काम हो गया है, लेबर का हिसाब भी हो गया है। बच्चे आपके पास हैं, दवाई लेते रहना।’
‘ऐसा करो! अपना बाल बच्चा भी साथ ले जाओ और फिर कभी इधर मत आना। मैं अपना काम चला लूँगी।’
‘अरे ऐसे कैसे छोड़ जाऊं आपको। अपनी हालत तो देखो। सत्ती भी काम छोड़ गई है।’
‘मैंने कहा न। मुझे किसी की ज़रूरत नहीं है। जाओ।’ वह देर तक इस कोशिश में रहा कि मुझे मना लेगा लेकिन मुझ पर असर होता न देखकर उसने कामिनी को चलने का संकेत किया। मैंने देखा रसोई में कुकर भर खिचड़ी पड़ी थी, उनके सामने ही उठाकर खेत में फेंक आई और दरवाजे बंद कर लिए।
दूसरे दिन सत्ती सुबह ही आ गई थी। ‘नानी, मेरी वजह से आपको इतना सुनना पड़ा?’ वह आकर रोने लगी। ‘उठो खाना लाई हूँ,’ वह घर से मेरे लिए खाना लाई थी। तीन दिन से अन्न पेट में नहीं गया था। बहुत जोर की भूख लगी थी। मैं चुपचाप उठकर रोटी का एक कौर तोड़ने लगी थी। (समाप्त)