निर्वाचन आयोग : तूफानी सुर्खियों से घिरा रहेगा पूरा साल

बोलचाल की भाषा में जिसे हम चुनाव आयोग कहते हैं वह भारत निर्वाचन आयोग या इलेक्शन कमीशन ऑफ  इंडिया साल 2019 में अगर पूरे साल नहीं तो आधे साल से ज्यादा तक लगातार तूफानी सुर्खियों में रहेगा। इसकी पूरी गुंजाइश है। दरअसल मई खत्म होने के पहले केंद्र में नयी सरकार का गठन होना है इसलिए साल 2019 के मार्च-अप्रैल महीने में 17वें लोकसभा के लिए चुनाव होंगे। भारतीय आम चुनाव पूरी दुनिया के संसदीय तंत्र की सबसे बड़ी कवायद है। इसलिए हर दिन दर्जनों बातों का सुर्खियां बनना लाज़िमी रहेगा। साल 2019 में भारत ही नहीं, पूरी दुनिया की निगाहें निर्वाचन आयोग पर लगी होंगी, क्योंकि भारत का सफ ल लोकतंत्र सिर्फ  एक देश की सफ लता नहीं होती, अपितु दुनिया में लोकतंत्र की सफ लता का पर्याय होता है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और हमारे यहां चुनाव की जो प्रक्रिया है, वह भी अपने आप में एक अद्भुत प्रक्रिया है। दुनिया के किसी भी दूसरे देश में चुनाव की इतनी लंबी और इतनी विस्तृत प्रक्रिया अस्तित्व में नहीं है। साल 1952 से चुनाव आयोग दुनिया की इस सबसे बड़ी चुनाव हलचल को नियंत्रित कर रहा है। इसलिए यह अपने किस्म का दुनिया का अकेला संस्थान है जिसको संसदीय चुनावों का इतना विस्तृत और गहन अनुभव है।चुनाव आयोग एक स्वायत्त एवं अर्धन्यायिक संस्थान है जिसका गठन भारत में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष रूप से भारत के प्रतिनिधित्व संस्थानों में प्रतिनिधि चुनने की व्यवस्था बनाने और चुनावों को सम्पन्न कराने के लिए 25 जनवरी 1950 को किया गया था। वर्तमान में चुनाव आयोग तीन आयुक्तों से प्रशासित है, जिसमें एक मुख्य चुनाव आयुक्त और दो उसके सहायक आयुक्त होते हैं। हालांकि वर्तमान में सिर्फ  दो ही चुनाव आयुक्त हैं, एक मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा और दूसरे श्री अशोक लवासा। अभी तीसरे चुनाव आयुक्त की जगह खाली है। 17वीं लोकसभा का चुनाव निर्वाचन आयोग मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा की देखरेख में सम्पन्न करायेगा। गौरतलब है कि सुनील अरोड़ा ने मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में 2 दिसंबर 2018 को कार्यभार संभाला है। इस पद पर वह अक्तूबर 2021 तक रहेंगे। इनके पहले ओम प्रकाश रावत थे जिन्होंने 23 जनवरी 2018 को कार्यभार संभाला था और 1 दिसंबर 2018 तक अपने पद पर रहे थे। सुनील अरोड़ा जिनके नेतृत्व में इस साल लोकसभा का चुनाव लड़ा जायेगा, उन्हें जिन दो प्रमुख समस्याओं से जूझना होगा, उनमें एक है- मतदान मशीनों की विश्वसनीयता बनाये रखना। गौरतलब है कि सत्तादल को छोड़कर देश के सभी राजनीतिक दल चाहते हैं कि चुनाव ईवीएम के जरिये होने की बजाय पारंपरिक कागजी मतपत्र के जरिये हों। लेकिन सरकार और निर्वाचन आयोग ने इस बात को सिरे से खारिज कर दिया है कि मशीनी चुनाव से किसी किस्म की गड़बड़ होने की आशंका है। हालांकि दुनिया के तमाम विकसित देशाें में भी इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन के जरिये चुनाव नहीं हो रहे। बहुत से देशों में इस मशीन को अपने यहां इस्तेमाल करना शुरू किया लेकिन जल्द ही वे अविश्वास से भर गये और मशीन का इस्तेमाल बंद कर दिया। यहां तक कि अमरीका में भी ईवीएम के जरिये चुनाव नहीं होते। लेकिन भारत दुनिया का न केवल सबसे बड़ा लोकतंत्र है, बल्कि ईवीएम को इस्तेमाल करने के मामले में भी यह दुनिया का सबसे बड़ा चुनाव तंत्र है। भारत में अगले साल होने वाले आम चुनाव में 22,30,000 बैलेट यूनिट जबकि 16,30,000 कंट्रोल यूनिट की जरूरत पड़ेगी साथ ही 17,30,000 वीवीपैट का इस्तेमाल होगा। इस तरह 2019 के आम चुनाव इस मायने में भी अब तक के चुनावों से भिन्न होंगे कि इन चुनावों में इतनी बड़ी तादाद में मशीनरी का इस्तेमाल होगा। भारत में हारने वाली राजनीतिक पार्टियां हमेशा ईवीएम पर दोष मढ़ती रही हैं इसलिए यह साल चुनाव आयोग के लिए आम लोगों में मतदान मशीन के प्रति विश्वास बनाने का बहुत बड़ा काम करना पड़ेगा। लोकसभा चुनावों में 100 फीसदी वीपीपैट वाली मशीनों का इस्तेमाल होना फिर भी 10,60,000 से ज्यादा पोलिंग स्टेशन वाले मतदान महोत्सव में कहीं न कहीं उलझन और कहीं न कहीं आरोप तो लगेंगे ही। इसलिए चुनाव निर्वाचन आयोग को आगामी महीनों में ईवीएम को लेकर बहुत कुछ सुनने और राजनीतिक पार्टियों से लेकर आम राजनीतिक कार्यकर्ताओं तक को संतुष्ट रखने की कोशिश करनी पड़ेगी। चुनाव आयोग के लिए इस साल होने जा रहे आम चुनावों की दूसरी सबसे बड़ी चुनौती फेक न्यूज और पेड न्यूज से निपटना होगा। आजतक एक भी ऐसे चुनाव नहीं हुए, जिसमें ये आरोप न लगे हों कि उम्मीदवार तय राशि से कहीं ज्यादा धन चुनाव प्रचार में खर्च करते हैं। फि र भी चुनाव आयोग बिना हतोत्साहित हुए लगातार चुनाव लड़ने वालों पर नज़र रखता है और अपने हिसाब से यह जानने की कोशिश भी करता है कि प्रचार में किया गया धन तयशुदा सीमा में है या नहीं। लेकिन तकनीकी के इस दौर में विशेषकर संचार और सम्पर्क तकनीकी के क्रांति के दौर में चुनाव प्रत्याशियों के खर्चों पर हर समय नज़र गढ़ाकर रख पाना संभव नहीं है, क्योंकि खर्च करने के ढंग अब वैसे नहीं रहे जैसे दो दशक पहले तक चुनाव में खर्च होता था। 62 वर्षीय सुनील अरोड़ा जो कि 1980 बैच के राजस्थान कैडर के सेवानिवृत्त आईएएस हैं, उन्हें बाकी चुनाव आयुक्तों के मुकाबले कहीं ज्यादा माथापच्ची यह जानने के लिए करनी पड़ेगी कि प्रत्याशी कैसे सोशल मीडिया में बिना खुलासा किये पैसा खर्च करके अपने मतदाताओं से संपर्क बनाते हैं? वैसे तो चुनाव आयोग व्यवहारिक तौर पर नखदंतविहीन संगठन है जिसके पास सैद्धांतिक रूप से काफी ताकतें हैं और अगले दो-तीन महीनों में न सिर्फ  चुनाव आयोग की कार्यक्षमता और उसकी कार्यप्रणाली देशभर में चर्चा का विषय रहेगी बल्कि इस बात पर भी मीडिया से लेकर मध्यवर्गीय घरों के डायनिंग हॉल तक में खूब बहस होगी कि चुनाव आयोग को अपनी स्वायत्तता बरकरार रखने के लिए कितनी आजादी चाहिए।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर