विकलांग खिलाड़ियों के लिए रोल मॉडल हैं अंतर्राष्ट्रीय व्हील-चेयर तैराक सतिन्द्र सिंह

सतिन्द्र सिंह हिम्मत, जज्बे और दृढ़-विश्वास की वह उदाहरण हैं, जिन्होंने विकलांग होते हुए भी अपने आत्म-विश्वास के साथ तैराक के तौर पर खेलते हुए देश के लिए बड़ी उपलब्धियां प्राप्त की हैं। इसलिए तो उनकी उपलब्धियां दूसरे विकलांग खिलाड़ियों के लिए एक उदाहरण ही नहीं बल्कि वह सभी के लिए एक रोल मॉडल भी हैं। सतिन्द्र सिंह का जन्म मध्य प्रदेश के एक छोटे से गांव भिंड में एक आम और गरीब परिवार में पिता गया राम के घर माता नरैणी की कोख से 6 जुलाई, 1987 को हुआ। दुर्भाग्यवश सतिन्द्र सिंह के जन्म से 15 दिन बाद वह डायरिया की भयानक बीमारी का शिकार हो गए। नि:संदेह सतिन्द्र सिंह उपचार के दौरान डायरिया की बीमारी से तो मुक्त हो गए लेकिन उनकी दोनों टांगें सुन्न हो गइर्ं। जो कभी भी चल नहीं सकतीं। जब इस बात का पता माता-पिता को लगा तो उन पर दुखों का पहाड़ गिर पड़ा। मजबूरी वश माता-पिता ने गरीब होते हुए भी उनको सम्भालना शुरू किया और अपने लाडले बेटे के लिए गरीब होते हुए भी उनके पालन-पोषण में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। सतिन्द्र ने जब बचपन सम्भाला तो माता-पिता ने उनको अच्छे संस्कार देने भी शुरू कर दिए। सतिन्द्र जब स्कूल पढ़ते थे तो उनको तैरने का बेहद शौक था और वह गांव के साथ लगते दरिया में तैरने चले जाते और यह उनके आनंद लेने का एक बड़ा शौक था और उनको तैरने का जुनून इस कद्र था कि वह स्कूल के बाद भी तैरने चले जाते थे। चाहे उनके तैरने को लेकर गांव के कुछ लोग उनको विकलांग समझ रोकते भी थे लेकिन सतिन्द्र में तैरने के जुनून की हद उनको रोक नहीं सकी और वह जल्द ही एक अच्छे तैराक बन गए और यह उदाहरण तब सामने आई, जब उन्होंने अपनी आंखों के सामने एक 12 वर्षीय बच्चे को दरिया में डूबने से बचा लिया। घर की आर्थिक तंगी के बीच शुरुआती शिक्षा लेकर वह उच्च शिक्षा के लिए ग्वालियर आ गये, जहां उन्होंने बी.ए. और पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री भी प्राप्त की।यह उनकी ज़िन्दगी का एक नया मोड़, नया सफर था, जब वह हैड ऑफ द डिपार्टमैंट स्वीमिंग के प्रोफैसर डा. वी.के. डाबास को स्वीमिंग डिपार्टमैंट में जा मिले, जोकि लक्ष्मीबाई नैशनल इंस्टीच्यूट एजुकेशन फिजीकल ग्वालियर में ट्रेनिंग दे रहे थे। उस दौरान प्रो. डा. वी.के. डाबास ने उनको राष्ट्रीय स्तर पर लेकर जाने के लिए पैरा ओलम्पिक स्वीमिंग के लिए तैयार करना शुरू कर दिया। सतिन्द्र ने पूरा एक वर्ष प्रोफैसर डाबास से तैरने की बारीकियां बड़ी मेहनत और मशक्कत से सीख ली। 2009 में कलकत्ता में हुई नैशनल स्वीमिंग पैरा ओलम्पिक चैम्पियनशिप में उन्होंने पहली बार फ्री स्टाइल 400 मीटर तैराकी करके कांस्य पदक जीता। इसी पदक की जीत के साथ वह आज तक एक अच्छे तैराक के तौर पर तैराकी के क्षेत्र में उपलब्धियां हासिल कर रहे हैं और आज वह भारत की ओर से खेलने वाले माने हुए पैरा-तैराक हैं। प्रो. डाबास की सहायता से उन्होंने कनाडा, अमरीका पैरा इंटरनैशनल स्वीमिंग चैम्पियनशिप में भी भाग लेकर देश का नाम रोशन किया। जहां वह तेज तैराक के तौर पर अपने इस शौक को आगे बढ़ाते गये वहीं उन्होंने अपनी पढ़ाई भी साथ-साथ जारी रखी और उन्होंने हिस्ट्री में मास्टर डिग्री, डिप्लोमा कम्प्यूटर भी साथ-साथ कर लिया। उनकी खुशी की उस समय कोई सीमा न रही जब उनकी उपलब्धियों को देख कर ज़िला मैजिस्ट्रेट श्री पी. निरहारी ने उनको एक कम्प्यूटर लेकर दिया, लेकिन उनकी खुशियों में एक बड़ी खुशी और जुड़ गई जब उनको 23 दिसम्बर, 2014 को मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री स्वराज सिंह चौहान ने मध्य प्रदेश के स्टेट अवार्ड ‘विक्रम अवार्ड’ के साथ सम्मानित किया। बेशक सतिन्द्र राष्ट्रीय स्तर में कई स्वीमिंग मुकाबले कर चुके हैं लेकिन 2017 में आस्ट्रेलिया में हुई पैरा चैम्पियनशिप में भारत के प्रतिनिधित्व में अलग-अलग वर्गों में तैर कर प्रथम स्वर्ण पदक चूमा। 2017 में ही उन्होंने देश सिडनी में 5 मार्च, 2017 को भारत की तरफ से खेलते जीत प्राप्त की। सतिन्द्र की यह भी एक बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी कि 4 मई, 2017 को उन्होंने मुम्बई में समुद्र में 33 किलोमीटर लम्बा तैरने का रिकार्ड भी बनाया। सतिन्द्र दूसरे विकलांग खिलाड़ियों के लिए एक रोल मॉडल के तौर पर अपने क्षेत्र में विचर रहे हैं और वह दोनों टांगों से विकलांग होते हुए भी जहां वह अपनी नौकरी करके अपने माता-पिता का पेट पाल रहे हैं, वहीं वह अपने इस तैराकमयी स्वप्न को भी साकार करते आ रहे हैं और सतिन्द्र कहते हैं  ‘ देश के विकलांग नवयुवकों ने भी देश के लिए बड़ी उपलब्धियां प्राप्त की हैं और उनके लिए यह एक बड़े गर्व वाली बात है कि वह देश के एक सच्चे सपूत हैं, जो देश के लिए खेल कर देश का नाम रोशन कर रहे हैं, इसलिए तो देश उन पर गर्व करता है और मैं इसके लिए खुशकिस्मत हूं।’ वह यह भी कहते हैं कि समूचे विश्व में अच्छे और ईमानदार भी हमेशा होते हैं, जो दूसरों के लिए मार्गदर्शक ही नहीं बनते,बल्कि विकलांग हो जाने के बाद सदमों में डूब जाने वाले नवयुवक लड़कों और लड़कियों को बाहर निकाल कर उनको जीवन के रास्ते पर चलना सिखाते हैं। इसलिए चाहे मैं विकलांग हूं और अपने जीवन को व्हीलचेयर पर चलाता हूं, और मैं कमजोर नहीं हूं, बल्कि एक जिंदादिल इन्सान हूं। सतिन्द्र के जज्बे को सलाम करते हुए आखिर में यही कह सकते हैं कि ‘हौसले के तरकश में कोशिश का वो तीर ज़िंदा रखो, हार जाओ चाहे ज़िन्दगी में सब कुछ मगर फिर से हमेशा जीतने की उम्मीद ज़िंदा रखो।’