न्यायपालिका एवं कार्यपालिका दोनों में सुधार की ज़रूरत

देश में जब कोई गलत चलन लम्बे समय तक चलता रहता है तो वह कुप्रथा का रूप ले लेता है। भारतीय राजनीति में अपराधीकरण इसी कुप्रथा के शिकंजे में है। लिहाजा इसे अमरबेल की उपमा दी जाने लगी है। वैसे तो सर्वोच्च न्यायालय दागी माननीयों से मुक्ति के लिए अनेक बार दिशा-निर्देश दे चुका है लेकिन ताजा फैसले में कुछ ज्यादा ही कठोर दिखाई दिया है। न्यायमूर्ति फली नरीमन और बी.आर. गवई की पीठ ने केंद्र सरकार के रवैये पर नाराज़गी व चिंता जताते हुए कहा कि अब सांसदों और विधायकों पर जिन राज्यों में भी आपराधिक मामले न्यायालयों में विचाराधीन हैं, वे संबंधित उच्च न्यायालय की अनुमति के बिना वापस नहीं लिए जा सकते हैं। इसी के साथ न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल को भी निर्देशित किया गया कि वह अपने क्षेत्र के सांसदों व विधायकों पर लम्बित निपटारे के मामलों की जानकारी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को दें। इस फैसले को व्यापक रूप देने की दृष्टि से अदालत ने सभी दलों को निर्देशित किया है कि दागी नेताओं के इतिहास की जानकारी अपनी-अपनी वेबसाइट के होम पेज पर डालें और उनके अपराधों का पूरा ब्यौरा पेश करें। चुनाव आयोग ऐसे नेताओं का मोबाइल एप तैयार कर चुनाव के समय उम्मीदवारों द्वारा दिए शपथ पत्र में दर्ज अपराधों की सूची से जोड़े। 
अदालत ने पिछले वर्ष हुए बिहार विधानसभा चुनाव में उम्मीदवारों के दागी इतिहास को सार्वजनिक करने के आदेश का पालन नहीं करने के मामले की सुनवाई करते हुए यह निर्णय दिया है। दरअसल अदालत में पेश की गई एक रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान और पूर्व सांसदों एवं विधायकों के विरुद्ध लंबित मामले दो साल में ही 17 फीसदी बढ़ गए हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि दिसम्बर 2018 में वर्तमान माननीयों के खिलाफ  दर्ज मामलों की संख्या 4,122 थी, जो सितम्बर 2020 में बढ़कर 4,859 हो गई। फैसले के अंत में अदालत ने विधि-निर्माताओं से कहा है कि राजनीतिक दल जीतने के लालच में गहरी नींद से जागने को तैयार नहीं हैं।     
अदालत ने इसके पहले दागी सांसदों व विधायकों के खिलाफ  लंबित आपराधिक मामलों को साल भर में निपटाने के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने के मामले में भी सख्त रुख अपनाया था। अदालत की इस सख्ती पर केंद्र सरकार ने 12 विशेष अदालतों का गठन कर भी दिया था लेकिन ये अदालतें अब तक सार्थक परिणाम देने में खरा नहीं उतर पाईं। 
बीते तीन-चार दशकों के भीतर राजनीतिक अपराधियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। महिलाओं से दुष्कर्म, हत्या और उनसे छेड़छाड़ करने वाले अपराधी भी निर्वाचित जनप्रतिनिधि हैं। लूट, डकैती और भ्रष्ट कदाचरण से जुड़े नेता भी विधानमंडलों की शोभा बढ़ा रहे हैं। सरकारी ज़मीनों को हड़पने में भी नेताओं की भागीदारी रही है। यही नहीं, जो राजनेता सामंती परिवारों से जनप्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित हुए हैं, उन्होंने भी रियासतों के राज्य सरकारों में विलय होने के दस्तावेजों में हेराफेरी कर सम्पत्तियों को अपने प्रभाव से हड़पने का काम किया है। हमारे यहां आरोपियों के परिजनों को भी टिकट देने की परम्परा बन गई है। नेता के उम्रदराज होने पर भी यही कुप्रथा अपनाई जाती है। इस से ऐसा भी लगता है कि हमारे राजनीतिक दल, कार्यकताओं की उदीयमान पीढ़ी को आगे बढ़ाने का काम नहीं कर रहे हैं। दागियों, वंशवादियों और अयोग्य नेताओं को नकारे जाने की इच्छाशक्ति जताए बिना कोई राजनीतिक सुधार होने वाले नहीं हैं। 
