कोई करिश्माई तेज तो कदापि नहीं है खड़गे में !

भले ही कांग्रेस को मज़बूत करने के उद्देश्य से ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का झंडा थामे राहुल गांधी और उनका
काफिला और आगे की तरफ  कूच कर गया हो मगर क्या वाकई आने वाले वक्त में कांग्रेस मजबूत होगी?
संशय तब और भी गहरा हो जाता है, जब हम कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे की वाइल्ड कार्ड
एंट्री देखते हैं। 
सोनिया गांधी के करीबी होने के कारण माना यही जा रहा है कि चुनाव भले कोई भी लड़ ले, लेकिन अशोक
गहलोत, दिग्विजय सिंह समेत पार्टी के सभी छोटे बड़े नेताओं का समर्थन खड़गे को हासिल है। इसलिए माना
यही जा रहा है कि चाहे वह शशि थरूर हों या फिर के.एन. त्रिपाठी, कोई एड़ी से लेकर चोटी तक कितना भी
ज़ोर क्यों न लगा ले, लाभ मल्लिकार्जुन खड़गे को मिलेगा। यदि ऐसा होता है और फैसला मल्लिकार्जुन खड़गे
के पक्ष में आता है तो यह कहना अतिश्योक्ति नहीं है कि कांग्रेस की स्थिति जस की तस रहेगी और आने वाले
वक्त में उसे उन्हीं चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा जिनसे आज वह दो चार हो रही है। उपरोक्त बातें सिर्फ  
बातें नहीं हैं, न ही इनमें किसी तरह की कोई लफ्फाजी है। कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए जब हम मल्लिकार्जुन
खड़गे को देखते हैं तो लगता यही है कि यदि खड़गे चुनाव जीतकर अध्यक्ष बन गए तो भी उनका रिमोट
सोनिया गांधी व राहुल गांधी के हाथ में ही रहने वाला है। 
भले ही दलितों को ध्यान में रखकर अध्यक्ष के लिए कांग्रेस ने मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम आगे करके एक
बड़ा सियासी खेल खेला हो, लेकिन इस बात में भी कोई संदेह नहीं है कि खड़गे पार्टी के उन गिने चुने नेताओं
में हैं जिन्होंने चुनाव तो जीते हैं, लेकिन उस जीत में उनकी अपनी कोई मेहनत नहीं थी। उनको जीत इसलिए
मिली क्योंकि कांग्रेस पार्टी का नाम और सिम्बल उनके साथ थे।  जैसा कि हम ऊपर बता ही चुके हैं कि खड़गे
की जीत का सबसे मजबूत पक्ष उनका दलित होना है। 
अब इस बात को हम यदि कर्नाटक के परिदृश्य में देखें, तो हो सकता है कि आने वाले कर्नाटक विधानसभा
चुनाव में यह खड़गे और कांग्रेस पार्टी को फायदा पहुंचा दे मगर जब हम एक अध्यक्ष के रूप में मल्लिकार्जुन
खड़गे को कर्नाटक के बाहर देखते हैं तो उनके व्यक्तित्व में ऐसा कुछ नहीं है जिसके दम पर वह बाहरी लोगों
का ध्यान अपनी तरफ  आकर्षित कर लें। सवाल यह है कि जिस आदमी की कर्नाटक के बाहर कोई राजनीतिक
माइलेज ही नहीं है, वह पार्टी को कितना मजबूत और एकजुट रखेगा? सवाल का जवाब कांग्रेस पार्टी ही दे, तो
बेहतर है।
चाहे हाल-फिलहाल के ट्वीट्स हों या विपक्ष के आरोप, मल्लिकार्जुन खड़गे को लेकर उनके विरोधियों ने सदैव
इस बात को बल दिया है कि एक नेता के रूप में उनकी पहचान इतनी ही है कि वह सोनिया गांधी से लेकर
राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के पिछलग्गू हैं। मल्लिकार्जुन खड़गे के विषय में अगर बिलकुल स्पष्ट लहज़े में
कोई बात कही जाए तो यह कहने में गुरेज न होगा कि गांधी परिवार के भरोसेमंद होने के अलावा उनकी कोई
विशेष पहचान नहीं है। माना जाता है कि अगर राजनीतिक करियर में थरूर को सफलता मिली तो उसकी भी
वजह यही है।
हो सकता है, मल्लिकार्जुन खड़गे को अध्यक्ष बनाकर कांग्रेस पार्टी दक्षिण के राज्यों जैसे केरल, कर्नाटक, आंध्र
प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु के कांग्रेसियों को रिझा ले, मगर जब हम दक्षिण से उत्तर में या फिर वहां से
पूर्वोत्तर में जाते हैं तो साफ पता चलता है कि कांग्रेस की तरफ  से अध्यक्ष पद पर मल्लिकार्जुन खड़गे एक
कमज़ोर पसंद हैं और बड़ा मुश्किल है कि देशव्यापी संगठन पर उनका कोई विशेष असर हो।
सबसे अंत में हम इस मुद्दे को उठाना चाहेंगे कि मल्लिकार्जुन खड़गे लाख अच्छे हों, वरिष्ठ नेता हों लेकिन
उनके अंदर मोदी को टक्र देने वाला करिश्माई तेज नहीं है। विषय बहुत सीधा है। जैसे हालात हैं, हर गुज़र रहे
दिन के साथ देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस गर्त्त के अंधेरों में जा रही है। ऐसे में जो भी अध्यक्ष होगा,
उसकी यह जिम्मेदारी रहेगी कि वह भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी को उन्हीं की शैली में जवाब दे। इन बातों के
दृष्टिगत जब हम मल्लिकार्जुन खड़गे को देखते हैं तो उनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसको देखकर यह कह दिया
जाए कि 80 साल के खड़गे प्रधानमंत्री मोदी को चुनौती दे पाएंगे।
-मो. 92212-32130