देश के विकास में बड़ी बाधा बनती नस्लीय हिंसा
अब जब चौतरफा विरोध हो रहा है, और त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक साहा ने दबाव डाला है, साथ ही उत्तर-पूर्व के अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों जैसे मेघालय के कोनार्ड संगमा व दूसरे वरिष्ठ नेताओं ने अपने गुस्से का इज़हार किया है तथा अनुसूचित जनजाति के लिए राष्ट्रीय आयोग ने उत्तराखंड के डीजीपी, देहरादून के डीएम व एसपी को नोटिस जारी करके रिपोर्ट मांगी है, तब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने कहा है कि त्रिपुरा के 24 वर्षीय छात्र अंजेल चकमा की नस्लीय हिंसा में की गई निर्मम हत्या को ‘उनकी सरकार बहुत गंभीरता से लेगी और इस किस्म के अपराधों में लिप्त व्यक्तियों को बख्शा नहीं जायेगा’। मुख्यमंत्री धामी के मुताबिक उनके खिलाफ ‘सख्त कार्यवाही’ की जायेगी। पुलिस ने कहा है कि छह में से पांच आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया गया है, जिनमें से दो नाबालिग हैं।
गौरतलब है कि देहरादून में एमबीए कर रहे अंजेल 9 दिसम्बर 2025 को अपने छोटे भाई के साथ जा रहे थे कि छह व्यक्तियों ने उन पर अभद्र व नस्लीय टिप्पणी की। अंजेल ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि ‘हम चीनी नहीं... भारतीय हैं’, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं सुना और दोनों भाइयों पर चाकुओं व अन्य धारधार हथियारों से हमला बोल दिया। इस वारदात के 14 दिन बाद अंजेल की मौत हो गई, जबकि उसका छोटा भाई अभी गंभीर अवस्था में है। उसका उपचार चल रहा है। देश के विभिन्न हिस्सों में, इस साल केवल दिसम्बर में नस्लीय भेदभाव के कारण हुई लिंचिंग की यह तीसरी घटना है। इसके अतिरिक्त क्रिसमस व उसकी पूर्व संध्या पर अलग-अलग शहरों से चर्चों में तोड़फोड़ व ईसाई समुदाय पर हिंसक हमले हुए, जिससे भारत की दुनिया भर में कड़ी आलोचना हुई। ये सब सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं चिंता का विषय बनी हुई हैं। ज़ाहिर है, इन सब निंदनीय हरकतों और राज्य सरकारों द्वारा इन पर सख्ती से नियंत्रण न कर पाना, न सिर्फ देश की छवि खराब कर रहा है बल्कि भारत की प्रगति व विकास में बहुत बड़ी बाधा है।
इनकी वजह से बड़े-बड़े प्रोजेक्ट्स अधर में लटक जाते हैं, निवेश रुक जाता है। विश्व गुरु जीडीपी बढ़ाने से नहीं बल्कि सामाजिक सौहार्द का वातावरण उत्पन्न करने से बना जाता है ताकि हर कोई व्यापार, शिक्षा आदि के लिए सुरक्षित महसूस करे। संक्षेप में बात केवल यह है कि नस्लीय भेदभाव व हिंसा एक ऐसी समस्या है, जिसे अगर अनदेखा किया जायेगा तो बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। वर्ष 2025 का अंत बहुत ही शर्मनाक व डरावने मोड़ पर हो रहा है। क्या युवा व कामकाजी लोग अपने ही देश में बिना डर व सुरक्षा के इधर से उधर नहीं घूम सकते? देहरादून में एमबीए के छात्र की नस्लीय हिंसा में मौत के बाद दो प्रवासी श्रमिकों की लिंचिंग हुई। 19-20 वर्षीय बंगाली की ओडिशा में और 31 वर्षीय छत्तीसगढ़ी की केरल में। इन दोनों को ही ‘बंग्लादेशी’ कह कर पुकारा गया, जो एक ऐसा आरोप है, जिससे देश में हर जगह प्रवासियों की सुरक्षा खतरे में पड़ जाती है।
अफ्रीका व उत्तर-पूर्व भारत के छात्र व श्रमिक दशकों से दिल्ली व उत्तरी राज्यों में नस्लवाद का सामना करते आ रहे हैं। हाल ही में दिल्ली में भाजपा की एक नेता ने एक अफ्रीकी को धमकाया कि उसने हिंदी क्यों नहीं सीखी, जिसका वीडियो वायरल है। लेकिन अफसोस, किसी सरकार ने नस्लवाद या नफरती अपराध का संज्ञान नहीं लिया। पुलिस आमतौर से नफरत भरे खतरनाक बयानों और ऐसी भयावह हिंसा को ‘छिटपुट घटनाएं’ कह कर टाल देती है। विदेशों में भारतीय छात्र स्वयं नस्लवाद का शिकार हो रहे हैं, विशेषकर ट्रम्प के अमरीका में। अभी हाल में कनाडा में एक भारतीय छात्र की गोली मार कर हत्या की गई। रईस व उच्च वर्ग के भारतीयों को धक्का लगता है, जब पश्चिमी देशों में उन्हें ‘कलर’ की श्रेणी में रखा जाता है, यानी उस तथाकथित ‘नीच श्रेणी’ में जिसमें वह स्वयं दूसरे समुदायों को समझते हैं।
दूसरे देशों में पीड़ित होने के बावजूद हम अपने ही देश में अपने ही लोगों के साथ हो रहे नस्लीय भेदभाव को अनदेखा करते हैं। नीति पॉलिसी रिपोर्ट का अनुमान है कि 2030 तक भारत के केंद्रीय/राज्य विश्वविद्यालयों में 1 लाख से अधिक अंतर्राष्ट्रीय छात्र होंगे। यह उस समय तक संभव नहीं हो सकता जब तक विदेशी छात्रों की सुरक्षा 100 प्रतिशत सुनिश्चित नहीं की जाती है। भारत के उत्तर-पूर्व राज्यों को लम्बे समय से यह शिकायत रही है कि शेष भारत में उन्हें ‘अलग’ समझा जाता है व उनके साथ भेदभाव होता है। इस शिकायत को संबोधित करने की बजाये उसे जाने अनजाने में विकराल रूप धारण करने दिया गया है, जिसकी राजनीतिक प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। मणिपुर के पूर्व मुख्यमंत्री एन. बिरेन सिंह ने भी देहरादून में त्रिपुरा के छात्र की हत्या की कड़ी निंदा की है। यह अलग बात है कि उन पर भी कूकी व मैतेई समुदायों के बीच नस्लीय मतभेद भड़काने के आरोप हैं।
नस्लीय भेदभाव व हिंसा से न सिर्फ भारत की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर छवि खराब हो रही है, विदेशों में भारतीयों पर खतरा बढ़ता जा रहा है बल्कि हमारी अपनी सरकारों की प्रशासनिक क्षमता पर सवाल उठ रहे हैं। यूनाइटेड क्रिश्चियन फोरम का आरोप है कि इस साल ईसाइयों के विरुद्ध भारत में 600 से अधिक वारदातें हुई हैं, जिस पर अमरीका, इंग्लैंड आदि के अखबारों में अग्र लेख लिखे गये हैं। दरअसल, स्वयंभू धर्म के ठेकेदारों को छूट देना खतरे से खाली नहीं है। इसे कैसे न्यायोचित ठहराया जा सकता है कि बरेली के एक कैफे में 20 वर्षीय फर्स्ट इयर की एक नर्सिंग छात्रा अपना जन्मदिन मना रही थी कि लगभग 25 गुंडे वहां पहुंच कर मेहमानों की पिटाई करने लगते हैं कि पार्टी में अलग समुदाय के दो छात्रों को क्यों आमंत्रित किया गया? यह गुंडागर्दी है, प्रशासनिक कमज़ोरी है, जिससे सामाजिक ताना-बाना तार-तार होता है।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर



