वारिस और वसीयत

वक्त बदलने के साथ-साथ बातों का अर्थ, जीने का अंदाज़, प्रेमालाप का तरीका तक कुछ इस कद्र बदल गया है कि हम पहचान ही नहीं पाते कि क्या यह हमारा वही संसार है, जिसमें हम तन कर  हमेशा ‘सही को सही’ और ‘गलत को गलत’ कहते रहे। तब की बात और थी हुज़ूर। तब हम सच के हक में आवाज़ उठाते थे, तो दस लोग हमारी हां में हां मिलाने के लिए खड़े हो जाते थे।  हां में हां मिलाने वालों की तो आज भी कमी नहीं, लेकिन ज़माने ने सच के अर्थ और यथार्थ के सन्दर्भ ही बदल दिये, इसलिए हां में हां मिलाने वाले अब किसी सत्कार्य के लिए खड़े होने वाले नहीं, बड़े आदमी की चाटुकारिता में अर्थ तलाशने वाले हो गए। जी यह इस अर्थ का मतलब समझने वाला नहीं, मतलब साधने वाला है। अर्थ वहीं कालमता साहिब, कि जिसके लिए पहले कहा जाता था, ‘तेरी गठरी में लागा चोर, मुसाफिर जाग ज़रा।’ लेकिन आज जब मुसाफिरों को कहीं जाने की ज़रूरत नहीं तो भला उन्हें जागने की क्या ज़रूरत?
आम आदमियों की गठरियों को तो कोरोना हो गया है। पूर्ण अपूर्ण बंदिशों ने इनका दम सुखा दिया। ऐसा वायरस लगा कि गठरियां शर्मिन्दा होकर पोटलियां बन गयीं। अब वह गोपाल कृष्ण कहां जो सत्ताधीश होकर भी सुदामा को नहीं भूले। मिलने आये मित्र की पोटली छीन कर खोल ली। उसमें सत्तू थे,आधे-आधे बांट कर खा लिए।  मानते हैं कि चुनाव करीब हैं। अब सुदामा के सत्तुओं की पोटली का महत्व बढ़ सकता है। वोट मांगने के लिए तुम्हारी पोटली की थाह लेने तेरे द्वार तक दोबारा सत्ताधीश बनने की चाह रखने वाले आयेंगे। जो इनके नीचे से कुर्सी खिसका दें, ऐसे विपक्षी भी तेरा द्वार खटखटायेंगे। भला तेरी सत्तुओं की पोटली में इतनी कुव्वत है कि वह आधी-आधी बंट कर दोनों का पेठ भर सके?
अजी क्या गये बीते ज़माने की बातें करते हो? पेट तो देखो इन भद्रजनों के भरे-भराये हैं। वे तेरे सत्तू बांटने नहीं तुझे अपने सपने के एक टुकड़े की खैरात देने आये हैं। पिछली बार पांच साल पहले सपनों की आमद का भ्रम जाल बिछा तेरे मतपत्रों का ज़िन्दाबाद ले गये थे। फिर तुझे या तेरी पोटली या उसमें बंधे सत्तू भूल अपनी साइकिलों को आयातित गाड़ियां बनाने में लगे रहे। अब चुनाव युग आने की घंटी टनटनायी तो फिर तेरी सुदामा का सुदामा रह जाने और उसकी पोटली के और भी फट जाने की याद आयी। अब उसकी उधड़न सीने के लिए नारों के नये सूई धागे के साथ सपनों का नया टुकड़ा भी लाए हैं।  देखो, हर हाथ को काम देने का वायदा था, उसकी सुध नहीं ली। उस वायदे के चेहरे पर ‘अपना हाथ जगन्नाथ’ और ‘स्वरोज़गार’ की सफेदी की पुताई करते रहे। अब फिर तेरे वोट मांगने का समय आया तो तेरी पोटली मुंह बाये है। इस बीच तो इसका मुंह और भी खुल गया। बीच के चार दांत भी गायब हो गये।  नेता जी क्या जवाब दें? गरीब की पोटली तो वैसे ही रहनी थी। अब क्या इस फेर में हर दिन अपनी भारी भरकम होती जा रही गठरी को भी गंवा दें? देखिये रोग की दहशत से मुसाफिर घरों मं बंद हो गये, तो पर्यटन करवाने वालों के वाहन उखड़ कर ठेलागाड़ी बन गए, होटल से लेकर चाट-पकौड़ी बेचने वाले तक वीराने में चले गए। स्कूल कालेज बंद पड़े हैं, अध्यापक के वेतन का ठिकाना नहीं, छात्रों का खिलखिलाना नहीं, भला चाट-पकौड़ी बेचने वाला अब बंद होते होटलों के आगे हांक लगाएं।  नहीं साहिब, चाहे सब कुछ बंटाधार हो जाए, लेकिन देश की लोक संस्कृति, लोक जीवन और लोकतंत्र पर आंच नहीं आने देनी है। पहले भी नहीं आने दी थी। एक दो नहीं पूरे पांच राज्यों में चुनाव करवा डाले। ई.वी.एम. मशीनों की धूल-मिट्टी झड़ गयी। अगर इस बीच दाना-पानी के अभाव में चंद लोग मिट्टी में मिट्टी हो गये, तो क्या ़गम? हमने तब भी समय पर चुनाव करवाये, अब भी करवायेंगे।  समय पर इम्तिहानों के नतीजे निकाल दिये। सब पास हो गये, किसी को फेल नहीं होने दिया। देख लो शिक्षा क्रांति हो गई और युवा पीढ़ी भी एक दर्जा ऊपर चली गई। 
यह महिला सशक्तिकरण का ज़माना है, और तुम लोग उनकी आर्थिक दुर्दशा की बात करने लगे। अरे समझदारों ने कैसे-कैसे हल निकाल लिये। बड़े आदमियों ने सामाजिक अन्तर रखना है। स्पर्श सुख को देश निकाला मिल गया, लेकिन महामारी है कि लौट-लौट कर आती है। ज़िन्दगी मौत का भरोसा नहीं। समस्या है अपनी अगाध सम्पदा की वसीयत किसके नाम लिखें? यारों के पास इसका समाधान है। किराये की कोख लेकर बिना नज़दीक गये अपने लिए वारिस पैदा करवा लीजिये। स्वचालित हो काम करने का ज़माना आ गया। अपने वारिस और वसीयत की समस्या यूं हल कर लीजिये। फिर गरीबों की पोटलियों की सुध लेने का वक्त आएगा। उन्हें अपने नारों और वायदों से भर दीजिये। बस एक पंथ दो काज हो गये। देश की सेवा हो गई और आपकी अगली पीढ़ी भी संवर गई।