लोकतंत्र को मजबूत करेगी चुनावी वायदों की जवाबदेही  

हाल ही में लोकतांत्रिक चुनाव व्यवस्था की मुख्य नियामक संस्था केन्द्रीय चुनाव आयोग ने देश के सभी राजनीतिक दलों के प्रमुखों को पत्र लिखकर उनसे पूछा है कि उनके दल का चुनावी वायदों  व लोकलुभावन घोषणाओं को लेकर क्या नज़रिया है? आयोग ने यह भी पूछा है कि वे अपने चुनावी वादों की फायनेंसिंग और इनके क्रियान्वन की कार्य योजना कैसे निरूपित करेंगे? आयोग ने राजनीतिक दलों से इन सभी प्रश्नों के बाबत अपना जबाब और पक्ष रखने की आगामी 19 अक्तूबर, 2022 की समय सीमा निर्धारित की थी। उधर भारत सरकार के कानून मंत्री किरण रिजीजू ने भी कहा है कि सरकार चुनाव आयोग के साथ चुनाव कानूनों की पूरी समीक्षा कर जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन लाने की योजना बना रही है। गौरतलब है कि देश की चुनाव प्रणाली में हुए इस नये घटनाक्रम पर भारतीय लोकतंत्र के प्रमुख स्टेकहोल्डर माने जाने वाले राजनीतिक दलों ने भी त्वरित प्रतिक्रिया व्यक्त की। देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस ने इस घटनाक्रम को लोकतंत्र के ताबूत में कील बताते हुए जनता के सामाजिक विकास की योजनाओं पर प्रतिबंध की साजिश करार दिया तो दूसरी तरफ  दक्षिण की प्रमुख पार्टी डीएमके ने इस कदम को राजनीतिक दलों में लोककल्याण की प्रतियोगिता को लेकर की जाने वाली कवायद पर विराम चिन्ह लगाना बताया है।
देखा जाए तो चुनाव आयोग और सरकार द्वारा उठाया गया यह कदम देश के लोकतांत्रिक सुधारों, चुनाव सुधारों और बहुदलीय लोकतंत्र को और मजबूती देने वाला कदम है। यह कदम देर से लाया गया पर भारतीय लोकतंत्र के व्यापक हित में उठाया जाने वाला कदम है। कहना होगा कि इस कदम को एक नैतिक और वैधानिक आवरण तभी मिल गया था, जब सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीतिक दलों के लोकलुभावन और मुफ्तखोरी वायदों को सही दिशा-निर्देश के लिए  पिछले महीने एक तीन सदस्यीय न्यायिक कमेटी का गठन किया। अभी की इस पहल पर कई टिप्पणीकारों को यह लग रहा होगा कि प्रमुख सत्ताधारी दल भाजपा को  अभी देश के बाकी दलों पर राजनीतिक तौर पर कई मायनों में बढ़त की स्थिति प्राप्त  है जो चुनाव आयोग की इस नयी पहल के तहत और मजबूत हो जाएगी। विपक्षी दलों को यह लगता है कि  सत्तारूढ़ दल को परास्त करने के लिए  उनके पास एक यही अमोघ अस्त्र है कि राजखजाने की कीमत पर लोकलुभावन और मुफ्तखोरी के जम कर वायदे किये जाएं और मतदाताओं से उन्हें मिलने वाले व्यक्तिगत फायदे के आधार पर उनके मत प्राप्त किये जाएं। देखा जाए तो राजनीतिक दलों का यह एक इकनोमिक या फायनेंसिल पोलिटिकल एडवेंचरिज्म है जिसके परिणाम हमें अर्थव्यवस्था की बिगड़ी हालत के रूप में अरसे से  मिलते रहे  हैं। 
यह बिगड़ी हालत घाटे और कर्ज पर आश्रित अर्थव्यवस्था, अनुत्पादकता और विकास संसाधनों की अल्प उपलब्धता के रूप में प्रकट होती है। भारतीय लोकतंत्र की मौजूदा बहुदलीय प्रतियोगी चुनावी व्यवस्था कई सारे विकारों से ग्रसित रही है मसलन जाति धर्म प्रांत भाषा की पहचान से पोषित हमारी राजनीति, धनसत्ता व बाहुबल से पोषित हमारी राजनीति, उकसाऊ, भड़काऊ, चटकाऊ  भाषणों और बयानों से चालित हमारी राजनीति और अंत में लोक लुभावनवाद और खजाना लुटावनवाद की मुफ्तखोरी से ग्रसित राजनीति। 
इन सभी विकारों पर क्रमवार रूप से हमारे न्यायालयों ने भी संज्ञान लिया है और इन पर संवैधानिक और वैधानिक रूप से कदम भी उठाये गये हैं । मसलन देश में किसी भी धर्म को राजव्यवस्था की तरफ  से तरजीह  न मिल, इसके लिए संविधान की प्रस्तावना में धर्म-निरपेक्षता शब्द जोड़ा गया है। इसी तरह देश की चुनावी व्यवस्था के सबसे बड़े विकार जातिवाद को लेकर देर से ही सही, करीब एक दशक पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने जातीय रैलियों पर प्रतिबंध लगाने की बात कही थी। धनसत्ता और बाहुबल के विकार को रोकने के लिए पिछले तीन दशक में चुनाव आयोग से लेकर न्यायालयों तक ने कई सारी बंदिशें आरोपित की है। उकसाऊ  और भड़काऊ तथा जातीय धार्मिक पहचान प्रतीकों वाले  चुनावी भाषणों पर रोक लगाने के लिए लोक प्रतिनिधित्व कानून में विगत में संशोधन लाये गए। अब जाकर बारी लोकलुभावन चुनावी वायदों और मुफ्तखोरी की घोषणाओं को नियंत्रित व नियमित करने की आयी है।
 कोई भी निष्पक्ष व ईमानदार राजनीतिक विश्लेषक इन सभी लोकतांत्रिक सुधारों का स्वागत करेगा पर  जहां तक राजनीतिक दलों की बात है, तो वे अपनी परिस्थिति व सुविधानुसार ही सुधार व बदलाव के इस मुद्दे का स्वागत करते हैं। इनके लिए अपने दलों के निजी हित, भारतीय लोकतंत्र के व्यापक हितों से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। यही वजह है कि उपरोक्त सुधारों को लेकर अलग अलग समय में राजनीतिक दलों के नजरिये अलग-अलग रहे हैं। मिसाल के तौर पर भारतीय संविधान में उल्लिखित धर्म निरपेक्षतावाद से  भाजपा हमेशा कन्नी काटती रही  है। ठीक इसके विपरीत अन्य दलों के लिए धर्म निरपेक्षता शब्द एक विशुद्ध आशय में न होकर अल्पसंख्यकों की धार्मिक तुष्टीकरण के छद्म धर्मनिरपेक्ष आवरण में  उपयोग में लाया जाता रहा है । ठीक इसी तरह देश के कई दलों के लिए जातिवाद उनके लिए राजनीतिक प्राणवायु है और इन दलों को जातीय रैलियों पर प्रतिबंध की बात गवारा नहीं होती। राजद, जदयू, समाजवादी, बसपा, इनेलो जैसी पार्टियों के लिए सांप्रदायिकता खराब पर जातिवाद अच्छी चीज है। 
भारत के कई राजनीतिक दलों में इन सभी चलन व प्रचलनों के इतर यह धारणा मजबूती से पैठी थी कि  मतदाताओं को मुफत की रेवड़ी बिजली, पानी, बस, अनाज, राशन मुफ्त देकर ललचाया जाए, उनके बैंक कर्ज माफ  किये जाएं, उन्हें गाय, मोबाइल, गहने का लालच दिया जाए वगैरह वगैरह। इन कार्यों में कमोबेश सभी सरकारें तल्लीन रही हैं। चुनाव आयोग का मानना है कि राजनीतिक दलों को अपने चुनावी वायदे, भारत सरकार की वित्तीय जवाबदेही व बजट प्रबंधन कानून, भारत सरकार के नियंत्रक व महालेखा परीक्षक तथा रिजर्व बैंक के दिशा निर्देशानुसार निर्धारित करने चाहिएं। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर