शबरी जिसने जूठे बेरों से वश में कर लिए थे राम

ठीक वैसे ही जैसे घनी  अंधेरी रात में एक छोटा-सा तारा एक क्षण के लिए चमके और लुप्त हो जाए पर एक ऐसी छटा बिखेर जाए जो भूले नहीं भूल पाए। राम के वन-गमन के समय, शबरी को राम, लक्ष्मण के दर्शन होते हैं तो वह ऐसे गद्गद् हो जाती है मानो कई जन्मों की कामना एक साथ पूर्ण हो गई हो।  सीता के अपहरण के बाद जब दोनों भाई दर-दर भटकते हुए उनका पता जानने का प्रयास कर रहे थे, तब अनेक ऋषि बड़ी अधीरता से उनके आने की प्रतीक्षा कर रहे थे पर वे सबको छोड़ पहले शबरी के आश्रम में जाते हैं। अचानक अपने आराध्य को अपनी पर्ण कुटी में पाकर शबरी आनंदातिरेक में किंकर्त्तव्यविमूढ़-सी, खड़ी की खड़ी रह गई। ‘निपट बावली सी मैं जान न पाऊं, हंसूं, रोऊं या गाऊं, अथवा क्या भेंट करूं, क्या खाऊं और खिलाऊं...।’ खैर, जैसे तैसे सामान्य होकर शबरी राम-लक्ष्मण की आवभगत करती है, पर फिर वही बात, कहां  एक भीलनी और कहां सूर्यवंशी राजुकमार राम व लक्ष्मण। पता नहीं, उसके हाथ का पानी भी पिएं या न पिएं, ‘उसके स्पर्श से धर्म भ्रष्ट न हो जाएं, का भाव भी हो सकता है शबरी के मन में आया हो पर जब प्रेम की बात होती है तो आदमी सब कुछ भूल जाता है। उसके परिणाम की चिंता करने का होश ही कहां रहता है। यह बात कल भी सच थी और आज भी सच है।शबरी भक्तिपूर्वक अपने आराध्य को बैठाती है, उनके चरण पखारती है और उसके घर में जो भी मौजूद होता है, वही राम जी को खिलाने का निश्चय करती है पर एक दुविधा, एक असमंजस। कुटिया में महज उस समय सिर्फ वही जंगली बेर थे,  जो उसने एक-एक बेर चख त्रिलोक के स्वामी श्री राम को देने के लिए सम्भाल कर रखे थे।अब भक्त प्रेम से दे और भगवान न खाएं, यह कैसे हो सकता है भला। प्रेम पगे उन बेरों को श्री राम बड़े ही चाव से खाते जाते हैं और शबरी की आंखों से निर्मल प्रेम अश्रु की धारा बहती चली जाती है न भगवान को सुध कि उन्हें जूठे बेर दिए जा रहे हैं, न भक्त को यह होश कि आखिर वह कर क्या रही है। न जाति का बंधन आड़े आ रहा था, न हैसियत का कोई प्रश्न खड़ा हो रहा था। यही तो है सच्चे प्रेम की अद्भुत अभिव्यक्ति कि छप्पन भोगों के विपरीत भगवान जूठे बेरों से ही तृप्त हो जाते हैं। जन्म-जन्म के, जीने-मरने के बंधन से मुक्त कर देते हैं राम शबरी जैसे भक्तों को।अब इसी कथा का दूसरा पहलू भी देखिए। लक्ष्मण प्रमाद, अहम् या अज्ञान अथवा आत्म-श्रेष्ठता बोध अभिमान के चलते जूठे बेर खाते नहीं बल्कि उन्हें चुपचाप पीछे फेंकते जाते हैं। राम मुस्कुराते हुए सब देखते हैं पर कहते कुछ भी नहीं। शबरी को तो यह होश ही कहां कि वह देखे कि किसने खाए और किसने फैंके। बस, वह तो अतिथि सत्कार का अपना धर्म निभा रही थी। कहने वाले कहते हैं कि वही फैंके हुए बेर समय के साथ विंध्याचल पर्वत पहुंच संजीवनी बूटी के रूप में उगते हैं और उन्हें ही खाकर लक्ष्मण के प्राण बच पाते हैं। 
शबरी ही राम को सुग्रीव का पता व उससे मिलने तथा उसकी शक्ति और क्षेत्र के ज्ञान से वाकिफ कराती है और उससे मिलने का आग्रह करती है जो बाद में सीता की खोज में मील का पत्थर सिद्ध होता है। वह हनुमान व राम के पुनर्मिलन में सेतु का काम करता है तथा अंतत: रावण के नाश का कारण भी बनता है। इस तरह शबरी छोटी-सी सुई की तरह बड़े छेद को सीने का काम करती है। (समाप्त)