संघीय ढांचे को लगातार नुकसान पहुंचा रही है केन्द्र सरकार -विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के प्रारूप से तीव्र हुआ विवाद
आएगी हम को रास ना यक-रंगी-ए-़खलाय,
अहिल-ए-ज़मीं हैं हमें दिन-रात (दोनों) चाहिए।
प्रसिद्ध शायर अंजुम रूमानी ने इस शे’अर में यह कहने की कोशिश की है कि यदि अंतरिक्ष सिर्फ एक ही रंग का होता तो यह धरतीवासियों को रास नहीं आ सकता था, इस धरती पर जीवित रहने के लिए दिन तथा रात जैसे अलग-अलग रंगों की ज़रूरत है, परन्तु पता नहीं क्यों हमारी भारत सरकार तथा भाजपा नेतृत्व प्रत्येक वस्तु का सिर्फ एक ही रंग करने को उत्सुक हैं। भारत सरकार का प्रत्येक कदम देश को यक-रंगी की ओर धकेलने वाला तथा देश की अनेकता में एकता की नीति को नापसंद करने वाला होता है। जैसे किसी बहुरंगी बहुआयामी चित्र को एक ही रंग से छिपा कर स्पाट कर देना चाहती हो। हालांकि यह प्रकृति के सिद्धांतों के विरुद्ध है और मानवीय इतिहास के किसी भी दौर में कभी भी लम्बे समय तक यह कोशिश सफल नहीं रही। हमारी सरकार कभी ‘एक देश-एक विधान’ कभी ‘एक देश-एक कानून’ तथा कभी ‘एक देश-एक चुनाव’ की बात करती है और विवधता की खूबसूरती को समाप्त करने की इन कोशिशों से डर लगता है कि अंत में यह कदम कहीं ‘एक राष्ट्र-एक धर्म’ के लक्ष्य की ओर न बढ़ जाए। ़खैर, ताज़ा कोशिश देश के शिक्षा ढांचे पर पूर्ण रूप में तथा सोच को हावी करने की प्रतीत होती है। हालांकि 1976 तक शिक्षा भारत के संविधान में राज्यों के विषय की सूची में दर्ज था, परन्तु 1976 में इसे संवैधानिक संशोधन करके समवर्ती सूची में डाल दिया गया था। उल्लेखनीय है कि समवर्ती सूची में डाले गए विषय कानून की निरंतरता को लाभ दायक समझ कर डाले गए हैं, परन्तु यह ज़रूरी तौर पर केन्द्र का अधिकार नहीं होते। परन्तु फिर भी अब तक भारत में शिक्षा मुख्य रूप में राज्यों के अधिकार में ही रही, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.) की सिफारिशें मानना कानूनी रूप में ज़रूरी नहीं थीं, परन्तु अब यू.जी.सी. (विश्वविद्यालयों तथा कालेजों में अध्यापकों एवं शैक्षणिक कर्मचारियों की नियुक्ति, पदोन्नति की संभाल के उपाय) रेगुलेशन 2025 का जो प्रारूप देश के शिक्षा मंत्री ने जारी किया है, यदि यह प्रारूप लागू हो जाता है तो स्पष्ट रूप में शिक्षा क्षेत्र के बड़े अधिकारों संबंधी राज्यों के पास कोई ताकत नहीं रहेगी। यह भारत के संघीय ढांचे पर एक बड़ी ठेस ही नहीं होगी, अपितु यह भाजपा शासित राज्यों में भी भाजपा की बहुसंख्यक राष्ट्रवादी सोच वाला शिक्षा ढांचा लागू करने में सहायक होगी।
क्या है इस प्रारूप में?
वास्तव में इस प्रारूप में प्रस्तावित नियमों द्वारा विश्वविद्यालयों तथा शैक्षणिक संस्थानों पर एक ही सोच के अध्यापकों को लगाने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा। हालांकि पहले भी यह आरोप लग रहे हैं कि बहुत-से विश्वविद्यालयों में एक विशेष सोच से संबंधित व्यक्ति ही उपकुलपति नियुक्त किए जा रहे हैं, परन्तु इस प्रारूप के कानून बनने से तो राज्य सरकारें चाहे वे भाजपा विरोधी ही क्यों न हो, फैसले लेने की ताकत से बाहर हो जाएंगी।
इस नये प्रारूप के अनुसार विश्वविद्यालयों के नये उपकुलपति नियुक्त करने के लिए बनते तीन सदस्यीय खोज पैनल के तीन सदस्यों में से एक संबंधित राज्यपाल का प्रतिनिधि, एक यू.जी.सी. का प्रतिनिधि तथा एक सैनेट या सिंडीकेट का प्रतिनिधि होगा। स्पष्ट है कि या तो तीनों की सर्वसम्मति एक खास सोच के व्यक्ति के पक्ष में होगी या फिर 2-1 के बहुमत से होगी क्योंकि राज्य का कोई प्रतिनिधि इसमें है ही नहीं और यू.जी.सी. तथा राज्यपाल के प्रतिनिधि तो अप्रत्यक्ष रूप में केन्द्र में सत्तासीन पार्टी से संबंधित ही होंगे।
उल्लेखनीय है कि नए कानूनों में यू.जी.सी. की सिफारिश न मानने की स्थिति में कड़ी कार्रवाई की जाएगी। जहां तक कि विश्वविद्याल के डिग्री कार्यक्रम की मान्यता तक रद्द की जा सकेगी। इस प्रारूप में सहायक प्रोफैसर लगने के लिए ‘राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा’ पास करने की शर्त भी समाप्त हो जाएगी या ज़रूरी नहीं रहेगी। मज़र्ी के लोग नियुक्त करना आसान हो जाएगा। यहां तक कि विश्वविद्याल के उपकुलपित उद्योग, सार्वजनिक नीति, प्रशासन या सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों में उच्च पदों पर नियुक्त व्यक्तियों को भी नियुक्त किया जा सकेगा।
लोकसभा के पूर्व महासचिव पी.डी.पी. अचार्य ने एक लेख में लिखा है कि यह प्रारूप अपनी संवैधानिक सत्ता से दूर जाकर एक असंगत रैगुलेशन बनाकर संघवाद का उल्लंघन है। एक अन्य पूर्व आई.ए.एस. अधिकारी ने लिखा है कि यू.जी.सी. के विकसित हो रहे नियम राज्यों के कानूनों के साथ टकराव पैदा करेंगे तथा राज्यों की शक्तियों की पुष्टि करने वाले न्यायिक उदाहरणों को दृष्टिविगत करते हैं। ़खैर इस प्रारूप का विरोध धीरे-धीरे जोर पकड़ रहा है, परन्तु हैरानी की बात है कि पंजाब सरकार या पंजाब की अकाली दल जैसी पार्टियां जो राज्यों को और अधिक अधिकार देने की समर्थक हैं, इस प्रारूप के माध्यम से राज्यों के पहले अधिकार छीन लेने का विरोध करती दिखाई नहीं दे रहीं। हालांकि इसका सबसे तीव्र विरोध तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन कर रहे हैं। पंजाब तथा अन्य राज्यों के अधिकारों तथा संघवाद के समर्थकों के लिए मुनीर नियामी का यह शे’अर पढ़ना ज़रूरी है जिसका अर्थ है कि एक ही रंग के जादू से आज़ाद होना ज़रूरी है, नहीं तो यदि सारे ज़हर मिलकर एक हो गए तो सभी दवाइयां अप्रभावी हो जाएंगी।
ऐ मुनीर आज़ाद हो इस सेहर-ए-यकरंगी से तूं,
हो गये सब ज़हर याकसां, सब नबातें एक सी।
(सेहर-ए-यकरंगी= एक ही रंग का जादू, यकसां=समान मिला कर एक कर देना, नवातें=जड़ी-बूटियां या दवाइयां)
हरियाणा गुरुद्वारा कमेटी का अध्यक्ष?
अभी हरियाणा सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष के चुनाव की तिथि चाहे निश्चित होनी है, परन्तु 2 फरवरी को होने वाली इस कमेटी की बैठक में 9 सदस्य और नामज़द किए जाएंगे। चाहे यह नामांकन हरियाणा सरकार सूचिबद्ध करेगी, परन्तु इनका चुनाव चुने हुए 40 सदस्यों की बहुसम्मति ही करेगी। वैसे भी हरियाणा के मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी हरियाणा गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के चुनाव में हस्तक्षेप करने से दूर ही दिखाई दे रहे हैं। इस बार हुए चुनाव में सबसे अधिक 22 आज़ाद सदस्य चुनाव जीते हैं, जो यह प्रभाव देता है कि मतदाताओं ने गुट नहीं देखा अपितु व्यक्ति को देखा है। दूसरे नम्बर पर जगदीश सिंह झींडा का गुट रहा, जिनके 9 सदस्य विजयी रहे, अकाली दल बादल द्वारा बनाए गए हरियाणा सिख पंथक दल के 6 उम्मीदवार जीते तथा दीदार सिंह नलवी के सिख समाज संस्था के 3 उम्मीदवार विजयी रहे। पता चला है कि विजयी आज़ाद उम्मीदवारों में से कुछेक को पहले ही अकाली दल के पंथक दल का समर्थन था और अब इनौलो के अभय सिंह चौटाला के विजयी समर्थक आज़ाद सदस्य भी इनके साथ आ मिले हैं। इस समय दावा किया जा रहा है कि इस गुट के पास स्पष्ट बहुमत है। ़खैर, इसकी सच्चाई 2 फरवरी को सामने आ जाएगी कि किस गुट के पास कितनी ताकत है। 9 सदस्यों की नियुक्ति के बाद 49 सदस्यीय हाऊस में अध्यक्ष का चुनाव जीतने के लिए 25 सदस्यों की ज़रूरत होगी। हालांकि झींडा तथा नलवी गुट में एकता के आसार हैं, परन्तु फिलहाल बादल समर्थकों का हाथ ऊपर प्रतीत होता है। यदि अकाली दल अध्यक्ष के चुनाव में जीत जाता है तो यह अकाली दल के कार्यकारी अध्यक्ष बलविन्दर सिंह भूंदड़ की पहली बड़ी राजनीतिक एवं धार्मिक उपलब्धि होगी। दूसरा यह जीत अकाली दल बादल को लाख विरोध के बावजूद पंजाब में भी राजनीतिक लाभ अवश्य देगी।
जीत जाना ही नहीं काफी मेरे मुहसिन सुनो,
जीत कर फिर आगे बढ़ना भी ज़रूरी है बहुत।
भाजपा सिखों से क्या चाहती है
हालांकि भाजपा के वरिष्ठ नेता, आर.एस.एस. भी तथा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वयं भी सिखों को अपना कहने, उनका गुणगान करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। भाजपा ने सिखों के पक्ष में कुछ अच्छे कार्य भी किए हैं, परन्तु आश्चर्य है कि वह ज़्यादातर समयानुसार राजनीतिक लाभ लेने के लिए सिखों के मन को ठेस पहुंचाने में बिल्कुल नहीं झिझकते। उनकी सिखों के प्रति प्यार भरी नीति ऐसी है, जैसे खीर बना कर राख डाल दी जाए। एक ओर कई दशकों से जेलों में बंद बंदी सिंहों को रिहा करने में बहाने बना कर इंकार किया जा रहा है। यहां तक कि जब एक बंदी सिंह बलवंत सिंर राजोआना के भाई की मौत होती है तो उन्हें अपने मृतक भाई की अरदास में शामिल होने के लिए अदालत के माध्यम से सिर्फ तीन घंटे की पैरोल मिलती है। दूसरी ओर सिखों के विरोधी हत्या तथा दुष्कर्म मामले में सज़ा प्राप्त सिरसा डेरा प्रमुख राम रहीम को सिर्फ 24 अक्तूबर, 2020 से 28 जनवरी, 2025 के अल्प समय में 12 बार जेल से बाहर लाया गया है, जिसमें वह लगातार 60 दिन तक भी बारह रहा है। आखिर ऐसा करके भाजपा सिखों से चाहती क्या है? वह सिद्ध क्या करना चाहती है। ऐसी हालत में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा भाजपा के शीर्ष नेतृत्व सहित आर.एस.एस. प्रमुख के लिए हऩीफ अ़खगर का यह शे’अर पेश-ए-़िखदमत कर सकते हैं।
इकरार-ए-मुहब्बत है न इन्कार-ए-मुहब्बत,
तुम चाहते क्या हो हमें इतना तो बता दो।
एक चर्चा यह भी
दिल्ली विधानसभा चुनाव में बस कुछ दिन ही शेष हैं। एक चर्चा बड़े ज़ोर-शोर से सुनाई दे रही है कि पंजाब में ‘आप’ ने जो कांग्रेस के साथ किया है या कर रही है और देश भर में ‘आप’ के कारण अनेक चुनाव हारने के बाद कांग्रेस ने अंत में फैसला कर लिया है कि जब तक आम आदमी पार्टी खत्म नहीं होती, तब तक वह भाजपा को हरा नहीं सकती। इसलिए कांग्रेस अब भाजपा से भी अधिक ‘आप’ का विरोध करेगी और भाजपा के साथ सीधी टक्कर को प्राथमिकता देगी। इस कारण ‘इंडिया’ गठबंधन में से कुछ नेता बाहर जाते हैं तो भी वह परवाह नहीं करेगी। यह भी चर्चा है कि ऐसी ही नीति अब ममता बनर्जी के प्रति भी अपनाई जा रही है। पता चला है कि यह फैसला करवाने में पंजाब तथा दिल्ली के कांग्रेस नेताओं की मुख्य भूमिका है।
-मो. 92168-60000