आम बजट 2023-24 मुश्किल होगा वित्तमंत्री के लिए संतुलन साधना

 

आगामी 01 फरवरी 2023 को पेश किये जाने वाले केन्द्रीय आम बजट में वित्तमंत्री के लिए आय-व्यय तथा विकास व मुद्रास्फीति के बीच संतुलन बिठाना बेहद मुश्किल होगा। साल 2023-24 का यह बजट मौजूदा मोदी सरकार के दूसरे टर्म में पेश होने वाला अंतिम रेगुलर बजट है, जिसकी वजह से यह बजट अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों के लिए बहुत महत्वपूर्ण होगा। राजनीतिक रूप से समाज के महत्वपूर्ण विभिन्न वर्गों मसलन- किसान, मजदूर, बेरोज़गार युवा और तेजी से बढ़ रहे भारत के विशाल मध्यवर्ग की अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर उन्हें खुश करने हेतु इस बजट में कई लोकलुभावन घोषणाएं व उनके अनुरूप वित्त प्रबंधन की राजनीतिक चुनौती होगी। इसके साथ ही पिछले तीन सालों से कोविड महामारी से आहत अर्थव्यवस्था, जो अब नये सिरे से उभरनी शुरू हुई है, उसके लिए अनेक तरह के राजकोषीय व वित्तीय प्रोत्साहन, छूट, बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता मुहैय्या कराये जाने का जबरदस्त दबाव झेलना पड़ेगा। 
कोविड के उपरांत समूची दुनिया की अर्थव्यवस्था में मंदी व स्फीतिकारी प्रवृतियों की आशंका प्रबल होने से भारतीय अर्थव्यवस्था को अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कई चुनौतियां और रुकावटों से तालमेल बिठाने की चुनौती भी झेलनी पड़ेगी। इन सब परिस्थितियों के बीच वित्तमंत्री देश की अर्थव्यवस्था की मैक्रो इकोनामिक यानी वृहत्तर अर्थव्यवस्था के तमाम मानकों को किस तरह निर्धारित करके उसकी दशा व दिशा निर्धारित करती हैं, इसे देखना भी दिलचस्प होगा। मिसाल के तौर पर पहले यह अनुमान लगाया गया कि कोविड के उपरांत भारत की अर्थव्यवस्था की विकास दर मौजूदा वित्त वर्ष में दहाई अंकों में जायेगी। लेकिन रिजर्व बैंक, आईएमएफ  और कई अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां, इसे घटाकर अब छह प्रतिशत कर चुकी हैं। 
पिछले छह महीने से अर्थव्यवस्था में बढ़ रही मुद्रास्फीति की वजह से रिजर्व बैंक द्वारा निरंतर बढ़ाई गई रेपो दर और बैंक दर से घरेलू निवेश संकुचित हुआ, जिससे हमारी विकास दर प्रभावित हुई। खुदरा मूल्य सूचकांक के मोर्चे पर कृषि खाद्य पदार्थो की कीमतें तो जरूर नियंत्रण में आयीं लेकिन बुनियादी पूंजीगत वस्तुओं की कीमतों में बेहिसाब बढ़ोत्तरी से तैयार औद्योगिक व पूंजीगत उत्पादों की कीमतें काफी बढ गईं, जिससे अर्थव्यवस्था में मांग,निवेश और रोजगार आशानुरूप नहीं बढ़ पाया। चूंकि कोविड महामारी के उपरांत सरकारी राजस्व में गिरावट को ध्यान में रखकर वित्तमंत्री ने पिछला बेहद घाटे का बजट बनाया जो एफआरबीएम कानून को लांघकर जीडीपी के साढ़े तीन प्रतिशत से बढ़कर साढ़े छह प्रतिशत पर चला गया, मौजूदा वित्तीय वर्ष में भी इसके कम होने की उम्मीद नहीं है। 
वित्तीय घाटे का ऊंचा लक्ष्य भारत सरकार को एक तरह से कर्ज की अर्थव्यवस्था में भी ढकेल चुकी है। कुल मिलाकर सार्वजनिक ऋण का आकार हमारी जीडीपी का 82 प्रतिशत तक पहुंच गया है, जो पहले करीब 60 से 65 प्रतिशत के करीब होता था। देश में मुद्रास्फीति के बढ़ने व वास्तविक विकास दर के कम होने की यह प्रमुख वजह है। अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की बात करें तो बीते साल भारतीय अर्थव्यवस्था ने निर्यात के मोर्चे पर सराहनीय प्रगति हासिल की थी। रुपये के डालर के मुकाबले कमजोर होने से विदेशों में हमारा निर्यात सस्ता हुआ था, दूसरा अमरीका, चीन व यूरोप की अर्थव्यवस्थाओं के सुस्त होने से हमारी निर्यात आधारित मैन्युफैक्चरिंग इकोनामी अच्छा प्रदर्शन कर रही थी। 
लेकिन निर्यात की इन संभावनाओं को विश्वव्यापी मंदी की मौजूदा आशंकाओं ने काफी धक्का पहुंचाया है। अगर मौजूदा वित्तीय साल में निर्यात बेहतर रहा तो दूसरी तरफ  हमारे आयात में भी उसी अनुपात में काफी बढ़ोत्तरी हुई। इसकी वजह ये थी कि भारत की अर्थव्यवस्था ने कोविड महामारी के उपरांत जो उभरना शुरू किया, उसके लिए कई उत्पादन कारकों की जरूरतों के लिए हम आयात पर ही निर्भर थे। ये ठीक है कि भारत ने चीन के साथ अपने राजनीतिक आर्थिक संबंध बिगड़ने के उपरांत आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था का एक नया कॉल लिया है। इसके तहत भारत ने उपभोक्ता इलेक्ट्रानिक उत्पादों और इनके उपकरणों के भारी मात्रा में उत्पादन करने और इनकी असेंबली लाइन विकसित करने का एक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम तैयार किया है, लेकिन उस लक्ष्य को अभी आशातीत गति नहीं मिल पायी है। अगर केवल मौजूदा परिस्थिति की बात करें तो वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण के लिए संरचनात्मक अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर बढ़ता वित्तीय घाटा व सार्वजनिक ऋण का विशाल आकार तात्कालिक बड़ी चुनौती है, तो दूसरी तरफ  भारत की विशाल बेरोज़गार आबादी को तदनुरूप रोज़गार उपलब्ध कराना इससे भी बड़ी चुनौती है। अगर पहली चुनौती की बात करें तो उसके सामने सबसे बड़ी राजनीतिक मजबूरी देश की अस्सी करोड़ आबादी को मुफ्त अनाज दिये जाने की घोषणा है, जो कोविड महामारी काल में शुरू की गई, पर योजना की राजनीतिक महत्ता को ध्यान में रखते हुए अगले एक साल के लिए बढ़ा दिया गया। केन्द्र सरकार का अकेले खाद्य साब्सिडी का आंकड़ा दो लाख करोड़ के लक्ष्य के मुकाबले तीन लाख करोड़ को पार कर चुका है। 
अब अगले एक साल के लिए इस रकम का वित्तीय प्रबंधन भारत सरकार के राजखजाने को घाटे व कर्ज पर और ज्यादा आश्रित करेगा। सरकार के लिए अभी पिछले छह माह से जीएसटी करों का संग्रहण करीब डेढ लाख करोड़  प्रति माह होना जरूर सुकूनदायक है। मगर कहना होगा देश में मुफ्त अनाज या रियायती दर पर अनाज सभी सरकारों के लिए वोट पाने का एक श्योर शॉट कदम बन चुका है। यही वजह है कि एमएसपी को कानून बनाकर गैर सरकारी खरीद के लिए बाध्यकारी बनाने का कदम केन्द्र सरकार ने इस बिना पर नहीं उठाया कि वह स्वयं किसानों से इतनी ज्यादा मात्रा लगभग तीन से चार करोड़ टन अनाज क्रय करेगी, जिससे वह अस्सी करोड़ जनसंख्या को सालों भर का अनाज अपने तई मुहैय्या करा सके। ये बात दीगर है कि देश के 15 करोड उत्पादक किसान इस वजह से अपने उत्पादों की बाज़ार में बेहतर कीमत प्राप्त नहीं कर पाते जिसके लिए वह सरकार पर लगातार राजनीतिक दबाव बना रहे हैं।
इस तरह देखें तो आगामी आम बजट वित्तमंत्री की सही मायनों में परीक्षा लेगा; क्योंकि अगर एक तरफ  कोविड से हलकान अर्थव्यवस्था को मजबूती देने का दबाव है, तो दूसरी तरफ  अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र कई लोकलुभावन वायदों की घोषणा करना भी मजबूरी है। भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए हमेशा से यह राजनीतिक दबाव बड़ी चुनौती रहा है। लेकिन अब चूंकि परिस्थितियां किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए स्थानीय या देशज भर नहीं रहीं, वे बढ़कर वैश्विक हो गई हैं, इसलिए भारतीय अर्थव्यवस्था को धीरे-धीरे अब अपने पुराने चेहरे ही नहीं बल्कि चरित्र से भी दूरी बनानी होगी ताकि हमारी अर्थव्यवस्था एक साथ देसी व अंतर्राष्ट्रीय झटकों को झेलने में सक्षम हो सके। वित्तमंत्री को इसी लक्ष्य का पाठ अपने बजट में ढूंढ़ना होगा।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर