एमएसपी की घोषणा अच्छा कदम, पर खरीद भी सुनिश्चित हो

 

केन्द्र सरकार ने खरीफ  की धान एवं ज्वार की दो किस्मों सहित 16 फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की घोषणा कर एक बार फिर किसानों को बड़ी राहत दी है। देखा जाए तो एक दशक पहले यानि कि 2010-11 की तुलना में न्यूनतम समर्थन मूल्य में कई गुणा वृद्धि हुई है, तो कृषि लागत में भी बढ़ोतरी हुई है। खरीफ  की फसलों में वैसे तो सबसे अधिक तिल के न्यूनतम समर्थन मूल्य में 805 और मूंग में 803 रुपये की बढ़ोतरी की गई है। कहा यह भी जा रहा है कि धान, ज्वार, बाजरा, रागी, मक्का, अरहर, मूंग, उड़द, मूंगफली, सूरजमुखी, सोयाबीन, तिल, रामतिल व कपास सभी की कीमत में लागत से 50 प्रतिशत से भी अधिक की बढ़ोतरी की गई है। अच्छी बात यह मानी जा सकती है कि अब केद्र सरकार द्वारा बुवाई आरंभ होने से पहले ही फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कर देती है। हालांकि विचारणीय प्रश्न और किसान संगठनों के आंदोलन का एक प्रमुख कारण है कि जिस तरह से सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती है ठीक इस तरह की व्यवस्था सुनिश्चित कर दे कि सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य से मण्डी में भाव कम हो तो सरकारी खरीद बिना किसी बाधा के आरंभ हो जाएं। इस तरह की व्यवस्था पहले से ही तय हो जाए तो फिर न्यूनतम समर्थन मूल्य का अन्नदाता को पूरा-पूरा लाभ मिल सकता है। दरअसल यक्ष प्रश्न यह हो गया है कि सरकारी खरीद कब से आरंभ हो और किस उपज की हो। खासतौर पर खरीफ  अनाज यानी बाजरा, रागी, मक्का आदि का न्यूनतम मूल्य प्राप्त करने के लिए किसानों को सबसे अधिक परेशानी होती है। बहुत अधिक ज़ोर देने पर बाजरा की खरीद कभी तो आंरभ हो जाती है व कभी मांग यों ही निकल जाती है। 
सवाल यह है कि जब सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती है तो उसी दिन यह व्यवस्था भी सुनिश्चित हो जानी चाहिए कि सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य की राशि काश्तकार को अवश्य मिले। इसके लिए उसे किसी की ओर देखना न पड़े। किसान आंदोलन के चलते जो सबसे महत्वपूर्ण विवाद का कारण न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था जारी रखने की गारन्टी है, को लेकर सरकार का दावा रहा है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था किसी भी तरह से प्रभावित नहीं हो रही है। दरअसल न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था को लेकर विवाद की स्थिति बनी हुई है। 
किसानों को कम से कम उनकी लागत का पूरा मूल्य मिल सके, इसके लिए सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की जाती है। देश में पहली बार 1966-67 में सबसे पहले गेहूं की सरकारी खरीद के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की गई थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने एक अगस्त 1964 को एल.के. झा की अध्यक्षता में इसके लिए कमेटी गठित की थी। इसके बाद सरकार ने अन्य प्रमुख फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करने की ओर कदम बढ़ाए। केन्द्र सरकार द्वारा सीएसीपी यानि कृषि मूल्य एवं लागत आयोग की सिफारिश पर कृषि उपज के न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की जाने लगी। आज देश में 23 फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की जाती है। इसमें 7 गेहूं, धान सहित अनाज फसलें, 5 दलहनी फसलें, 7 तिलहनी फसलों व 4 नकदी फसलों के समर्थन मूल्य की घोषणा की जाती है। नकदी फसलों में गन्ना के सरकारी खरीद मूल्य की सिफारिश गन्ना आयोग द्वारा की जाती है तो गन्ने की खरीद भी सीधे गन्ना मिलों द्वारा की जाती है। इसी तरह से कपास की खरीद सीसीआई यानी कॉटन कारपोरेशन ऑफ  इण्डिया द्वारा की जाती है। मुख्य तौर पर अनाज की खरीद भारतीय खाद्य निगम के माध्यम से और दलहन व तिलहन की खरीद नेफैड द्वारा राज्यों की सहकारी संस्थाओं और अन्य खरीद केन्द्रों के माध्यम से की जाती है। केरल सरकार ने 16 तरह की सब्ज़ियों के बेस मूल्य तय कर सब्ज़ी उत्पादक किसानों को बड़ी राहत देने की पहल की है तो हरियाणा सरकार भी केरल की तरह सब्ज़ियों की मूल कीमत तय करने की दिशा में कदम बढ़ा रही है।
किसानों के लिए सर्वाधिक चर्चित एम.एस. स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशाें को लागू करने को लेकर भी प्रमुखता से ज़ोर दिया जाता रहा है। स्वामीनाथन आयोग ने 2004 में अपनी सिफारिश में न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने का एक फार्मूला सुझाते हुए कहा था कि उत्पादन लागत से कम से कम 50 प्रतिशत अधिक एमएसपी घोषित की जाए। एमएसपी की सिफारिश करते समय सीएसीपी द्वारा देश के अलग-अलग हिस्सों में फसल के अनुसार प्रति हैक्टेयर लागत, खेती के दौरान अन्य खर्र्च, भण्डारण की स्थिति, विदेशों में उपलब्धता आदि पैमाने पर आकलन कर प्रत्येक फसल की एमएसपी की सिफारिश की जाती है। 2004 में स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश को ध्यान में रखते हुए केन्द्र सरकार ने 2018-19 में उत्पादन लागत से 50 प्रतिशत अधिक मूल्य घोषित करने का निर्णय किया। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि केन्द्र व राज्य सरकारें एमआईएस यानि बाज़ार हस्तक्षेप योजना के तहत एमएसपी के अधीन नहीं आने वाली फसलों की खरीद की व्यवस्था करती आई हैं। लहसुन की खरीद, प्याज़ की खरीद आदि इसका उदाहरण है।
 सवाल यह है कि केन्द्र व राज्य सरकारें न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था को सरल बना दे और सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य से मण्डियों में भाव नीचे जाते ही तत्काल खरीद आंरभ कर दे तो निश्चित रूप से अन्नदाता को इस व्यवस्था का पूरा-पूरा लाभ मिल सकता है। इसके साथ ही इस व्यवस्था में जिस तरह से सेंध लगाई गई है, उसे रोकने के भी ठोस प्रयास किए जाने आवश्यक है। कहीं न कहीं एक बार फिर से बाज़ार व्यवस्था का भी अध्ययन करना पड़ेगा कि जब तक किसान की पूरी फसल बाहर नहीं आ जाती तब तक क्या कारण है कि बाज़ार में उस फसल की कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य के बराबर नहीं आती। इसके पीछे जो बाज़ारी ताकतें सक्रिय हुई हैं, उनसे भी किसानों को बचाने का समय आ गया है। 
असल में अन्नदाता को न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ दिलाना सरकारों का दायित्व है तो व्यवस्था को प्रभावित करती बाज़ारी ताकतों को भी व्यवस्था से हटाने का दायित्व सरकारों का हो जाता है। ऐसे में एमएसपी खरीद व्यवस्था का लाभ अन्नदाता को अवश्य मिले, यह व्यवस्था सुनिश्चित होनी ही चाहिए। तभी एमएसपी घोषित करने के मायने रहते हैं नहीं तो किसानों और सरकारों के बीच टकराव तो बना ही रहेगा, एमएसपी भी सही मायने में अपने उद्देश्यों पर खरी नहीं उतर सकेगी। 

-मो. 094142-40049