ख्वाज़ा की चौखट पर हर रोज चढ़ते हैं अ़कीदत के फूल

दरगाह का मुख्य धरातल सफेद संगमरमर से निर्मित है। इसके ऊपर आकर्षक गुंबद है, जिस पर सुनहरा कलश है। मज़ार पर मखमल की गिलाफ चढ़ी हुई है। इसके चारों ओर परिक्रमा के स्थान पर चांदी के कठघरे बने हुए हैं। यही वह जगह है, जिसके सामने चंद लम्हे गुजारने की तमन्ना लिए दूर-दूर से जायरीन आते हैं। ख्वाज़ा साहब की दरगाह की इमारत बहुत ही विशाल और भव्य है। ख्वाज़ा साहब का मज़ार-ए-मुबारक बहुत दिनों तक कच्चा बना रहा। सुल्तान ग्यासुद्दीन ने इसका गुंबद बनवाया था। गुंबद पर नक्काशी का काम सुल्तान महमूद बिन नासिरुद्दीन के ज़माने में हुआ। मज़ार का दरवाज़ा बादशाह मांडू ने बनवाया था। मज़ार के अंदर सुनहरा कठघरा बादशाह जहांगीर और दूसरा नुकरई कठघरा शहजादी जहांआरा बेगम द्वारा चढ़ाया गया। मज़ार के दरवाज़े में मुगल बादशाह अकबर द्वारा भेंट की हुई किवाड़ों की जोड़ी लगी हुई है तथा गुंबद पर सुनहरा कलश और कोनों पर सुनहरी कलियां लगी हुई हैं। इसके अंदरूनी हिस्से में बहुत सुन्दर काम किया हुआ है और छत पर मखमल की छतगीरी लगी हुई है।
नक्कारखाना शाहजहानी : इसको हिजरी 1047 में मुगल बादशाह शाहजहां ने लाल पत्थर से बनवाया था। नक्कार-खाने के ऊपरी हिस्से पर अकबरी नक्कारे रखे हुए हैं।
बुलंद दरवाज़ा खिलजी : इस दरवाज़े का निर्माण सुल्तान महमूद खिलजी ने करवाया था। 85 फुट ऊंचे इस दरवाज़े के अंदर के फर्श पर संगमरमर के पत्थर जड़े हुए हैं। इसकी बुर्जियों पर अढ़ाई फुट लम्बे सुनहरी कलश जड़े हुए हैं।
नक्कारखाना उस्मानी : इसका निर्माण 1331 हिजरी में हैदराबाद के नवाब मीर महबूब अली खाना ने करवाया था। इसके दरवाज़े की ऊंचाई 70 फुट है। इस पर प्रतिदिन पांच बार नौबत बजाई जाती है।
अकबरी मस्जिद : अकबर ने 978 हिजरी में लाल पत्थर से यह मस्जिद बनवाई थी। यह मस्जिद ज़मीन से 15 फुट ऊंचाई पर बनी हुई है।
महफिलखाना : दरगाह का एक प्रमुख स्थान महफिलखाना है। यहां उर्स के दिनों में कव्वालियां होती हैं। झाड़फानूस लगे हुए इस भवन का निर्माण हैदराबाद के नवाब बशीरुद्दौला ने करवाया था।
सहन चिराग : यह चिराग दरगाह के प्रवेश द्वार पर बुलंद दरवाज़े के सामने आंगन में रखा हुआ है। इसको मुगल बादशाह अकबर ने भेंट किया था।
बड़ी देग : यह देग बुलंद दरवाज़े के पश्चिमी भाग में रखी हुई है। इसे 976 हिजरी में मुगल बादशाह अकबर ने भेंट किया था। इस देग में लगभग 90 क्ंिवटल चावल पकाया जाता है। इस खाद्य सामग्री को तबर्रुक कहा जाता है। पकने के बाद सारा का सारा तबर्रुक गरीबों में बांट दिया जाता है।
छोटी देग : यह देग बुलंद दरवाज़े के पूर्वी भाग में रखी हुई है। इसको 1022 हिजरी में मुगल बादशाह जहांगीर ने भेंट किया था। इसमें 50 क्ंिवटल से भी अधिक चावल पकता है।
लंगरखाना : दरगाह के उत्तर में लंगरखाना बना हुआ है। इसके दालान में प्रतिदिन गरीबों के लिए लंगर का खाना पकाया जाता है।
शाहजहानी जामा मस्जिद : यह मस्जिद मुगल बादशाह शाहजहां ने बनवाई थी। सफेद व काले संगमरमर के चौकोर पत्थरों से सज्जित और बेहतरीन नक्काशी के खम्भों वाली यह मस्जिद वास्तव में शाहजहां के वास्तुकला प्रेम की प्रतीक है। मस्जिद सुल्तान खिलजी : यह मस्जिद सुल्तान महमूद खिलजी की बनवाई हुई है। इसका फर्श संगमरमर का बना हुआ है। बाद में जहांगीर व औरंगज़ेब ने इसे सुन्दरता प्रदान की। ख्वाज़ा साहब का स्वर्गवास हुए वर्षों बीत चुके हैं, परंतु उनकी आध्यात्मिक महानता तथा उपदेश मानव जाति को आज भी मार्गदर्शन दे रहे हैं। अजमेर में हर वर्ष पहली रजब से 9 रजब तक ख्वाज़ा साहब का उर्स मनाया जाता है। छह रजब को पहला कुल और 9 रजब को दूसरा कुल होने के बाद उर्स सम्पन्न होता है। दरगाह पर उर्स के आरम्भ में एक झंडा चढ़ाया जाता है। जन्नती दरवाज़ा विशेष रूप से उर्स के दौरान ही खोला जाता है। वहां उर्स के दौरान मज़ारे-शरीफ के गुस्ल की रस्म अदा की जाती है।