क्या जाति आधारित जनगणना का कोई राजनीतिक लाभ होगा ?

 

भारत सरकार भले ही दस वर्षीय जनगणना न करा रही हो, लेकिन नीतिश कुमार की सरकार ने लोगों की जातिवार गिणती शुरू कर दी है। राष्ट्रीय स्तर पर 2021 में जनगणना होनी थी। इसे न कराने की सफाई देते हुए सरकार संसद में बता चुकी है कि कोविड की वजह से उसने यह कवायद अगले निर्णय तक स्थगित कर रखी है। अगला निर्णय कब होगा, पता नहीं। जनगणना न कराने के नुकसान अपने-आप में स्पष्ट हैं। मसलन 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक इस समय देश में 81.5 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत रियायती या मुक्त अनाज पाने के हकदार माना जाता है। इस कानून के मुताबिक ग्रामीण जनसंख्या के 75 प्रतिशत लोग और शहरी जनसंख्या के पचास प्रतिशत लोगों को यह लाभ मिलना चाहिए। अगर इन्हीं आंकड़ों को 2021 पर केन्द्रीत करके देखा जाए तो ऐसी जनसंख्या 92 करोड़ तक पहुंच जाती है। यानी, जनगणना न करवाने के कारण देश के तकरीबन दस करोड़ गरीब लोग रियायती अनाज से वंचित हैं। दरअसल, जनगणना की कवायद शुरू करने में सरकार की हिचकिचाहट क को समझना मुश्किल है। इससे तो सरकार और सत्तारूढ़ दल को फायदा ही होने वाला है। यदि यह सरकारी दावा सही है कि पहले के मुकाबले कहीं अधिक परिवारों को बिजली, स्वास्थ्य, मकान और खाना पकाने की गैस जैसी सुविधाएं मिल रही हैं तो यह आंकड़ों में निकल कर आ जाएगा। इसके ज़रिए अगले चुनाव में सरकार को ‘एंटी-इनकम्बेंसी’ (सरकार विरोधी भावना) का मुकाबला करने में मदद मिलेगी।
जहां तक जातिगत जनगणना का सवाल है, कुछ दूसरे प्रदेश और कुछ दूसरी सत्तारूढ़ राजनीतिक पार्टियों की तरफ से भी ऐसा करने के इरादे की घोषणा की जा चुकी है। हो सकता है कि वहां भी जल्दी ही जातियों की जनगणना शुरू हो जाए। इस कवायद का यह केवल एक तकनीकी पहलू है कि बिहार द्वारा शुरू की गई इस प्रक्रिया को जनगणना कहा जाए या जातियों का सर्वेक्षण? कानूनन जनगणना करने का अधिकार केवल केन्द्र सरकार के पास है। इसलिए अगर कोई राज्य इस तरह की कोई गणना करवाता है तो उसे औपचारिक रूप से सर्वेक्षण कहना होगा। लेकिन, व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो इसमें और केन्द्र द्वारा करवाई जाने वाली जनगणना के बीच कोई खास अंतर नहीं है। इसमें भी तकरीबन वे सभी सवाल पूछे जाने हैं, जो राष्ट्रीय जनगणना के दौरान पूछे जाते हैं। फर्क केवल इतना होगा कि गिणती करने के बाद यह प्रक्रिया बता देगी कि किस जाति के पास कितनी शिक्षा है, कितनी नौकरियां हैं, किसकी आमदनी कितनी है, कितने परिवारों के पास अपने घर हैं, बिजली है, खाना पकाने की गैस है, आदि-आदि। राष्ट्रीय जनगणना केवल अनुसूचित जातियों और जनजातियों के बारे में ऐसे आंकड़े बताती है। 
बिहार की जनगणना सभी जातियों के बारे में तस्वीर साफ कर देगी। इस लिहाज़ से देखा जाए तो यह कवायद कुल मिला कर जनसंख्या के आर्थिक-सामाजिक हालात की जातिवार तस्वीर पेश कर देगी। क्योंकि संविधान जाति को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ेपन के आधार के तौर पर मान्यता देता है, इसलिए भी ऐसी जातिगत अधारित गणना विश्वसनीय कही जा सकती है। लेकिन, क्या जातिगत गिणती के पीछे का मकसद केवल यही है? अन्य पिछड़े वर्ग के नेताओं, पार्टियों और बुद्धिजीवियों का घोषित-अघोषित विचार है कि जैसे ही जातियों की संख्या की प्रामाणिक जानकारी मिलेगी, वैसे ही राजनीति का खेल बदल जाएगा। उन्हें पिछड़ी जातियों की एकता और गोलबंदी का एक ऐसा प्रबल तर्क मिल जाएगा, जिससे वे सत्ता के लिए की जाने वाली होड़ को गहराई से प्रभावित कर सकेंगे। संक्षेप में कहें तो वे एक बार फिर नये सिरे से सत्ता संभाल कर लेंगे और भारतीय राजनीतिक मंच पर अंतिम रूप से से पिछड़ों का कभी न अस्त होने वाला सूर्योदय हो जाएगा। दरअसल, जातियों की गिणती कराने के माध्यम से पैदा होने वाले बहुसंख्या के एहसास का इस्तेमाल करके राजनीति को हमेशा-हमेशा के लिए अपने पक्ष में झुका लेने का यह बहुसंख्यकवादी सपना कोई पहली बार नहीं देखा जा रहा है। उत्तर प्रदेश में भाजपा राजनाथ सिंह के नेतृत्व में हुकुम सिंह कमेटी के ज़रिये एक बार इस तरह की आधी-अधूरी कोशिश कर चुकी है। कर्नाटक में कांग्रेस सिद्धरमैया के नेतृत्व में यह प्रयास कर चुकी है। विभिन्न कारणों से दोनों ही कोशिशों के परिणाम इच्छा अनुसार नहीं निकले। मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य की रोशनी में इस कोशिश के भी इच्छा अनुसार  राजनीतिक परिणाम नहीं निकलेंगे। हाँ, अगर यही कोशिश 90 के दशक में मंडल कमिशन की सिफारिशों के तुरंत लागू होने बाद की जाती, तो शायद ऐसा हो सकता था। आज की स्थिति तो यह है कि पिछड़ी जातियों की अलग से गोलबंदी करके एक स्थायी जातिगत बहुमत बनाने की रणनीतिक योजना में हिंदुत्ववादी राजनीति की सफलता ने पलीता लगा दिया है। हिंदुत्ववादी शक्तियां शुरू से ही हिंदू समाज में कर्मकांडीय रूप से शूद्र कही जाने वाली जातियों को दोयम दर्जे की  समझी जाने वाली जातियों के साथ जोड़ने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए काम करती रही हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक गुरु गोलवलकर की बातों पर अगर गौर किया जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि वे बार-बार क्यों शूद्रों को दबे हुए, शोषित और कम हैसियत वाले समाज के रूप में देखने का विरोध करते हुए दिखते हैं। वस्तुत: अपने आग्रह को धरती पर उतारने के लिए साठ और सत्तर के दशकों में दीनदयाल उपाध्याय ने भाजपा के पहले संस्करण जनसंघ में उच्च जातियों के नेताओं को उच्च पदों से हटा कर पिछड़े नेताओं को बैठाने की नीति अपनायी थी। वे संदेश देना चाहते थे कि हिंदुत्ववादी राजनीति में पिछड़ी जातियों को समान स्तर प्राप्त होगा। 
यह संदेश बहुत धीरे-धीरे नीचे तक पहुँचा। इसमें करीब साठ साल लग गए। इसे पिछड़ी जातियों तक पहुंचाने में 90 के दशक के बाद पिछड़ों के बीच प्रभुत्वशाली समुदायों के उदय की परिघटना ने भी अपना योगदान किया। जैसे-जैसे कम जनसंख्या के कारण आरक्षण व सत्ता के लाभों से वंचित समुदायों की आंखों में ये प्रभुत्वशाली समुदाय खटकने शुरू हुए, वैसे-वैसे हिंदुत्ववादी तर्क उनके गले उतरना शुरू हो गया। परिणाम ऊंची जातियों के साथ पिछड़ों के एक हिस्से के राजनीतिक समीकरण के रूप में निकला। इसने 45 से पचास प्रतिशत की हिंदुत्ववादी राजनीतिक एकता तैयार की। इस ऊंची-पिछड़ी जातियों की गोलबंदी ने प्रभुत्वशाली पिछड़ी जातियों और मुसलमान वोटरों की एकता को पराजित कर दिया। धीरे-धीरे करके राष्ट्रवाद, हिंदू गौरव और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे जज़्बाती विचारों ने अब प्रभुत्वशाली पिछड़े समुदायों के कुछ हिस्सों को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया है।  
अब अगर पिछड़ों की असली संख्या का प्रामाणिक आंकड़ा आ भी जाए तो भी ब्राह्मणवाद के खिलाफ की जाने वाली ़िफकरेबाज़ी पहले की तरह असरदार होने की संभावनाएं नहीं हैं। पिछड़े समुदायों को ब्राह्मण-बनिया पार्टी कही जाने वाली भाजपा में सत्ता का सुख प्राप्त हो रहा है। 27 प्रतिशत आरक्षण के अधिक समान बंटवारे के लिए रोहिणी कमिशन जैसे उपाय किये जा रहे हैं। यह प्रक्रिया भी धीमी है और झटके खा-खा कर आगे बढ़ रही है। फिर भी सामाजिक न्याय के नाम पर होने वाली पुरानी राजनीति की संभावनाओं को इसने कमज़ोर कर दिया है। यह नहीं कहा जा सकता कि बिहार की जातिगत गणना से समानतावादी नीति बनाने की दिशा में कोई तरक्की नहीं होगी। लेकिन इससे राजनीति की चलती हुई धारा में कोई बड़ी परिवर्तनकारी हस्तक्षेप नहीं किया जा सकेगा। 
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।