क्या बसपा हिन्दू राजनीतिक एकता बनने देगी ?

भारतीय जनता पार्टी जानती है कि जब तक दलित वोटर उसके साथ नहीं जुड़ेंगे, तब तक हिन्दू राजनीतिक एकता तैयार करने का उसका सपना अधूरा ही रहेगा। लेकिन इस काम में 80 के दशक से बहुजन समाज पार्टी उसके लिए बाधक बनती रही है। लेकिन नरेंद्र मोदी के उभार के बाद से भाजपा काफी-कुछ बसपा की इस चुनौती को कमज़ोर करने में कामयाब रही है। लेकिन क्या बसपा की हिन्दुत्व को दी जाने वाली यह चुनौती अब खत्म होने के कगार पर है या बसपा वापिसी कर सकती है? यह एक मुश्किल प्रश्न है जिसके उत्तर पर दलित आंदोलन का भविष्य निर्भर है। इसी के उत्तर पर डा. अम्बेडकर की विचारधारा का भविष्य भी टिका है। इसी के जवाब पर महात्मा फुले, 19वीं शताब्दी और 20वीं शताब्दी के शुरुआती दौर के अन्य रैडिकल समाज सुधारकों के विचारों का भविष्य भी निर्भर है। 
भाजपा जिस भव्य सनातन हिंदू परम्परा की झंडाबरदारी करती है, उसका हिंदुत्ववादी संस्करण मनुस्मृति और याज्ञवल्कस्मृति के वर्णवादी विमर्श में फंसने के बजाय प्रत्येक हिंदू समुदाय को भगवा के तले लाना चाहता है। संघ परिवार इसके लिए पिछले सौ साल से लगा हुआ है। मोदी ने जिस लाभार्थी संसार की रचना की है, उसके वासियों में दलितों की संख्या बहुत अधिक है। दलित राजनीति की धार कुंद करने में इस संसार की भी बहुत बड़ी भूमिका है।
लोकसभा का यह चुनाव और कुछ बताये या न बताये, लेकिन देश में दलित राजनीति के भविष्य के बारे में ज़रूर कोई न कोई स्पष्ट संकेत देने वाला है और यह संकेत उत्तर प्रदेश के परिणामों में दिखाई देगा। देश का यह सबसे बड़ा राज्य 80 के दशक से ही दलित-बहुजन राजनीति का केंद्र रहा है। इसी प्रदेश ने 2007 में एक ऐसी स्पष्ट बहुमत की सरकार चुनी थी जिसका नेतृत्व बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती कर रही थीं और जिसे ऊंची जातियों समेत समाज के सभी हिस्सों का कुछ न कुछ समर्थन हासिल था। दलित राजनीति के ग्राफ में आया यह असाधारण उछाल इसी जगह रुक गया, और फिर उसमें गिरावट शुरू हो गई जो कमोबेश अभी तक जारी है। 2019 में समाजवादी पार्टी के सहयोग से उसने लोकसभा की दस सीटें जीतीं, लेकिन 2022 के विधानसभा चुनाव में अकेले लड़ने पर बसपा केवल एक ही सीट जीत पाई। लोकसभा चुनाव की मुहिम शुरू होने से पहले होने वाली तकरीबन सभी चर्चाओं में अंदेशा व्यक्त किया जा रहा था कि इस बार फिर से बसपा का सूपड़ा साफ होने वाला है। सर्वेक्षणों ने नतीजा निकाला है कि बसपा ने अगर अकेले चुनाव लड़ा तो वह ज्यादा से ज्यादा पांच से दस प्रतिशत के बीच वोट ले पाएगी। यानी उसे कोई भी सीट नहीं मिलेगी। उसका दलित जनाधार (मुख्यत: जाटव वोट) एक तरह से ‘फ्री फ्लोटिंग’ हो जाएगा। उसका एक हिस्सा मायावती के साथ जाएगा, कुछ हिस्सा भारतीय जनता पार्टी में और कुछ समाजवादी पार्टी में चला जाएगा। कुछ समीक्षकों की राय थी कि अकेले चुनाव लड़ने का मतलब होगा किसी न किसी प्रकार भाजपा की मदद करना। इस तरह चुनाव से पहले बसपा भाजपा की ‘बी’ टीम होने की तोहमत का सामना भी कर रही थी। 
