सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरुद्ध केन्द्र का अध्यादेश लाना सही नहीं

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने विपक्षी पार्टियों से आग्रह किया है कि अध्यादेश के बदले जो विधेयक राज्यसभा में लाया जायेगा, उसका वह विरोध करें। भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाली पांच सदस्यों की खंडपीठ ने संघवाद के साधारण सिद्धांत पर बल देते हुए 11 मई 2023 को कहा था कि अगर एक चुनी हुई सरकार अपने ही प्रशासनिक अधिकारियों को नियंत्रित नहीं कर सकती, तो यह संविधान के तहत उसे मिली शक्तियों का इंकार होगा। अदालत ने जन व्यवस्था (पब्लिक आर्डर), भूमि व पुलिस को छोड़कर सभी प्रशासनिक जिम्मेदारियां व अधिकार दिल्ली सरकार को सौंप दिए थे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को उलटते हुए केन्द्र सरकार एक अध्यादेश ले आयी और साथ ही फैसले की समीक्षा के लिए उसने अदालत में भी दस्तक दी है। अध्यादेश छह माह तक ही लागू रह सकता है, उसे आगे जारी रखने के लिए संसद की मंजूरी ज़रूरी होती है। लोकसभा में तो भाजपा का बहुमत है, वहां उसे अपने कदम पर मुहर लगवाने में कोई अड़चन नहीं आयेगी, राज्यसभा में राहें कठिन हैं। इसलिए केजरीवाल ने अध्यादेश को रोकने के लिए विपक्षी दलों से अपील की है। 
बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने दिल्ली में केजरीवाल से मुल़ाकात करके उन्हें केन्द्र के विरुद्ध उनके संघर्ष में समर्थन देने का आश्वासन दिया है। भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए के राज्यसभा में फिलहाल 110 सदस्य हैं और वह नामंकित सदस्यों के दो स्थानों को भरकर इस संख्या को 112 तक ले जा सकती है। फिर भी वह 238 के सदन में बहुमत से दूर रहेगी। भाजपा को उम्मीद है कि उसे वाई.एस.आर. कांग्रेस और बीजू जनता दल का समर्थन मिल जायेगा, जिनके नेता क्रमश: आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई.एस. जगनमोहन रेड्डी व ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक अभी तक भाजपा-विरोधी ब्लॉक का हिस्सा नहीं बने हैं। इस तरह भाजपा अध्यादेश पर राज्यसभा की मुहर लगवाने की योजना बनाये हुए है। 
वास्तव में क्या होगा, यह तो समय ही बतायेगा, लेकिन केन्द्र द्वारा अध्यादेश लाने के समर्थन व विरोध में अनेक तर्क दिए जा रहे हैं। इस बात से इंकार नहीं है कि अध्यादेश उस समय आवश्यक हो जाते हैं, जब एग्जीक्यूटिव को लगता है कि अदालती फैसला बुनियादी वरीयता के विपरीत है। इसलिए अनेक सरकारों ने अध्यादेश का प्रयोग किया है। यह भी सही है कि अनेक देशों की राष्ट्रीय राजधानियों में शासन के लिए विशेष व्यवस्थाएं की गई हैं। सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं कहा है कि दिल्ली सरकार की पॉवर्स संसदीय कानूनों के अधीन हैं, इसलिए केन्द्र को नई प्रशासनिक संस्था गठित करने का अधिकार है। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के एक सप्ताह के भीतर ही केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय राजधानी नागरिक सेवा प्राधिकरण का गठन किया, जिसमें मुख्यमंत्री व दो वरिष्ठ आईएएस अधिकारी दिल्ली में नौकरशाहों के ट्रांसफर व पोस्टिंग का निर्णय लेंगे, जिस पर अंतिम फैसला लेफ्टिनेंट गवर्नर का होगा, जिनकी नियुक्ति केन्द्र करता है। 
ज़ाहिर है कि यह प्राधिकरण दिल्ली सरकार की अपने अधिकारियों को चुनने की शक्तियों को गंभीर रूप से सीमित करता है। बहरहाल, अध्यादेश के पक्ष में जो तर्क दिए जा रहे हैं, उनसे भी उस बुनियादी बात का जवाब नहीं मिलता है, जिसके आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना निर्णय दिया था कि चुनी हुई सरकार, जिसके पास जन समर्थन होता है, उसका प्रशासनिक सेवाओं पर नियंत्रण होना चाहिए और यह नियंत्रण प्राकृतिक रूप से प्रतिनिधित्व लोकतंत्र के अर्थ से उत्पन्न होता है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में संघवाद पर भी बल दिया। सार्वजनिक प्रशासन के प्रति अलग-अलग सरकारों का अलग-अलग दृष्टिकोण होना बड़े देश के संघीय चरित्र का ही हिस्सा है जैसा कि अदालत ने कहा, ‘व्यवहारिक संघवाद और सहयोगी संघवाद के विचार ज़मीन में ध्वस्त हो जायेंगे, अगर हम यह कहें कि केन्द्र के पास उन मामलों में भी अधिभावी एग्जीक्यूटिव पॉवर्स हैं, जिनमें दिल्ली विधानसभा को लेजिस्लेटिव पॉवर्स मिली हुई हैं।’ 
सुप्रीम कोर्ट की इन्हीं तार्किक दलीलों को अध्यादेश के माध्यम से पलट दिया गया है और यही कारण है कि अध्यादेश लाना अति चिंताजनक निर्णय हो गया है। अध्यादेश की चिंताजनक प्रवृत्ति इस बात से कम नहीं हो जाती कि कुछ आप नेताओं पर आरोप हैं कि उनका नौकरशाहों से व्यवहार अच्छा नहीं था। अगर नेताओं का खराब व्यवहार उनसे प्रशासन छीनने का अच्छा कारण है तो भारत में बहुत कम सरकारों के पास नौकरशाहों को निर्देश देने का अधिकार होगा। साथ ही सुप्रीम कोर्ट की यह स्वीकृति कि संसद के पास दिल्ली के लिए कानून बनाने का अधिकार है, का अर्थ यह नहीं है कि उसका हर कानून गठन उचित होगा। यह अध्यादेश इसलिए सही नहीं है; क्योंकि यह चुनी हुई सरकार की शक्तियों को स्वीकार करने से इंकार करता है।
अपने फैसले की समीक्षा के दौरान क्या सुप्रीम कोर्ट अपनी संवैधानिक खंडपीठ के पहले निर्णय पर कायम रहेगा? यह कानून का दिलचस्प प्रश्न है। लेकिन शायद इससे यह तय नहीं हो पायेगा कि दिल्ली को किस तरह से शासित किया जाये। एक सुझाव ‘दो दिल्ली’ बनाने का है। समय आ गया है कि इस पर या ऐसे ही किसी विचार पर गंभीरता से चर्चा की जाये। दिल्ली के लोग न खत्म होने वाली नोकझोंक नहीं चाहते हैं। चूंकि केन्द्र सरकार की वैध दिलचस्पी राष्ट्रीय राजधानी में अपने लोगों व सम्पत्ति की सुरक्षा सुनिश्चित करने में है, इसलिए उसे नई दिल्ली में से अपने लिए एक केन्द्र शासित प्रदेश काट लेना चाहिए। इसमें एनडीएमसी द्वारा शासित क्षेत्र शामिल किया जा सकता है, जहां केन्द्र सरकार के सभी प्रमुख दफ्तर, एम्बेसी और अन्य राज्य लैंडमार्क्स जैसे राष्ट्रपति भवन, इंडिया गेट आदि स्थित हैं। उसकी अपनी पुलिस, नगर पालिका हो और यह सब सीधे केन्द्र सरकार के एक विभाग से शासित हों।
जो आज शेष दिल्ली है- जिसकी लगभग 23 मिलियन जनसंख्या है- वह एक पूर्णत: नया राज्य बना दिया जाये, जिसकी अपनी पुलिस हो। उसके पास पूर्णत: प्रतिनिधि सरकार हो और अन्य राज्यों की तरह वह राष्ट्रीय राजस्व शेयर करे। हालांकि एरिया के हिसाब से यह सबसे छोटा राज्य होगा, लेकिन जनसंख्या के हिसाब से 10 वर्तमान राज्यों से बड़ा होगा। व्यवहार्यता की दृष्टि से वह अनेक छोटे राज्यों को मिलाकर अधिक ट्रेड व कॉमर्स करेगा। यह समाधान अजीबोगरीब लग सकता है, लेकिन अगर आपको याद हो तो भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी ने 2003 में दिल्ली को अन्य राज्यों की तरह पूर्ण राज्य का दर्जा देने के लिए विधेयक पेश किया था, जिसका कांग्रेस की शीला दीक्षित ने विरोध किया था। बहरहाल, महाभारत से प्रेरणा ली जाये तो लोहे की तरह सख्त शासक को भी स्थिति के हिसाब से मक्खन की तरह मुलायम होना चाहिए।
 

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर