जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु विकासशील देशों को मुआवज़ा मिलने की उम्मीद बंधी



कांफ्रैंस ऑफ पार्टीज 27 या संक्षेप में कॉप-27 क्लाइमेट समिट के लिए मिस्र में इकट्ठा हुए 200 देशों के बीच अंतत: 20 नवंबर 2022 को वह ऐतिहासिक समझौता हो गया, जिसको लेकर पिछले 13 सालों से गतिरोध बना हुआ था। इस समझौते को गरीब देशों की बड़ी जीत माना जा रहा है। गौरतलब है कि विकसित देश साल 2009 में कोपेनहेगन में आयोजित कॉप-15 के दौरान क्लाइमेट फाइनेंस के तौर पर हर साल 100 अरब डॉलर की राशि देने पर सहमत हुए थे। यह तय हुआ था कि 2020 से 2025 तक विकसित देश प्रतिवर्ष 100 अरब डॉलर विकासशील देशों को देंगे, लेकिन अब तक यह समझौता महज जुबानी जमाखर्च भर था।
मिस्र के शर्म-अल शेख में आयोजित कॉप-27 की दो हफ्ते चले सम्मेलन में विकासशील देशों ने एकजुट होकर साफ शब्दों में कह दिया कि अगर इस बार भी फंड नहीं बनता तो इस समिट को पूरी तरह से नाकाम ही माना जाएगा। इन दबावों और चेतावनियों के बाद अंतत: अमीर देश फंड के लिए सहमत हो गए। बैठक में जलवायु परिवर्तन की मौजूदा परिस्थितियों के लिए 134 से ज्यादा गरीब विकासशील देशों द्वारा विकसित देशों को जिम्मेदार ठहराया गया। इस कारण अब अमीर देश एक फंड बनाएंगे और इस फंड से विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए मुआवज़ा दिया जाएगा। यह सहमति वास्तव में गरीब देशों की बड़ी जीत है।
  हालांकि यह कामयाबी आसानी से नहीं मिली। लम्बी खींचतान के बाद भी सम्मेलन में आखिरी वक्त तक फंड को लेकर तस्वीर साफ  नहीं थी। कई अमीर देश दूसरे मुद्दों के बीच इसे दबाने और भटकाने की कोशिश कर रहे थे। द्वीपीय देश एंटीगुआ और बारबुडा के प्रधानमंत्री गैस्टन ब्राउन ने एसोसिएशन ऑफ  स्मॉल आइलैंड स्टेट्स नेगोशिएटिंग ब्लॉक की तरफ  से एक दूसरी बहस खड़ी करने की कोशिश की। उन्होंने प्रदूषण फैलाने के लिए भारत और चीन को विशेष रूप से न केवल दोषी ठहराने की कोशिश की बल्कि इन दोनों देशों से ही ज्यादा मुआवज़ा वसूलने की बात करने लगे लेकिन विकासशील देशों ने बहस और मांग को इस ओर भटकने नहीं दिया। भारत, ब्राज़ील समेत एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के कई दर्जन देशों ने इस फंड को पास कराने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। ़गरीब और विकासशील देशों ने मिलकर अमीर देशों पर दबाव बनाया।
इस बहस को निर्णायक धार देते हुए जाम्बिया के पर्यावरण मंत्री कोलिन्स नोजोवू ने फंड को अफ्रीका के 1.3 बिलियन लोगों के लिए साकारात्मक कदम बताया। ब्राज़ील के राष्ट्रपति लूला दा सिल्वा की भी इस मुहिम को अंजाम तक पहुंचाने में अहम भूमिका रही। वैसे यह पहली बार था जब औपचारिक रूप से कॉप-27 ने अपने एजेंडे में जलवायु मुआवज़े को शामिल किया था। इसके पहले सम्पन्न बैठकों में यह बस एक सैद्धांतिक और नैतिक वार्ताओं तक सीमित रहता था। लेकिन 190 देशों वाले संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन में इस बार हिस्सा ले रहे विकासशील देशों के प्रतिनिधियों ने, इस पहलू को हर हाल में केन्द्रीय मुद्दा बनाने के लिए कमर कस लिया था। इसी दृढ़ता को देखते हुए आखिरकार सम्मेलन के आखिरी दिन देर रात तक चली बैठक में इस पर सहमति बनी जब सम्मेलन में शामिल प्रतिनिधियों ने जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से जुड़े नुकसान और क्षति से निपटने के लिए वित्तपोषण की व्यवस्था संबंधी मामले पर चर्चा करने के एजेंडे को मंजूरी दे दी। जबकि ज्ञात हो कि पिछले एक दशक से भी अधिक समय से अमीर देश नुकसान और क्षति को संदर्भित करने और बढ़ते तापमान के दुष्परिणामों से निपटने के लिए उनकी तरफ  से गरीब देशों को मुहैया कराए जाने वाले धन पर औपचारिक चर्चा को खारिज करते आ रहे थे।    लेकिन यहां ऐसा करना शायद इसलिए भी मुमकिन नहीं हुआ था क्योंकि यह सम्मेलन ऐसे समय में हुआ जब दुनिया रूस-यूक्रेन युद्ध, उच्च महंगाई, खाद्यान की कमी और ऊर्जा संकट जैसे मुश्किलों का सामना कर रही है। इन्हीं स्थितियों का दबाव था कि सम्मेलन को एक दिन और बढ़ाया गया। इसे 18 नवम्बर की जगह 19 नवम्बर 2022 तक चलना सुनिश्चित किया गया था ताकि समझौते को सहमति का जामा पहनाया जा सके। अब फंड के लिए कमेटी बनेगी। इसमें 24 देशों के प्रतिनिधि होंगे। यही कमेटी तय करेगी कि किस तरह से फंड वितरित किया जाएगा। वैसे अभी इस सब पर  पूरे एक साल तक बहस होगी। इस बहस में ही अंतिम रूप से तय होगा कि किस देश को कितना मुआवज़ा और किस आधार पर मिलेगा। कौन-कौन से देश मुआवज़ा देंगे, इसका फैसला भी अभी होना है और यही कमेटी फैसला करेगी। जलवायु सम्मेलन में सबसे पहले यूरोपीयन यूनियन ने मुआवज़े के लिए फंड बनाने की हामी भरी। हालांकि यूनियन का मानना था कि इस फंड का फायदा सिर्फ  उन देशों को हो जिनकी हालत खराब हो चुकी है। इसके बाद फंड बनाने को मंजूरी देने की सारा दारोमदार अमरीका पर था। 
आखिर 19 नवम्बर, 2022 को अमरीका ने भी इसके लिए अपनी मंजूरी दे दी। करीब 200 देशों के बीच हुए इस समझौते के मुताबिक कई विकासशील देशों को भी क्लाइमेट चेंज फंड के तहत सहायता मिलेगी, लेकिन यूरोपीयन यूनियन और अमरीका की मांग है कि इस फंड से जिन देशों को फायदा मिलने वाला है, उनमें चीन को शामिल न किया जाए। इसके लिए उनका तर्क बड़ा सीधा है कि चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। साथ ही उन देशों में भी शामिल है जो सबसे ज्यादा ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करते हैं। जबकि इस संबंध में चीन का कहना है कि अमरीका और उसके साथी देश उसके साथ भेदभाव कर रहे हैं। 
कॉप-27 की एक बड़ी उपलब्धि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए दुनिया के सामने आया भारत का दृष्टिकोण भी रहा। केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव ने सम्मेलन में कहा था कि भारत मानता है कि जलवायु को बचाने का काम व्यक्तिगत स्तर पर शुरू होता है। केंद्रीय मंत्री के मुताबिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘लाइफ  आंदोलन’ के जरिये जलवायु परिवर्तन की जटिल समस्या से निपटने का बेहद सरल समाधान सुझाया है। उनके मुताबिक लाइफ  से मतलब पर्यावरण के अनुकूल जीवनशैली से है। यह एक जन और ग्रह समर्थक प्रयास है। इसका उद्देश्य दुनिया को प्राकृतिक संसाधनों को अवश्यक और विवेकी उपयोग की तरफ  ले जाना है। अगर दुनिया ने वाकई भारत के इस सिद्धांत पर अमल किया तो जलवायु परिवर्तन का स्थाई समाधान हो सकेगा।
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