इस ताज़ा पृष्ठभूमि में बसपा की चुनावी दावेदारी जांच करने पर कुछ आश्चर्यजनक नतीजे निकलते दिखाई देते हैं। नमूने के तौर पर प्रदेश के एक निर्वाचन क्षेत्र संत कबीर नगर की पड़ताल की जी सकती है। इसे बसपा ने 2009 में जीता था। इसके बाद भाजपा दो बार उसे जीत चुकी है। करीब बीस लाख मतदाताओं वाले इस क्षेत्र में सवा छह लाख मुसलमान वोट हैं। इसके अलावा यहां साढ़े चार लाख दलित, दो लाख निषाद, तीन लाख ब्राह्मण, सवा लाख राजपूत, सवा लाख से कुछ ज्यादा यादव, सवा लाख से ही कुछ कम कुर्मी और करीब पचास हज़ार भूमिहार वोटर हैं। भाजपा ने संजय निषाद को उतारा है जो भाजपा के साथ अपनी पार्टी के गठजोड़ के कारण प्रदेश सरकार में मंत्री भी हैं। पिछली बार उनके बेटे प्रवीण निषाद ही यहां से जीते थे। समाजवादी पार्टी ने पप्पू निषाद को टिकट दिया है जो मंत्री रह चुके हैं। इन दोनों के मुकाबले बसपा ने एक मुसलमान उम्मीदवार सैय्यद नदीम अशऱफ को मैदान में उतार है जो राजनीति के मैदान में नये हैं। नतीजे तो चार जून को आएंगे, पर अगर सिर्फ अंकगणितीय समीकरणों पर ़गौर किया जाए तो बसपा का उम्मीदवार मुसलमान और दलित वोटरों के एकजुट समर्थन की संभावना के कारण आगे नज़र आता है। यहां बसपा किसी के वोट नहीं काट रही, बल्कि अपने वोटों और राजनीतिक प्रभाव की वापिसी करती हुई लग रही है।
राजनीति के फैसले दलित विमर्श की किताबी भाषा में नहीं बल्कि चुनाव के मैदान में बने सामाजिक समीकरणों के ज़रिये होते हैं। मायावती ने इस कला में एक तरह की उस्तादी हासिल कर रखी है। दरअसल, वे दलित वोटरों पर अपने नियंत्रण का इस्तेमाल करते हुए कुछ इस तरह से टिकट बांटती रही हैं कि उनके ़गैर-दलित उम्मीदवारों को एक लाभकारी समीकरण मिलता रहा है। इसे संत कबीर नगर में तो देखा ही जा सकता है, प्रदेश के कई निर्वाचन क्षेत्रों में बसपा के हस्तक्षेप इसी कारण से प्रभावी प्रतीत हो रहा है। कहीं उनके कारण सपा का नुकसान हो रहा है, तो कहीं भाजपा को इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है। मायावती अपनी चुनावी सभाओं को भी इसी शैली में इस्तेमाल कर रही हैं। मसलन, गाज़ियाबाद (जहां वोट पड़ चुके हैं) में मायावती ने अपनी चुनावी सभा में भाजपा द्वारा राजपूतों का ह़क मारने का सवाल उठाया और पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राजपूत वोटरों की नाराज़गी को आवाज़ दी। 
मायावती की टिकट-वितरण की रणनीति तभी घटती है जब चुनाव पर या तो कोई जज़्बाती मुद्दा हावी हो, या वे टिकट देने में गलती कर दें। ज़ाहिर है कि हर बार ऐसे दांव सही नहीं साबित होते। इस बार मायावती और उनके उत्तराधिकारी आकाश आनंद ने बार-बार इस बात का खंडन किया है कि उन्हें भाजपा की ‘बी’ टीम न समझा जाए। दलित राजनीति पर नज़दीकी निगाह रखने वाले विद्वान बद्रीनारायण ने बताया है कि इस बार बसपा की दावेदारी को दलित वोटरों का विशेष समर्थन मिल रहा है, और वे कह रहे हैं ‘पार्टी के बचायिब, हाथी के झुमायिब’। 
दूसरे, मायावती को इस बात का भी एहसास है कि पिछले दस साल में उभरे मुफ्त राशन और सीधे खातों में पैसा पाने वाली लाभार्थी जाति ने भी दलित राजनीति की धार को कुंद किया है। इसलिए वे अपने हर वक्तव्य में गरीबों को सहारा देने के नाम पर बनाये गये इस बंदोबस्त की कड़ी आलोचना कर रही हैं। दरअसल वे एकमात्र ऐसी नेता हैं जिन्होंने ऐसा कहने का साहस किया है। आ़िखरकार उनके लिए यह करो या मरो वाला चुनाव ही तो है।    
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।