सुख-दुख के साथी कागज और कलम

पुराने जमाने में राजा-महाराजा अपने समय का हाल पत्थर के टुकड़ों और खंभों पर लिखवा दिया करते थे। फिर बड़े आकार के पत्तों पर लोगों ने लिखना शुरू किया। उस वक्त कागज नहीं थे और अगर कुछ अन्य साधन थे भी तो वे ज्यादा दिनों तक चल नहीं पाते थे । आगे चलकर कागज बने और किताबें लिखी जाने लगीं । एक पूरी किताब हस्तलिपि से तैयार करने तथा फिर उसकी नकल करने की प्रक्रिया में काफी समय लगता था । हमारे बड़े-बड़े गं्रथ रामायण एवं महाभारत सबसे पहले हस्तलिपियों में ही लिखे गए । आज भी बड़े-बड़े पुस्तकालयों में संस्कृत, फ ारसी तथा उर्दू की हाथ से लिखी पुस्तकें संभालकर रखी हुई हैं । अत: लिखने से हमारा नाता बरसों-बरस पुराना है, लेकिन आज के हाईटेक युग में किसी का पत्र लिखकर भेजना मुश्किल हो गया है। एस.एम.एस., ई-मेल या अन्य किसी आधुनिकतम साधन से अपनी बात कहना बहुत आसान हो गया है। लिखने के बारे में कहावत है कि ‘‘सौ पृष्ठ पढ़ एक पृष्ठ लिख’’। इस कहावत का सीधा-सा मतलब है कि लिखने वाला जब तक नियमित रूप से अध्ययनशील नहीं होगा तब तक उसके लिखने में जान नहीं आ पाएगी। अध्ययन का सबसे बड़ा प्रभाव यह है कि इससे हमारी विचार शक्ति का केनवास लगातार फैलता  जाता है। नतीजा  यह होता है कि हमारे लेखन में लगातार पैनापन आता है। उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द ने ग्यारह उपन्यास लिखे और कई कहानियों का सृजन किया । उनके लेखन की विशेष बात यह थी कि वे स्कूल में अध्यापकी करके लौटने के बाद भोजन करके नियमित रूप से अपने घर के बाहर कुएं की जगत पर बैठकर लिखते थे।  अत: किसी दुख या तकलीफ का हम लगभग रोज ही सामना करते हैं । हम इन मुसीबतों में किसी न किसी से चाहे वह हमारे माता-पिता हों, दोस्त हों या फिर बच्चे ही क्यों न हों, साझीदार बनाते हैं। ‘‘स्ट्रोक ऑन ट्रेट’’ में आयोजित ब्रिटिश सायकोलॉजिकल  सोसायटी  के  विशेषज्ञों ने बताया कि अपनी तकलीफों के बारे में  चाहे वे कितनी ही दुखद क्यों न हों, वे लिखने से काफी हद तक कम हो जाती हैं। इससे हमारी रोग-प्रतिरोधक शक्ति में इजाफा तो होता ही है, साथ ही यदि कोई सर्जरी हुई है तो घाव भी जल्दी भरते हैं। विशेषज्ञों के अनुसार यह अचूक और कारगर पद्धति है ।  

            - रेणु जैन