दरअसल, हमारे राजनेता और तथाकथित बुद्धिजीवी बड़ी सहजता से कह देते हैं कि दागी, धनी और बाहुबलियों को यदि दल उम्मीदवार बनाते हैं तो किसे जिताना है, यह तय स्थानीय मतदाता करे। वह योग्य, शिक्षित व स्वच्छ छवि के प्रतिनिधि का चयन करे। लेकिन मतदाता के समक्ष अक्सर मजबूत विकल्प का अभाव होता है। मतदाता के समक्ष दो प्रमुख दलों के बीच से ही उम्मीदवार चयन की मजबूरी पेश आती है।  हालांकि दोनों ओर ऐसे ही दागी उम्मीदवार प्रचुरता में होते हैं। जनता अथवा मतदाता से राजनीतिक सुधार की उम्मीद करना इसलिए भी बेमानी है, क्योंकि राजनीति और और उसके पूर्वग्रह पहले से ही मतदताओं को धर्म और जाति के आधार पर बांट चुके हैं। बसपा, एआईएमआईएम और सपा का तो बुनियादी आधार ही जाति है।  
कानून व्यवस्था में सज़ायाफ्ता मुजरिमों को आजीवन चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध की मांग उठती रही है लेकिन सार्थक परिणाम अब तक नहीं निकल पाए। यही वजह है कि हमारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था पर अपराधी प्रवृत्ति के राजनीतिज्ञ प्रभावी होते चले जा रहे हैं। इसका एक प्रमुख कारण न्यायिक प्रकिया की सुस्ती और टालने की प्रवृत्ति भी है। नतीजतन मामले लम्बे समय तक लटके रहते हैं और नेताओं को पूरी राजनीतिक पारी खेलने का अवसर मिल जाता है।  हमारे यहां पुलिस सीबीआई जैसी शीर्ष जांच एजेंसियां भी निर्लिप्त नहीं होती हैं। अकसर इनका झुकाव सत्ता के पक्ष में देखा जाता है। इनके दुरुपयोग का आरोप परस्पर विरोधी राजनीतिक दल लगाते रहते हैं। इसीलिए देश में यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति बनी हुई है कि अपराध भी अपराध की प्रकृति के अनुसार दर्ज न किए जाकर व्यक्ति की हैसियत के मुताबिक पंजीबद्ध किए जाते हैं और उसी अंदाज़ में जांच प्रकिया आगे बढ़ती है व मामला न्यायिक प्रकिया से गुजरता है। इस दौरान कभी-कभी तो यह लगता है कि पूरी कानूनी प्रक्रिया ताकतवर दोषी को निर्दोष सिद्ध करने की मानसिकता से आगे बढ़ाई जा रही है। इसी लचर मानसिकता का परिणाम है कि राजनीति में अपराधियों की संख्या में निरन्तर बढ़ोत्तरी हो रही है। इस दुरभि संधि में यह मुगालता हमेशा बना रहता है कि राजनीति का अपराधीकरण हो रहा है या अपराध का राजनीतिकरण हो रहा है। हम सब जानते हैं कि सीबीआई इसी पर्याय का अचूक औज़ार बनी हुई है। इसी कारण राजनीति में अपराधीकरण को बल मिला है।
विडम्बना यह भी है कि जनप्रतिनिधियों को तो सब सुधारना चाहते हैं, लेकिन उन अधिकारियों को सुधारने से बचते हैं, जो राजनीति में अपराधीकरण को प्रोत्साहित करते हुए भ्रष्ट आचरण से जुड़े हैं और उन पर भी रिश्वतखोरी से लेकर जघन्य अपराध दर्ज हैं। लोकायुक्त पुलिस द्वारा रंगे हाथों पकड़े जाने के बावजूद राज्य सरकारें इन पर मामला चलाने की मंजूरी देने की बजाय बचाने का काम करती हैं। लिहाजा  भ्रष्ट और अपराधों से जुड़े लोक सेवकों (उच्च अधिकारी) को भी दागी नेताओं की श्रेणी में लाए जाने की ज़रूरत है। ये अधिकारी गिरफ्त में आ जाने के पश्चात भी उसी तरह बचे रहते हैं, जिस तरह राजनेता बचे रहते हैं। नतीजतन ऐसे नेता और नौकरशाहों का गठजोड़ एक-दूसरे को मददगार साबित होता है और वे परस्पर बचने के उपायों को अमली जामा पहनाने का काम करने लग जाते हैं। दागी छवि के इन लोक-सेवकों और माननीयों की वजह से ही नेक-नीयत, धवल छवि, ईमानदार और सादगी पसंद लोग राजनीति में हाशिये पर हैं जिससे योग्यता के बूते उच्च पदों पर बैठने वाले लोग भी कदाचरण करने को विवश हो जाते हैं। साफ  है, विधायिका के साथ कार्यपालिका में भी शुद्धिकरण की ज़रूरत है। 
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