एक साथ चुनाव : लोकतंत्र के लिए फायदे कम, नुकसान ज्यादा

राजस्थान में चुनाव की रणभेरी बजने वाली है।  चुनाव की आदर्श आचार संहिता कब लगेगी, इसको लेकर लोग खूब कयास लगा रहे हैं। इस सबके बीच ‘एक देश, एक चुनाव’ पर बहस एक और मुद्दा ऐसा है जो आम आदमी से लेकर सियासी गलियारों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है। सवाल यह भी है कि कहीं इसका प्रयोग राजस्थान से तो शुरू नहीं होगा?    दरअसल, एक साथ चुनाव का तात्पर्य है कि पूरे भारत में लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होंगे जिसमें  संभवत: एक ही समय के आसपास मतदान होगा।
एक साथ चुनाव या ‘एक देश, एक चुनाव’ का विचार पहली बार औपचारिक रूप से भारत के चुनाव आयोग द्वारा 1983 की रिपोर्ट में प्रस्तावित किया गया था। एक साथ चुनाव कराने के कुछ संभावित लाभों के साथ-साथ कुछ कमियां भी हैं जो सवाल उठाती हैं  कि क्या एक साथ चुनाव कराना भारत के लोकतंत्र के लिए हानिकारक है? विश्लेषकों का मानना है कि संविधान ने हमें संसदीय मॉडल प्रदान किया है जिसके तहत लोकसभा और विधानसभा पांच वर्षों के लिए चुनी जाती हैं, लेकिन एक साथ चुनाव कराने के मुद्दे पर हमारा संविधान मौन है। संविधान में कई ऐसे प्रावधान हैं जो इस विचार के बिल्कुल विपरीत दिखाई देते हैं। अनुच्छेद 2 के तहत संसद द्वारा किसी नये राज्य को भारतीय संघ में शामिल किया जा सकता है और अनुच्छेद 3 के तहत संसद कोई नया राज्य बना सकती है, जहां अलग से चुनाव कराने पड़ सकते हैं। इसी प्रकार अनुच्छेद 85(2)(ख) के अनुसार राष्ट्रपति लोकसभा को और अनुच्छेद 174(2)(ख) के अनुसार राज्यपाल विधानसभा को पांच वर्ष से पहले भी भंग कर सकते हैं। अनुच्छेद 352 के तहत युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में राष्ट्रीय आपातकाल लगाकर लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाया जा सकता है। इसी तरह अनुच्छेद 356 के तहत राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है और ऐसी स्थिति में संबंधित राज्य के राजनीतिक समीकरण में अप्रत्याशित उलटफेर होने से वहां फिर से चुनाव की संभावना बढ़ जाती है। ये सारी परिस्थितियां ‘एक देश, एक चुनाव’ के नितांत विपरीत हैं।
एक साथ चुनाव कराने के लिए राज्य विधानसभाओं की शर्तों को लोकसभा की शर्तों के साथ समन्वित करने के लिए संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता होगी। इसके अलावा, जन प्रतिनिधित्व कानून के साथ-साथ अन्य संसदीय प्रक्रियाओं में भी संशोधन की आवश्यकता होगी। 
एक साथ चुनाव को लेकर क्षेत्रीय दलों का मुख्य डर यह है कि वे अपने स्थानीय मुद्दों को मज़बूती से नहीं उठा पाएंगे, क्योंकि राष्ट्रीय मुद्दे केंद्र में आ जाएंगे। इसके अतिरिक्त चुनावी खर्च और चुनावी रणनीति के मामले में भी वे राष्ट्रीय पार्टियों से मुकाबला नहीं कर पाएंगे। एक साथ चुनावों से देश की संघवाद को चुनौती मिलने की भी आशंका है। एक साथ चुनाव होने से लोकतंत्र के इन विशिष्ट मंचों और क्षेत्रों के धुंधला होने का खतरा है, साथ ही यह जोखिम भी है कि राज्य स्तरीय मुद्दे राष्ट्रीय मुद्दों में समाहित हो जाएंगे। ‘एक देश, एक चुनाव’ देश के संघीय ढांचे के विपरीत होगा और संसदीय लोकतंत्र के लिये घातक कदम होगा। 
लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ करवाने पर कुछ विधानसभाओं के मर्जी के खिलाफ  उनके कार्यकाल को बढ़ाया या घटाया जाएगा जिससे राज्यों की स्वायत्तता प्रभावित हो सकती है। अगर लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाए गए तो ज्यादा संभावना है कि राष्ट्रीय मुद्दों के सामने क्षेत्रीय मुद्दे गौण हो जाएं या इसके विपरीत क्षेत्रीय मुद्दों के सामने राष्ट्रीय मुद्दे अपना अस्तित्व खो दें। दरअसल लोकसभा एवं विधानसभाओं के चुनाव का स्वरूप और मुद्दे बिल्कुल अलग होते हैं। लोकसभा के चुनाव जहां राष्ट्रीय सरकार के गठन के लिये होते हैं, वहीं विधानसभा के चुनाव राज्य सरकार का गठन करने के लिये होते हैं। इसलिए लोकसभा चुनाव में जहां राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों को प्रमुखता दी जाती है, तो वहीं विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय महत्व के मुद्दे आगे रहते हैं।
भारत जनसंख्या के मामले में विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है। लिहाज़ा बड़ी आबादी और आधारभूत संरचना के अभाव में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ कराना तार्किक प्रतीत नहीं होता। (युवराज)