कैसी वीरानी है यह!

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पाठ समाप्त हुआ तो सब लोग वापिस शहर लौट गये, लेकिन शास्त्री का आना-जाना बदस्तूर जारी था। वह बस से हमारे ही दरवाजे पर उतरता हालांकि इससे अपने घर जाने के लिए उसे पैदल अधिक चलना पड़ता था। इसी तरह धीरे-धीरे उसकी नीयत मेरी समझ में आने लगी।
प्रदीप की पौ-बारह थीं बाज़ार जाकर मेरे बच्चों से सेवा कराता और गांव में भी हाज़िरी देने से नहीं चूकता। वहां मेरी बहू का विश्वास जीतकर उनसे घर के भेद निकलवाता और गांव आकर मुझे बताता जिससे मैं उसे अपना समझूं और गेंद उसके पाले में आ गिरे, पर बच्ची तो मैं भी नहीं थी। वह जितना मेरे निकट होने का प्रयास करता मुझे उतनी ही अधिक खीज़ होने लगती। इधर गांव की औरतें भी प्रदीप का नाम लेकर मेरे साथ छेड़छाड़ करने लगीं तो मैंने सारी पूजापाठ बंद कर दी। बेटे से कह दिया, ‘जो करना है वहीं शहर में करो।’
पहाड़ में गांव की औरतें इसे मामूली हंसी-मज़ाक के तौर पर लेती हैं इसलिए उन्हें कुछ कहा भी नहीं जा सकता था पर मुझे अब यह शुगल चुभने लगा था।
उस दिन भी कुछ महिलाएं मेरे पास बैठी थीं कि शास्त्री को आता देखकर एक बोली, ‘चलो भाई चलना चाहिए अब।’ उसका संकेत समझकर मैंने उनको पकड़कर बैठा लिया और हमारी बातें बदस्तूर जारी रहीं। उनके सामने अपमानित करने के लिए शास्त्री को मैंने बैठने को भी नहीं कहा ताकि वह स्वयं को अपमानित जाने। वह अपने आप रसोई में जाकर पानी पीकर आ गया और चुपचाप घर की सीढ़ियां उतर गया। फिर एक दिन मौका देखकर मैंने उसे कह ही दिया, 
‘शास्त्री जी यहां मत आया करें आप। लोग बातें बना रहे हैं, तो वह बेशर्मी से हंसता हुआ बोला था’ ‘तो सच कर दो न तुम।’ उसके मुख से तुम सुनकर एकबारगी मेरा दिमाग चकरा गया। वैसे भी वह आयु में मुझसे छोटा ही था। पर मुझे उसके इरादे नज़र आ रहे थे। वह मेरी तरफ बढ़ता इससे पहले ही मैं झपटकर दरवाजे से बाहर निकल आई और आंगन में खड़ी होकर हांफने लगी। शोर मचाने का कोई मतलब ही नहीं था। कौन आता मेरी मदद को? वह गांव का पूजनीय था। अब मेरे लिए बुद्धि का प्रयोग अनिवार्य था। वह बाहर आकर मेरे सामने की कुर्सी पर बैठ गया और मुझे ऊंच नीच समझाने के साथ मेरा भविष्य सुरक्षित करने के वचन भी देने लगा। तो मैंने कहा, ‘मुझे सोचने के लिए समय दीजिए, अभी आप जाइए। मेरा मन अशान्त है।’
‘क्या बच्चों का आना जाना बंद हो गया था?’ साधना ने पूछा।
‘आते थे कभी-कभार। फसल के काम से। तब उनके शास्त्री जी भी रोज़ आते और सेवा करवाते। ऐसे ही एक दिन जब बेटा बहू, दोनों मेरे कमरे में बैठे थे तो मैंने कहा, ‘बेटा! शास्त्री को ज्यादा मुंह मत लगाओ। मुझे इसकी नीयत ठीक नहीं लग रही। मैं नहीं चाहती कि गांव में बेमतलब की चर्चा हो।’
उस समय तो मेरी बात का कामिनी ने भी तत्काल समर्थन किया लेकिन तीन-चार दिन बाद ही जब वे शहर चले गये तो शास्त्री एक दिन फिर आ धमका। उस दिन मैं घर में अकेली ही थी। वह कहने लगा, 
‘आज मैं रामपुर गया था।’ मैं कुछ नहीं बोली तो कहने लगा, ‘पानी भी नहीं मिलेगा क्या?’ मैं फिर भी नहीं उठी तो अपने आप जाकर रसोई से पानी का गिलास भर लाया।
‘आज तो आपकी बहू ने बहुत सेवा की मेरी।’
मैं कुछ नहीं बोली तो वह अपने आप फिर कहने लगा, ‘गोभी के परांठे पर खूब मक्खन और गिलास भरकर दूध वह भी मलाई डालकर, वाह आनन्द आ गया।’ मैं फिर भी नहीं बोली तो कहने लगा, ‘आप ने क्या बहू वगैरह से मेरे बारे में कुछ कहा था? वह कह रही थी कि मम्मी आपकी शिकायत कर रही थी।’ मैं फिर भी चुप रही तो वह कहने लगा, ‘पर मैं तुम से पूछता हूँ कि तुम क्या समझती हो वे कुछ समझते नहीं हैं?’ कहकर उसने मुझे ऐसे देखा कि मेरे तन बदन में आग लग गई। 
‘अब आप जा सकते हैं। मैं जानती हूँ कि मुझे क्या करना है।’ अभी वह कुछ और कहता कि गांव से एक सज्जन आ गये तो उसे उठना पड़ा। शायद गांव के लोग मुझे रंगे हाथ पकड़ना चाह रहे थे पर दरवाजे सपाट खुले थे।
इस घटना के बाद मैं कई दिन तक डरी सहमी रही। इसलिए कि एकदम नितांत एकांत में पुराना मकान, रात को कोई दो धक्के दे तो दरवाजे हाथ में होंगे परन्तु ईश्वर की कृपा रही कि ऐसा नहीं हुआ। 
फिर उसके थोड़े दिन बाद ही सेब का सीज़न शुरू हो गया और सब लोग गांव आ गए। अब कोई डर वाली बात नहीं थी।
इस बार कामिनी ने गांव से सत्ती नाम की एक लड़की को घर के काम के लिए रख लिया था। सेब तोड़कर लकड़ी की पेटियों में भरने और ट्रक में भरकर मण्डी भेजने तक दिन रात का काम होता और मजदूरों का खाना भी बनाना पड़ता। कामिनी की मेरे साथ अक्सर ही बोलचाल बंद रहती। इस बार भी बंद थी।
उस दिन मैं कुछ सामान लेने बाज़ार जा रही थी कि सत्ती बोली, ‘नानी! मुझे भीतर की बनियान वगैरह ला देना।’
‘ठीक है’ कहकर मैं बाहर निकल आई। दुकान पर आई तो कामिनी ही बैठी थी क्योंकि धीरू घर पर था, सेब भरे जा रहे थे। मैंने बिना कुछ कहे, सत्ती के लिए एक जोड़ी अण्डर गारमैंट निकालकर लिफाफे में डाले और बाज़ार का काम निपटाकर घर लौट आई पर लड़की को सामान देना भूल गई।   (क्रमश:)

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