मंकीपॉक्स से भयभीत होने की ज़रूरत नहीं

हिंदुस्तान में मंकीपॉक्स से पहली मौत हो चुकी है। मरने वाला शख्स केरल का एक 22 वर्षीय युवक है, जो हाल ही में संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) से लौटा था। यूएई में ही उसकी रिपोर्ट पॉजिटिव आयी थी लेकिन पिछले करीब 10 दिनों से मंकीपॉक्स के किसी नये संक्रमण की कोई खबर नहीं आयी है। इसके बावजूद इस पहली मौत के बाद केंद्र सरकार ने इसके संक्रमण को रोकने के लिए टॉक्स फोर्स का गठन कर दिया है। वैसे केरल की स्वास्थ्य मंत्री वीना जॉर्ज ने कहा है कि युवक के मौत के कारणों की जांच की जाएगी। उसके नमूने की रिपोर्ट अभी तक नहीं आयी है लेकिन उसकी मौत चिंता जताती है, क्योंकि वह युवा था और उसे कोई बीमारी या स्वास्थ्य संबंधी दूसरी कोई दिक्कत नहीं थी। करीब सवा महीने पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन को मंकीपॉक्स की बीमारी इस लायक नहीं लगी थी कि वह उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चिंताकुल करने वाली माने, पर महज चार हफ्ते बाद ही उसी विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तय किया कि मंकीपॉक्स ग्लोबल पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी है। आखिर बीते चार हफ्तों के दौरान समूचे संसार में ऐसी कौन सी स्वास्थ्य स्थितियां निर्मित हुईं कि विश्व स्वास्थ्य संगठन को आनन-फानन में यह महत्वपूर्ण फैसला लेना पड़ा।  वैश्विक स्वास्थ्य आपातकाल मानने से इन्कार करने  वाली पिछली बैठक के बाद कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य  की जीन-मैरी ओको बेले की अगुआई में मंकीपॉक्स पर एक 16 सदस्यीय आपातकालीन समिति बनाई गई। इसी बैठक में मंकीपॉक्स को पीएचईआईसी घोषित किया गया।  पीएचईआईसी का मतलब है पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी इंटरनेशनल कन्सर्न यानी मंकीपॉक्स पर विश्व स्वास्थ्य संगठन  की सर्वोच्च स्तर की चेतावनी। इसे दुनियाभर की सरकारें विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित मानकों के अनुरूप तुरंत कार्रवाई की अपील मानें। बेशक इसके दायरे में अब महज तीन मरीज़ों वाला भारत भी है। इस फैसले से साफ  है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन मानता है कि मंकीपॉक्स दुनियाभर के लिए खतरा है। इसे विश्वव्यापी महामारी में बदलने के खतरे से बचाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय पहल की तुरंत ज़रूरत है। सर्वोत्तम उपाय कुछ ही देशों के पास उपलब्ध टीके का इस्तेमाल है। यह एक संयोग है कि इस फैसले पर पहुंचने वाली समिति की अध्यक्ष जीन-मैरी ओको-बेले विश्व स्वास्थ्य संगठन के टीके और टीकाकरण विभाग की पूर्व निदेशक हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन इससे पूर्व ज़ीका, इबोला, कोविड-19 जैसी छह बीमारियों के बारे में  वैश्विक स्वास्थ्य आपातकाल घोषित कर चुका है लेकिन इस बार एक मामले में यह अनूठा फैसला है कि यह आम सहमति न बन पाने के बावजूद लिया गया है। पहले छह बीमारियों को विश्व स्वास्थ्य संगठन की बैठक में सर्व-सहमति से वैश्विक आपातकाल घोषित किया गया था मगर मगर यह पहली बार है कि जब बिना आम सहमति के किसी बीमारी को इमरजेंसी करार दिया गया। पचास साल पुरानी बीमारी जो न ज्यादा संक्रामक है, न जानलेवा, तिस पर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा यह अचानक अपनाई तत्परता, आपात बैठक बुलाकर इस तरह का फैसला लेना, समिति की अध्यक्षता उसके द्वारा किया जाना जिसका संबंध टीकाकरण विभाग से हो और समिति की पूर्ण सहमति के बावजूद आपात समिति के नाम पर तथा बहुत हद तक विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक द्वारा स्व-प्रेरित यह निर्णय लेना,इसके समर्थन में कुछ लचर दलीलें देना— इन सबसे विश्व स्वास्थ्य संगठन का यह फैसला कुछ संशय पैदा करता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक ने अपने फैसले के पांच आधार बताये और मंकीपॉक्स के नाम पर समूचे संसार को चार वर्गों में बांटकर स्वास्थ्य आपातकाल लगा दिया। बेशक कई देशों में फैलती जाने वाली बीमारी के प्रति लापरवाही नहीं बरतना चाहिए पर विश्व स्वास्थ्य संगठन की बताई ये वजहें और चिंता फिलहाल कुछ अतिरेकी लगती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक के लिये इस आपातकाल के लिये सबसे बड़ी वजह यह रही कि यह जिन देशों में कभी नहीं था, वहां भी पहुंच गया। महीने भर के भीतर इससे प्रभावित देशों की संख्या तकरीबन दो गुना और मरीज पांच गुना हो गये। मंकीपॉक्स को लेकर हमारे पास कम जानकारी है और वैश्विक स्वास्थ्य आपातकाल  घोषित करने के लिए जो तीन अर्हताएं हैं, यह तीनों  को पूरा करता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की बताई वजहें कागज़ी और सैद्धांतिक तौर पर ठोस हो सकती हैं लेकिन व्यवहारिक तौर पर देखें तो उसकी दलीलें  उतनी स्वीकार्य नही लगतीं।न यह कोविड या इबोला अथवा ज़ीका के स्तर का संक्रामक है, न घातक या मारक है। वैज्ञानिकों इसके बारे में पर्याप्त जानकारी है और इसका टीक भी है। फिर चेचक का टीका भी इसके काम आता है। अगर वैश्विक आपातकाल की वजह इसका बहुराष्ट्रीय होना है तो भी यह वजह बहुत वाजिब नहीं। बेशक यह 80 देशों तक पहुंचा है पर आधे देशों में इससे संक्रमित लोगों की संख्या इक्का-दुक्का ही है। बाकी बहुत से देशों में मरीज़ों की संख्या दस से बीस के बीच ही है। जिन देशों में मंकीपॉक्स के ज्यादा मरीज पाये गये हैं, वहां इसका  संक्रमण दर बहुत कम है। मरीजों की संख्या जहां ज्यादा है, वे मुट्ठीभर देश हैं। अलग बात है कि वे विकसित, यूरोपीय देश हैं। कनाडा, पुर्तगाल, बेल्जियम, अमरीका, ब्रिटेन, इटली, स्पेन, हालैंड, जर्मनी, फ्रांस इत्यादि। मंकीपॉक्स के 80 प्रतिशत मरीज इन्ही देशों में हैं। कुल मिलाकर 99 फीसदी मरीज़ों का मंकीपॉक्स के उद्गम देश अफ्रीका से कोई रिश्ता नहीं है। सजगता और तैयारी की बात ठीक है पर समस्या यह है कि कुछ देशों में फैली बीमारी के चलते इस वैश्विक स्वास्थ्य आपातकाल के नियम जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक ने संसार भर के देशों को चार वर्गों में बांट कर तय किए हैं, सबको मानने होंगे। पहले वर्ग में वे देश हैं जहां तीन हफ्ते से कोई केस नहीं मिला। दूसरा, जहां  हाल में केस मिला और मानव से मानव में संक्रमण के सबूत हैं। तीसरा वर्ग उन देशों का है जहां जानवरों से मनुष्यों में मंकीपॉक्स फैलने के सबूत हैं और चौथा वे देश हैं जिनके पास टीकों और उसके चिकित्सा विज्ञानियों के पास इस के बाबत शोध और विकास के साधन, संसाधन तथा टीकों के विनिर्माण की क्षमता है। इन सबको देखते हुए लगता है कि मंकीपॉक्स जैसी संवेदनशील बीमारी को लेकर सिर्फ  चिंता ही नहीं पायी जाती बल्कि इसके साथ ही इसमें कारोबारी खेल भी किये जाते हैं। इसलिए सारी चिंताओं और संवेदनाओं के बावजूद हमें मंकीपॉक्स पर ज्यादा संसाधन झोंकने से फिलहाल बचना होगा।

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