कश्मीर समस्या पर तुर्की का परिवर्तित होता रुख   

भारत द्वारा तुर्की के कट्टर शत्रु साइप्रस और पुर्तगाल के दौरे के बाद शायद तुर्की की समझ में आ गया है कि पाकिस्तान के भरोसे ‘इस्लामिक वर्ल्ड’ का नेता बनने के सपने लेने से पहले उसके सामने अपने और तुर्की के अस्तित्व की सुरक्षा अधिक जरूरी है। उसके सामने यह उदाहरण है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने राष्ट्र के शत्रुओं को किस तरह धोबी पाट मारते हैं। इसी तरह का धोबी पटका उन्होंने कश्मीर पर अपने बयान के क्रम में मलेशिया के राष्ट्रपति पर भी मारा था। इस बार संयुक्त राष्ट्र संघ की वार्षिक बैठक में तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोगन का, अपने भाषण में कश्मीर का जिक्र  तुर्की के बदले हुए रुख और बदली हुई भाषा में था, उन्होंने उसका जिक्र  यह कहकर किया कि ‘हमें वहां स्थायी शांति की उम्मीद है’।
उन्होंने कहा, ‘भारत और पाकिस्तान ने 75 साल पहले अपनी संप्रभुता और स्वतंत्रता स्थापित करने के बाद भी एक-दूसरे के बीच शांति और एकजुटता स्थापित नहीं की है, यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। हम आशा और प्रार्थना करते हैं कि कश्मीर में निष्पक्ष व स्थायी शांति और समृद्धि स्थापित होगी’। एर्दोगन का यह बयान भारत के रुख के सन्निकट है कि ‘कश्मीर का मुद्दा भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के बीच 1972 के शिमला समझौते के कारण कश्मीर द्विपक्षीय मुद्दा है। इसमें तीसरे पक्ष की भागीदारी के लिए कोई जगह नहीं है’।
स्पष्ट है कि उन्होंने अब की बार संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों को लागू करके इसका अंतर्राष्ट्रीयकरण करने से परहेज किया तथा संयमित और नपी-तुली भाषा में इस समस्या का जिक्र  किया। पिछले साल के बयान के विपरीत एर्दोगन के नवीनतम बयान में कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों का उल्लेख नहीं किया गया है, जिस पर भारत ने कहा था कि द्विपक्षीय समाधान के प्रति प्रतिबद्धता के कारण यह सब अप्रासंगिक है।
यह कश्मीर पर उनके बदलते रुख का आगाज़ तो लगता ही है और इस वर्ष का उनका बयान पिछले वर्षों में उनके भड़काऊ बयानों से भी काफी अलग है। 2020 में उन्होंने कश्मीर की स्थिति को एक ‘ज्वलंत मुद्दा’ कहा था और कश्मीर के लिए विशेष दर्जे (धारा 370) को समाप्त करने की आलोचना की थी। 2019 में एर्दोगन ने कहा था कि भारतीय केंद्र शासित प्रदेश में ‘संकल्पों (यूएन) को अपनाने के बावजूद कश्मीर अभी भी घिरा हुआ है और आठ मिलियन लोग कश्मीर में फंसे हुए हैं’। 
तुर्की के इस बदले रुख के चलते स्पष्ट हो जाता है कि कश्मीर का मुद्दा संयुक्त राष्ट्र में, पाकिस्तान के अलग-थलग पड़ने को दर्शाता है। जैसा कि इससे पूर्व पिछले साल, 193 सदस्यीय संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा में कश्मीर का मुद्दा उठाने और उसे आगे लाने के लिए पूरा जोर लगाने पर भी पाकिस्तान के अलावा तुर्की ही एकमात्र ऐसा देश था जिसने पाकिस्तान का साथ दिया था लेकिन इस बार एर्दोगन ने इसका अंतर्राष्ट्रीयकरण करने से परहेज किया है। यह दोनों राष्ट्रों के दीर्घगामी हितों में एक अच्छा और उचित कदम माना जाना चाहिए। तुर्की के अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार में बदलाव यह स्पष्ट करता है कि भारत और मोदी के कद में आशातीत अभिवृद्धि और एक संतुलित और स्पष्ट रूप से शक्तिशाली विदेश नीति के कारण दुनिया की सोच में बहुत बड़ा बदलाव आ रहा है। 
आज भारत कश्मीर प्रकरण में संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठकों में एक बेबस योद्धा के बजाय रूस-यूक्र ेन का निबटारा करने में सक्षम योद्धा के रूप में सामने आ रहा है। आज भारत की स्थिति यह है कि उसे विश्व के पटल पर इतना सक्षम समझा जा रहा है कि चीन के कड़े विरोध के बावजूद उसे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने की कोशिशें की जा रही हैं और आशा है कि बहुत जल्दी भारत सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य के रूप में सामने आ सकता है। इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।   
विश्व में भारत के बढ़ते हुए सामरिक कद और आर्थिक ताकत को देखकर एर्दोगन ने नरेन्द्र मोदी से तुर्की में निवेश करने और व्यापार बढ़ाने की भी इच्छा ज़ाहिर की है। कोई आश्चर्य नहीं कि तुर्की के साथ भी भारत के सामान्य संबंध स्थापित हो जाएं और पाकिस्तान चीन के साथ अकेला ही खड़ा रह जाये। वैसे यह भी सच है कि भारत से युद्ध करने के बाद चीन को आर्थिक रूप से विश्व के पटल पर बहुत बड़ा नुक्सान हुआ है।  
कुल मिला कर चीन के अलावा इकलौते दोस्त तुर्की के भारत और विशेषकर कश्मीर पर आ रहे बदलाव से पाकिस्तान सदमे में है और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री तुर्की के राष्ट्रपति से भेंट के लिए लगातार प्रयासरत हैं। इसके उलट तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन नरेन्द्र मोदी के बढ़ते कद के मद्देनज़र उनसे मिलने का कोई अवसर नहीं छोड़ रहे हैं। लगातार मंत्रियों की बैठकें निर्धारित की जा रही हैं और पाकिस्तान तथा कश्मीर पर पूर्वगामी नीतियों के कारण आयी अलगाव की स्थिति और सम्बन्धों की गर्मजोशी के कारण जमी वर्षों पुरानी बर्फ को पिघला कर फिर से एक नये सिरे से मित्रता के सम्बन्ध स्थापित करने के प्रयास भी दोनों ओर से हो रहे हैं। यह एक अच्छी बात है और दोनों देशों के हित में है। इस सन्दर्भ में सबसे बड़ी बात यह है कि कश्मीर समस्या को पाकिस्तान के चश्मे से देखने वाले देशों की संख्या में लगातार कमी होती जा रही है और कश्मीर को अंतर्राष्ट्रीय समस्या के रूप में उलझाए रखने का पाकिस्तान का सपना चूर-चूर होता जा रहा है। (अदिति)