तने हुए मुक्के की भी एक मियाद होती है !


इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि आज के राहुल गांधी एक साल पहले के राहुल गांधी नहीं हैं। आज उनका धुर विरोधी भी उन्हें पप्पू कहने से पहले दस बार सोचेगा। राहुल गांधी में पिछले एक साल में जबरदस्त राजनीतिक कॉन्फि डेंस आया है और हाल के तीन हिंदी भाषी राज्यों में कांग्रेस की जीत, फिर चाहे वह भले नजदीकी जीत ही क्यों न रही हो, उनमें आत्मविश्वास के साथ-साथ जबरदस्त आक्रामकता का भी संचार किया है। लेकिन सवाल है क्या महज आक्रामकता के चलते देश उन्हें प्रधानमंत्री पद के योग्य नेता मान लेगा? आप कह सकते हैं आम लोगों के मानने या न मानने से क्या होता है, अगर राहुल गांधी अपनी पार्टी और अपनी पार्टी के सहयोगियों में उत्साह संचार करने में कामयाब रहते हैं और ये लोग मिलकर 2019 के चुनाव में भाजपा को हरा देते हैं तो उन्हें प्रधानमंत्री बनने से कौन रोकेगा?
लेकिन यह अभी दूर की बात है, साथ ही बहुत जल्दी में निकाला गया निष्कर्ष है। निश्चित रूप से 2019 के लोकसभा चुनाव अब बहुत नजदीक आ गये हैं बावजूद इसके जिस आक्रामकता की राजनीति फि लहाल राहुल गांधी कर रहे हैं, वह न केवल उनको बल्कि उनके चाहने वालों को भी जल्द थका देगी, अगर उनकी इस आक्रामकता में जल्द ही कुछ ठोस तत्व शामिल नहीं होते। सही है कि राहुल गांधी ने पिछले दो महीने के अपने आक्रामक अंदाज से भाजपा को बैकफु ट पर पहुंचा दिया है। अभी एक साल पहले तक भाजपा के नेता सवाल किया करते थे और राहुल गांधी तथा कांग्रेस के दूसरे नेता इन सवालों के जवाब दिया करते थे।
लेकिन आज परिदृश्य उलट गया है। आज संसद में और संसद के बाहर राहुल भाजपा ही नहीं, प्रधानमंत्री पर भी आरोपों की बौछार करते हैं और पूरी भाजपा के साथ-साथ पूरा कैबिनेट उन्हें जवाब देने में लगा रहता है। इससे कांग्रेस खुश हो सकती है, कांग्रेस के समर्थक भी खुश हो सकते हैं, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह खुशफ हमी भी साबित हो सकती है। क्योंकि यह स्थिति लगातार बनी नहीं रह सकती। तना हुआ मुक्का भी हमेशा तना नहीं रहता, अगर उसका ठोस आक्रमण में इस्तेमाल नहीं होता। राहुल गांधी ने अपने आक्रामक अंदाज से माहौल तो कांग्रेस के पक्ष में बनाया है और उन मतदाताओं को भी उत्साह से भरा है जो भाजपा के समर्थक न होने के बावजूद मज़बूत विपक्ष के अभाव में हताश थे।  लेकिन यह इस प्रक्रिया का एक पड़ाव है। अब राहुल गांधी को इससे आगे जाना होगा। अगर वह लगातार अपने आक्रामक रवैय्ये से अपने समर्थकों और अपनी पार्टी में सिर्फ  हवा ही भरते रहे तो यह गुब्बारा फ ट सकता है और सारी हवा निकल सकती है। राहुल गांधी पिछले दो महीने में बहुत आरोप लगा चुके, अब उनके समर्थक भी ऊब रहे हैं कि आखिरकार राहुल कब ठोस सबूत पेश करेंगे जो साबित करें कि राफेल सौदे पर सिर्फ  अंदाजे के आधार पर कांग्रेस भाजपा को कटघरे में नहीं खड़ा कर रही बल्कि उसकी गुनहगारी के उसके पास ठोस सबूत हैं। निश्चित रूप से मायावती या अखिलेश मानें या न मानें राहुल गांधी आज की तारीख में विपक्ष को नेतृत्व देने वाले नेता हैं। 
लेकिन यह स्थिति अभी इसलिए बनी है क्योंकि अपने आक्रामक रवैय्ये से राहुल भाजपा पर भारी साबित हुए हैं। लेकिन अगर उनका यह भारीपन महज आक्रामक रवैय्ये पर ही निर्भर रहा तो बहुत देर तक यह नहीं टिकने वाला। वैसे भी 4 जनवरी 2019 को जिस तरह संसद में रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण ने उनकी आक्रामकता के बदले उससे भी ज्यादा आक्रामक होकर जवाब दिये हैं और इसके एक दिन पहले जिस तरह राहुल गांधी यह कहकर कि उनके पास प्रधानमंत्री के इस सौदे में शामिल होने का ठोस ऑडियो सबूत है और फिर लोकसभा अध्यक्ष के यह कहने पर कि क्या वह इसकी विश्वसनीयता की जिम्मेदारी लेंगे? जिस पर राहुल गांधी पीछे हट गए, उससे धीरे-धीरे राफेल पर आम लोगों का विश्वास उखड़ रहा है।  इसलिए वक्त आ गया है कि राहुल गांधी या तो सचमुच अनिल अंबानी को 30 हजार करोड़ रुपये के फ ायदे का सबूत और इस फ ायदे के एवज में भाजपा को मिली रकम को सामने लाएं या फिर अपनी आक्रामकता से उन्होंने विपक्ष के लिए जो ठोस जमीन बनायी है, उस पर अब आगे की रचनात्मक राजनीति करें। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भाजपा के नेतृत्व वाली मौजूदा केंद्र सरकार 2014 में किये गये तमाम वायदों के पैमाने में पूरी तरह से विफ ल साबित हुई है। लेकिन बजाय इसके कि सरकार को उसकी कामकाजी असफ लता में घेरा जाए अगर कांग्रेस या पूरे विपक्ष ने सरकार को भ्रष्टाचार के मुद्दे में घेरने की कोशिश की, तो वह आम जनता की लड़ाई न होकर महज राहुल गांधी बनाम नरेंद्र मोदी की सत्ता की लड़ाई महसूस होगी। जल्द ही जनता इस लड़ाई में अपने आपको साथ नहीं पायेगी, तब राहुल के लिए न केवल संगठित विपक्ष का नेतृत्व कर पाना मुश्किल होगा बल्कि भाजपा को चुनावों में पटखनी देना भी मुश्किल होगा।
राहुल को अपनी आक्रामकता में ठोस सबूत शामिल करने हाेंगे नहीं तो उनकी आक्रामकता बूमरैंग करके उन्हें धराशायी कर सकती है। एक और बात ध्यान देने की है कि राहुल गांधी हाल के तीन राज्यों में महज किसानों के कर्ज को मुद्दा बनाकर और कुछ दूसरे लोकलुभावन वायदों से चुनाव जीत गये हैं, लेकिन 2019 के चुनाव महज लोक लुभावन वायदों से जीत पाना मुश्किल होगा। क्योंकि हिंदुस्तान में अब एक ऐसा ताकतवर वोट वर्ग भी पैदा हो गया है जिसे लोकलुभावन वायदों से डर लगता है। उसे लगता है कहीं ये लोक लुभावन वायदे उसके हितों को न हड़प जाएं। ऐसे में राहुल को अपनी आक्रामक पारी से बनाये गये माहौल के बाद अब ठहरकर सोचना चाहिए कि दूसरे चरण की राजनीति में कैसे वह खुद को लंबी रेस का घोड़ा साबित करें? उन्हें फि लहाल अपनी कुछ आक्रामकता आने वाले दिनों में चुनाव प्रचार के लिए बचाकर रख लेनी चाहिए। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर