हैट्रिक लगाने का यह चमत्कार दीदी ने आखिर कैसे किया ?

इसमें कोई दो राय नहीं है कि पश्चिम बंगाल में चुनावी राजनीति की बिसात पूरी तरह से ममता बनर्जी के विरुद्ध बिछायी गयी थी। तृणमूल कांग्रेस न सिर्फ  सत्ता विरोधी लहर से जूझ रही थी बल्कि एक-एक करके उसके कद्दावर नेता, मंत्री, सांसद व विधायक अपने समर्थकों के साथ भाजपा में शामिल हो रहे थे, जिससे यह संदेश जाने लगा था कि जैसे तृणमूल के नाम पर केवल ममता दीदी रह जायेंगी। अपने ‘कोबरा अवतार’ में मिथुन चक्रवर्ती से लेकर बंगाली सिनेमा की अधिकतर सुप्रसिद्ध हस्तियां भाजपा के लिए वोट मांगने के लिए मैदान में थीं, कुछ तो प्रत्याशी के रूप में भी थीं। केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा ने बंगाल जीतना अपना ‘प्रेस्टीज इश्यू’ बनाते हुए अपनी पूरी ताकत का निवेश इस राज्य में इस हद तक कर दिया था कि जैसे असम, तमिलनाडु, केरल व पुडुचेरी में विधानसभा चुनाव हो ही न रहे हों। 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक, भाजपा के जितने भी महत्वपूर्ण नेता हैं, वह, कोविड-19 की भयंकर होती दूसरी लहर की परवाह किये बिना, ‘मिशन बंगाल 200’ में शामिल थे, जिसे पक्षपाती इलैक्ट्रॉनिक मीडिया की कृपा से ‘मोदी बनाम दीदी’ बना दिया गया था। चुनाव आयोग को बीजेपी का ‘एक्सटेंशन’ बताते हुए चुनाव योजनाकार प्रशांत किशोर ने कहा, ‘मैंने कभी इतना पक्षपाती चुनाव आयोग नहीं देखा, उसने भाजपा की मदद करने के लिए सब कुछ किया... धर्म के उपयोग की अनुमति देने से लेकर मतदान कार्यक्रम बनाने और नियमों को तोड़ने-मरोड़ने तक।’ हद तो यह है कि 1996 के विधानसभा चुनाव में कुल मतदान का 86.3 प्रतिशत पाने वाले वामपंथी व कांग्रेस भी आपस में हाथ मिलाकर ममता को ही हराने के लिए कमर कसे हुए थे।  इसके बावजूद अगर दीदी 294-सीटों की विधानसभा में 210 से अधिक सीटें ले आती हैं और लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने की दावेदार हो जाती हैं  तो यह किसी चमत्कार से कम नहीं है। सवाल यह है कि आखिर दीदी ने यह चमत्कार कैसे किया? अगर गहराई से देखा जाये तो इस चमत्कार में जितना ममता का अपना सियासी करिश्मा शामिल है, उतना (या शायद उससे अधिक) योगदान उन नेताओं व पार्टियों का भी है, जो दीदी को मुख्यमंत्री के पद से हटाने के लिए प्रयासरत थीं। साथ ही इस समीक्षा में राजनीतिक समझ रखने वाली बंगाल की जनता को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता।
हालांकि ममता बैनर्जी नंदीग्राम में स्वयं मामूली अंतर (चुनाव आयोग के अनुसार लगभग 1700 मतों) से चुनाव हार गईं, लेकिन अपनी परम्परागत व सुरक्षित सीट को छोड़कर नंदीग्राम से चुनाव लड़ना अंतत: उनका मास्टर स्ट्रोक साबित हुआ। अकेले नंदीग्राम से चुनाव लड़ने की भाजपा की चुनौती को स्वीकार करके दीदी ने यह स्पष्ट संदेश दिया कि वह डेविड की तरह हर गोलिअथ (दानव) से टक्कर लेने के लिए तैयार हैं। दीदी की इस ‘फाइटिंग स्प्रिट’ से उनकी पार्टी के कैडर का मनोबल अवश्य बढ़ा, जोकि बड़ी तादाद में तृणमूल से पलायन कर रहे नेताओं के कारण डावांडोल होने लगा था। केवल एक सीट (नंदीग्राम) से चुनाव लड़ने में ममता को इसलिए भी कोई परेशानी नहीं थी, क्योंकि हारने की स्थिति में वह बाद में भी किसी सुरक्षित सीट से चुनाव जीतकर विधानसभा सदस्य बन सकती हैं। 
लेकिन ममता को चुनौती देकर भाजपा स्वयं अपने जाल में फंस गई, खासकर ये बड़े-बड़े दावे करके कि शुवेंदु अधिकारी दीदी को पचास हजार वोटों से हरायेंगे, एक लाख वोटों से हरायेंगे। इससे अधिकारी का एकमात्र लक्ष्य अपनी सीट को बचाना हो गया और उनके लिए नंदीग्राम से बाहर निकलकर भाजपा के लिए चुनाव प्रचार करना कठिन हो गया। चूंकि ममता नंदीग्राम से प्रत्याशी थीं, इसलिए इसका असर आसपास की सभी सीटों पर पड़ा, जो लगभग सभी तृणमूल के पक्ष में गईं। नंदीग्राम में ममता के साथ जो पैर टूटने का हादसा हुआ, उसे भी एक कुशल राजनीतिज्ञ (जोकि वह हैं) की तरह उन्होंने जबरदस्त भुनाया। 400 रुपये की साड़ी और 200 रुपये की चप्पल पहनने वालीं ममता जब पैर में प्लास्टर होने के बावजूद व्हीलचेयर पर बैठकर चुनाव प्रचार के लिए निकलीं तो अपनी दीदी के लिए उन महिलाओं का भावुक होना लाज़िमी था, जिन्हें तृणमूल सरकार ने अपनी हर कल्याण योजना में वरीयता पर रखा था। 
भाजपा ने जितना अधिक ‘प्लास्टर व व्हीलचेयर’ को ‘नौटंकी’ बताया उतना अधिक महिला मतदाताओं की हमदर्दी दीदी के लिए बढ़ी। दरअसल, अपनी आशंकित हार को लगातार तीसरी जीत में बदलने के लिए ममता को मोदी व उनकी पार्टी का धन्यवाद करना चाहिए। भाजपा ने बंगाल जीतने के लिए धार्मिक ध्रुवीकरण का अपना परिचित फार्मूला अपनाया लेकिन ध्रुवीकरण न केवल दोधारी तलवार है बल्कि वह अलग-अलग जगहों पर अलग अलग तरह से वार करता है। अपने ध्रुवीकरण प्रयास से भाजपा को यह लाभ तो अवश्य हुआ कि हिंदी भाषी मतदाता और वह कांग्रेसी व वामपंथी मतदाता जो भाजपा की विचारधारा से तो सहमत नहीं हैं, मगर तृणमूल के विरोधी हैं, उसके पक्ष में आ गये, लेकिन इससे चुनाव आमने-सामने वाला हो गया, क्योंकि धर्मनिरपेक्ष कांग्रेसी व वामपंथी कोलकाता में भगवा लहराने के डर से अपनी पार्टियों को छोड़ते हुए ममता के पीछे लामबंद हो गये, जबकि भाजपा के लिए मत विभाजन करने वाला त्रिकोणीय मुकाबला लाभदायक होता। 
यही वजह  है कि दक्षिण व केंद्रीय बंगाल में वाम-कांग्रेस-आईएसएफ  गठजोड़ ध्वस्त हो गया और मालदा व मुर्शिदाबाद जैसे कांग्रेसी गढ़ भी ममता की झोली में चले गये। बंगाल के चुनाव दो बड़े नैरेटिव के इर्दगिर्द थे हिन्दू-मुस्लिम बनाम बंगाल-दिल्ली। भाजपा ने ‘जय श्री राम’ का नारा दिया तो तृणमूल ने ‘जय सिया राम’ कहा यानी राम के साथ सिया (सीता) का होना भी ज़रूरी है, और इस तरह उसने हिंदुत्व की लहर में भी अपनी महिला मतदाताओं को अपने पक्ष में ही रखा। भाजपा ने तुष्टीकरण के आरोप लगाये तो ममता ने अपनी चण्डी-भक्ति को प्रदर्शित किया और पुजारियों को दिए जाने वाले भत्ते को हाईलाइट किया। संक्षेप में बात केवल इतनी है कि भाजपा के हर प्रश्न का ममता के पास माकूल उत्तर था।
बहरहाल, कुछ अन्य तथ्यों को भी अनदेखा नहीं करना चाहिए। बंगाल में भाजपा के पास कोई मजबूत क्षेत्रीय नेता नहीं था। विधानसभा चुनाव क्षेत्रीय नेताओं के बल पर जीते जाते हैं जैसा कि असम (हिमंता बिसवा सरमा), तमिलनाडु (एमके स्टालिन) व केरल (पी विजयन) की सफलता से स्पष्ट है। कोविड, किसान आंदोलन, बढ़ती बेरोज़गारी व महंगाई आदि ने मतदाताओं को काफी हद तक समझा दिया है कि अगर वह श्मशान बनाम कब्रिस्तान की राजनीति में उलझे रहे तो स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर के अभाव में श्मशान व कब्रिस्तान ही पहुंच जायेंगे। तो मतदाताओं ने जो देश की वर्तमान स्थिति व ज़रूरतों को समझा है, उसने भी दीदी के चमत्कार में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर