नासूर बनती जा रही मणिपुर की समस्या

देश के उत्तर-पूर्वी सत-बहिना कहे जाते राज्यों मेें से एक मणिपुर में शुरू हुई जातीय हिंसा को बेशक एक वर्ष व्यतीत हो गया है, किन्तु इस हिंसा के कारण इस प्रदेश के लोगों के हृदय में उपजे फफोलों में से आज भी रह-रह कर पीड़ा उपजती रहती है। इस मामले का एक सर्वाधिक त्रासद पक्ष यह है कि इस हिंसा के कारण इस राज्य के दोनों बड़े समुदायों कुक-ज़ूमी और मैतेयी लोगों के बीच शारीरिक और मानसिक दूरियां बढ़ते-बढ़ते एक-दूसरे के विरुद्ध घृणा में तबदील होने लगी हैं। इस प्रांत के कुकी एवं जूमी प्राय: पहाड़ों में रहते आए हैं, और मैतेयी अधिकतर वादी अथवा शहरों में बसते हैं। विगत वर्ष मई मास से पूर्व वहां जन-जीवन बहुत सामान्य था, और दोनों समुदायों के लोग एक-दूसरे के सुख-दुख और कार्य-व्यापार में शरीक होते थे, किन्तु पिछले साल तीन मई को एक वर्ग की दो महिलाओं के साथ शारीरिक एवं मानसिक शोषण और उत्पीड़न की घटना के बाद आज स्थिति यह हो गई है कि दोनों समुदायों के लोग पहाड़ और वादी के बीच खिंच गई एक विभाजक लकीर के आर-पार आना-जाना तो दूर की बात, झांकने की हिम्मत भी नहीं करते। बेशक हिंसा की इस आग की लपटों पर स्वत: उड़ती-झड़ती धूल-राख की परतें जमने लगी हैं, किन्तु इनके भीतर दबी-सिमटी चिंगारियों के ज़रा-सी भी विरोधी हवा लगने से शोलों की भांति भड़क उठने की व्यापक सम्भावनाएं भी बाकायदा मौजूद हैं। इस समस्या का एक और गम्भीर पक्ष यह भी है, कि जिन लोगों के हाथों में इस हिंसा से उपजे घावों पर उपचार हेतु मरहम लगाने का ज़िम्मा होना चाहिए था, वे जाने-अनजाने इन शोलों को हवा देने का कार्य करते प्रतीत होते हैं।
मणिपुर राज्य की स्थिति यह हो गई है कि वहां के भीतरी क्षेत्रों में बेशक थोड़ी शांति हो, किन्तु लकीर के आर-पार दूर-दूर तक सशस्त्र लोग ही सड़कों पर गश्त करते दिखाई देते हैं। इस कारण सीमाओं के आर-पार घुसपैठ की आशंकाएं भी बढ़ी हैं। सामान्य कार्य-व्यापार बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। सरकारी दफ्तरों में काम-काज पूरी तरह ठप्प है जिस कारण पूरे प्रदेश में अराजकता जैसा माहौल सृजित होता जा रहा है। सभी ओर से नाकाबन्दी होने के कारण आवश्यक एवं उपभोग्य वस्तुओं का अभाव है, और मूल्य आसमान छूने लगे हैं। लोगों का धैर्य भी टूटने लगा है। उनकी वित्तीय स्थिति ध्वस्त हो चुकी है, किन्तु सितम की बात यह है कि प्रदेश सरकार और केन्द्रीय प्रशासन ने इस ओर से पूरी तरह आंखें मूंद रखी हैं। प्रदेश की एन.बीरेन सिंह की सरकार भाजपा नीत है, और एक प्रकार से दोनों एक-दूसरे को मूक समर्थन देते ही प्रतीत होती हैं। मुख्यमंत्री इस एक वर्ष के दौरान एक बार भी प्रभावित कुकी क्षेत्र में नहीं गये और न ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को इतनी फुर्सत मिली है कि वह मणिपुर जाकर पीड़ित और प्रभावित लोगों को धैर्य बंधाने हेतु कुछ समय निकाल पाते। एन. बीरेन सिंह पर पक्षपात के आरोप लगे हैं, और प्रधानमंत्री इस मामले को लेकर बदस्तूर अपना चिर-परिचित मौन धारण किये हुये हैं। देश में लोकसभा के चुनाव और नई सरकार के गठन की गहमा-गहमी के बीच निकट भविष्य में इस समस्या की ओर किसी ज़िम्मेदार नेता की ओर से ध्यान दिये जाने की सम्भावना भी कम ही दिखाई  देती है। देश की राजनीति निर्ममता और निर्लज्जता के किस अवसान की ओर अग्रसर हो चुकी है, यह इस एक घटना को देख कर पता चल जाता है। सभी नेता एक-दूसरे के वस्त्र उतारने की सीमा तक तो अवश्य पहुंचे हैं, किन्तु राष्ट्रीय एकता-अखण्डता जैसे इतने संवेदनशील मुद्दे को लेकर न तो सत्ता पक्ष गम्भीर हुआ दिखाई दिया है, न विपक्ष ने ही इस मुद्दे के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझा है। इस प्रदेश से लोकसभा की केवल दो ही सीटें होने के कारण राजनीतिक संख्या बल के धरातल पर भी यह राज्य कोई अधिक प्रभाव नहीं रखता, हालांकि यहां सम्पन्न हुए मतदान के दौरान रिकार्ड 81 प्रतिशत वोट पड़े थे।
विगत एक वर्ष में इस हिंसा के कारण दो सौ से अधिक लोगों की जान गई है। दोनों समुदायों के लगभग 60 हज़ार लोग कैम्पों और टैंटों में रहने को मजबूर हैं। प्रदेश का युवा वर्ग दिशा-हीन हिंसा में लिप्त होता जा रहा है। प्रदेश सरकार सी.बी.आई. की आड़ में टालम-टोल की नीति पर चल रही है, किन्तु इस प्रांत के दोनों समुदायों के लोगों में एक-दूसरे के विरुद्ध घृणा चरम शिखर को छू लेने को अग्रसर है। हम समझते हैं कि हिंसा और रक्तपात से बनी इस नदी में बहुत कुछ बह गया है। केन्द्र सरकार और खासकर प्रधानमंत्री को थोड़ा आगे बढ़ कर पहल करने की बड़ी ज़रूरत है। प्रभावित लोगों के घावों पर नश्तर की नहीं, मरहम की ज़रूरत है, और यह मरहम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से बेहतर और कौन लगा सकता है। एक बड़ी मरहम मुख्यमंत्री बीरेन सिंह की सरकार को हटा कर भी लगाई जा सकती है। उन पर भेदभाव और पक्षपात के आरोप काफी गम्भीर हैं। हम समझते हैं कि इससे पहले कि यह मामला नासूर बन जाए, और फिर वापिस लौटने की कोई उम्मीद भी न रहे, किसी न किसी ज़िम्मेदार को आगे बढ़ कर इस हिंसक घोड़े की लगाम को अवश्य थामना चाहिए।