समाज के सभी वर्गों के साथ नये संवाद की संघ की योजना

राष्ष्ट्रीय स्वंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत का विजयदशमी पर भाषण संगठन के आत्मविश्वास और भारत में समकालीन सामाजिक और सांस्कृतिक मंथन में हस्तक्षेप करने की उसकी तीव्र इच्छा को प्रदर्शित करता है। आरएसएस की वैचारिक छाया उसकी सांगठनिक पहुंच और कैडर से बाहर फैल गयी है। 5 अक्तूबर को समारोह में मुख्य अतिथि संतोष यादव ने कहा, ‘संघ से अनजान होने के बावजूद उन्हें ‘संघी’ कहा जाता था।’ संघ का नया उपक्रम तथाकथित अल्पसंख्यक समुदायों, विशेष रूप से मुसलमानों और ईसाइयों के साथ भारतीयता और हिंदू राष्ट्र के गठन के सवाल पर गंभीर सांस्कृतिक बातचीत करना है।
इससे पहले भी आरएसएस प्रमुख एम एस गोलवलकर, बालासाहेब देवरस और के एस. सुदर्शन ने अल्पसंख्यक समूहों के साथ बातचीत की थी। हालांकि नयी पहल का उद्देश्य अधिक रचनात्मक परिणाम प्राप्त करना है। सामाजिक शक्ति की भूमिका पर भागवत का जोर ऐतिहासिक प्रश्न को हल करने में राजनीतिक शक्ति की सीमाओं की स्वीकृति है। 1916 का लखनऊ समझौता एम.ए. जिन्ना और बाल गंगाधर तिलक द्वारा हस्ताक्षरित, मुस्लिम लीग और कांग्रेस का प्रतिनिधित्व करना एक बड़ी भूल थी। इसने दो समुदायों को एक साथ लाने के बजाय उनके बीच विभाजन को मंजूरी दी। विभाजन से पहले के इतिहास के सबक पर ध्यान देना चाहिए।
भागवत ने दो उद्देश्यों को पूरा करने के लिए संवाद की और आवश्यकता का संकेत दिया। प्राथमिक लक्ष्य, साज़िश के सिद्धांतों के आधार पर इस धारणा को दूर करना है कि आरएसएस अल्पसंख्यकों के लिए खतरा है। इसलिए अभिजात वर्ग के साथ संवाद की आवश्यकता है। इसके बाद जनता के साथ राष्ट्रवाद और हिंदू सभ्यता पर एक सांस्कृतिक प्रवचन होना है। यह उन लोगों को यूटोपियन लग सकता है जो उभरती हुई सामाजिक वास्तविकताओं को देखने में विफल रहे। यह भी सच है कि यह कार्य जटिलताओं और जोखिमों से भरा हुआ है लेकिन अराजकतावादियों और राजनीतिक वर्ग को इस स्थान पर कब्जा करने देने से स्थिति और खराब हो जायेगी। उदाहरण के लिए तीन तलाक और अनुच्छेद 370 पर कुलीन वर्ग को जनता द्वारा अवैध घोषित किया गया था। देश में सबसे बड़ी और अधिक प्रभावी वैचारिक शक्ति के रूप में आगे के आंदोलन को चलाने में आरएसएस की नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है।
वर्तमान आरएसएस नेताओं के अनुसार आरएसएस के उद्देश्य की भावना ने संगठन को मज़दूर वर्ग, झुग्गीवासियों, महिलाओं और आदिवासी, पारम्परिक वामपंथी डोमेन के बीच स्वीकार्य करवाया। इसे सीपीआई (एम) ने अपनी ‘संगठनात्मक और राजनीतिक रिपोर्ट-2008’ में स्वीकार किया था। 
आरएसएस सूत्रों का कहना है कि राष्ट्रीयता, संस्कृति की आरएसएस की समझ का कोई भारत-केंद्रित विकल्प प्रस्तावित नहीं किया गया है। संविधान सभा में और बाद में कांग्रेस और समाजवादी आंदोलन में कई लोगों ने संघ के साथ आंशिक या पूर्ण एकजुटता दिखायी। 18 नवम्बर, 1949 को ‘मराठा’ में एक लेख में एक कांग्रेसी नेता बीजी खेर ने चेतावनी दी, कि उन्हें (आरएसएस कार्यकर्ताओं को) फासीवादी और साम्प्रदायिक कहना और एक ही आरोप को दोहराना... शायद ही किसी उद्देश्य की पूर्ति करता है। हालांकि आरएसएस की आलोचनाओं की सामग्री दशकों से अपरिवर्तित है। ऐसा सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन के साथ तब होता है जब राजनीतिक वर्ग को सुविधाजनक बहुमत और बौद्धिक वैधता प्राप्त होती है। नेहरूवादी शासन में दोनों चीजें थीं। इसके उत्तराधिकारी अपने सिकुड़ते आधार को महसूस करने में विफल रहे और आरएसएस के प्रति वैचारिक अस्पृश्यता का अभ्यास करना जारी रखे रहे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को कम करने के लिए नेहरूवादियों ने पश्चिमी वाक्यांश ‘पोस्ट ट्रूथ’ उधार लिया है। सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर समाचार चैनलों पर बहस आग में घी डालती है। अनेक भाजपा नेताओं का कहना है कि यह दिखाने के लिए बहुत कुछ है कि इतिहास में आरएसएस की भूमिका को नेहरूवादियों और मार्क्सवादियों द्वारा गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया। मार्च 1934 में मध्य प्रांत और बरार की विधान परिषद में आरएसएस की विचारधारा और संगठन पर एक बहस में एम एस रहमान ने सरकार के आरोपों का विरोध किया। बहस में भाग लेने वाले सभी 14 सदस्यों ने हिंदुओं के सांस्कृतिक संगठन के रूप में इसकी परम्परा की पुष्टि की। (संवाद)