धर्म परिवर्तन का उद्देश्य क्या होता है ?

 

जब भी किसी धर्म का जन्म और उसका विकास हुआ है, एक मायने में उसका अर्थ यह रहा है कि अधिक से अधिक लोगों पर हुक्म चलाने या शासन करने की ताकत हासिल की जाये। धर्म और राजसत्ता का यही रहस्य है। दोनों एक दूसरे से अलग नहीं बल्कि पूरक और पोषण तत्व हैं। इतिहास देख लीजिए, सत्ता चलाने के लिए राजधर्म का पालन किया जाता है अर्थात् राज तब ही स्थिर रह सकता है जब उसका आधार या सहयोगी धर्म हो। जो लोग यह कहते हैं कि ये अलग हैं तो समझना चाहिए कि भुलावे में रखकर अपनी स्वार्थ सिद्धि की जा रही है। धर्म राजसत्ता के साथ मिलकर जीवन के सभी क्षेत्रों पर काबिज़ होता जाता है और अपना विस्तार करता रहता है ताकि अधिक से अधिक आबादी पर कोई भी मुखौटा पहनकर राज कर सके।
धर्म का सत्ता से जुड़ाव
यही वास्तविकता है, कहने को धर्म आपस में भेद करना नहीं सिखाता लेकिन उसके मूल में यही भाव रहता है कि धार्मिक आधार पर बंटवारा किए बिना शासन की डोर हाथ में नहीं रखी जा सकती। उदाहरण के लिए ईसाई देशों की ताकत चर्च में, इस्लामी देशों की लगाम मस्जिद के हाथ में, हिन्दू की मंदिर में, सिख की गुरुद्वारे में और इसी तरह अन्य सभी देशों की शक्ति उनके धर्म में निहित है। कोई धर्म अत्याचार की हद तक कट्टर हो सकता है तो कोई सब के सुख में अपना सुख मानने की सीमा तक सहिष्णु हो सकता है। यहां तक कि कम्युनिस्ट देश जो धर्म को नहीं मानते लेकिन अपनी विचारधारा, जो धर्म ही है, के आधार पर अपना शासन चलाने और उसका विस्तार करते दिखाई देते हैं।
धर्मों का आपस में समन्वय तो हो सकता है लेकिन वे कभी भी एक-दूसरे में विलीन नहीं हो सकते। धर्म चाहे छोटा हो या बड़ा, स्वतंत्र रहकर ही अपनी सत्ता चलाना उसके मूल तत्वों में से एक है। यही कारण है कि धर्म बदलने या बदलवाने के पीछे भाव यही रहता है कि परिवर्तन चाहे इक्का-दुक्का हो या कोई लहर चल पड़े, आशय यही होता है कि इसके ज़रिये राजनीतिक सत्ता हासिल की जाये।
जब भारत पर हिन्दू राजाओं का शासन था और मुगल आये तो उन्होंने इस्लाम अपनाने की मुहिम छेड़ी और अंग्रेज़ आए तो ईसाईयत की लहर हिलोरे मारने लगी। स्वतंत्रता के बाद हिन्दू धर्म का वर्चस्व था तो हिन्दू राष्ट्र बनने की होड़ लग गई जो अब तक जारी है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म को बुरा भला कहने वाले और हिन्दुओं के धार्मिक स्थलों की अवहेलना करने वाले, चाहे वे जन्म से हिन्दू हों या बाद में बन गए हों, वह सब कुछ कर रहे हैं जिससे राजनीतिक सत्ता की सीढ़ी पर चढ़ना आसान हो जाये।
धर्म परिवर्तन में धार्मिक अच्छाई के साथ साथ शोषण, दबाव, लोभ, लालच और पैसों के लेनदेन की जबरदस्त भूमिका है। यह न हो तो कोई क्यों अपना धर्म बदलेगा, अपनी इच्छा से तो कतई नहीं, यह सत्य है !
उदाहरण के लिए हिन्दुओं का अपने ही धर्म में जो गरीब, अनपढ़, दलित और अन्य दबी कुचली जातियों के लोग हैं, उनका शोषण करना अपना अधिकार समझा जाता रहा है। ऐसे में कोई उनसे आकर कहे कि तुम्हें अपने ही मंदिर में नहीं जाने दिया जाता तो आओ हमारे गिरिजाघर तुम्हारे स्वागत के लिए खुले हैं। अगर तुम भूखे हो और खाने के लिये पैसे नहीं तो हम तुम्हें भोजन देंगे। बीमार हो तो इलाज करेंगे और मुफ्त दवा देंगे। पढ़ना है तो हम पढ़ायेंगे। छूआछूत से परेशान हो, लड़कियों को घर से बाहर निकलने पर पाबंदी है, उनके पढ़ने पर रोक है, अपनी मज़र्ी से कहीं नहीं जा सकती और कपड़े पहनने तक पर रोकटोक है तो हम हैं न यह सब सुविधा देने के लिये। इसी तरह के प्रलोभन दिये जाते हैं, शर्त इतनी सी है कि अपना ही धर्म जब अपमान करने लगे और दूसरा स्वागत करे तो उसे अपनाना बेहतर लगता है।
सोच में परिवर्तन
दूसरे धर्म में जाने के अन्य कारणों में यह भी है कि अपने में दूसरी शादी नहीं कर सकते और दूसरे में चार तक कर सकते हैं तो उसे अपना लिया जाये। कई बार धर्म की विशेषता नहीं उसकी सुविधाएं देख कर धर्म परिवर्तन हो जाता है।
बहुत से राज्यों ने धर्म परिवर्तन के खिलाफ  कानून बना दिये हैं लेकिन इनमें इतनी विसंगतियां हैं कि उनका पालन मुश्किल है। कानून की बजाय अगर धर्म के नाम पर होने वाली कुरीतियाें और पाखंड के खिलाफ  कानून बनता तो सही होता। धर्म बदलना न पड़े और उसको बदलवाने की सफल कोशिश न हो तो उसके लिए ज़रूरी है कि अपना धर्म सबसे अच्छा लगे तब ही अपने धर्म पर आधारित राष्ट्र की स्थापना हो सकेगी। लेकिन प्रश्न यह भी है कि धार्मिकता पर आधारित देश बने ही क्यों? शिक्षित, रोज़गार सम्पन्न और समृद्ध तथा वैभवशाली राष्ट्र क्यों न बनाया जाये। इससे धर्म के आधार पर दंगा-फसाद करने वालों की पहचान आसन हो जाएगी और साम्प्रदायिक मनमुटाव से बचा जा सकेगा। धार्मिक संख्या बल का महत्व नहीं रहेगा और यह डर नहीं रहेगा कि अगर किसी धर्म के लोगों की संख्या बढ़ गई तो राजनीतिक सत्ता किसी दूसरे धर्म के हाथ में चली जाएगी।