पुर्तगालियों के साथ आया और यहीं का हो गया तून का पेड़

फर्नीचर के लिए बेहतरीन लकड़ी, घास, गोंद, रेज़ीन, रबर, फाइबर, सिल्क, टेनिन और लैटेक्स के लिए जाना जाने वाला तून का पेड़ भारत में 4000 फीट से भी ज्यादा ऊंचाई तक पाया जाता है। लेकिन तून का पेड़ मूलत: पूर्वी ऑस्ट्रेलिया और पापुआ न्यू गिनी का मूल निवासी है। भारत में इसे पुर्तगाली नाविक लाये थे और आज यह हिंदुस्तान के हर इलाके में पाया जाता है। कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश के तराई वाले हिस्सों, नेपाल, भूटान से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक में यह बड़ी संख्या में पाया जाता है। बहुउपयोगी होने के कारण इसे लोग समुद्रतल से 400 से लेकर 2800 मीटर तक की ऊंचाई वाले हिस्सों में भी लगाते हैं, क्योंकि तून का पेड़ उन गिने चुने पेड़ों में से एक है, जो न सिर्फ हर तरह से आर्थिक फायदा पहुंचाता है बल्कि पर्यावरण को शुद्ध करने में भी बड़ी भूमिका निभाता है।
आज के वक्त तून या तूणी का यह बड़े आकार का पेड़ किस कदर भारतीय हो गया है, इसे इसी बात से जाना जा सकता है कि भारत की करीब-करीब सभी भाषाओं में इसके लिए शब्द हैं। जैसे हिंदी में इसे तून, तूनी या महानीम कहते हैं, तो संस्कृत में तूणी, तुन्नक, आपीन, तूणिक और कच्छक, मराठी में कुरक और गुजराती में तूणी कहते हैं। देश की बाकी भाषाओं में भी इसके लिए अलग-अलग शब्द हैं। अंग्रेजी में इसे इंडियन महोगिनी, रेड सेडार आदि शब्दों से संबोधित करते हैं। आमतौर पर 30 से 35 मीटर ऊंचा तून का पेड़ घना, छायादार और नीम के जैसी मगर उससे बड़ी और चौड़ी पत्तियों वाला एक आकर्षक पेड़ है। इसकी छाल, फूल, पत्ते, बीज और गोंद सबका इस्तेमाल होता है। इसकी लकड़ी जलावन के काम से लेकर मजबूत फर्नीचर बनाने, घरों के फर्श बनाने से लेकर कोयला बनाने तक के काम में आती है। चूंकि तून की लकड़ी मजबूत होती है, इसलिए इससे टिकाऊ फर्नीचर बनता है, साथ ही चूंकि यह दीमकरोधी भी है, इसलिए घर के दरवाजे, खिड़कियां आदि के बनाने में तून की लकड़ी को प्राथमिकता दी जाती है। क्योंकि यह मज़बूत, चिकनी और आकर्षक माटी के रंग की लकड़ी होती है, साथ ही कुछ प्रजातियों की लकड़ी हल्की लाल रंग वाली होती है, इसलिए इस लकड़ी के बेहतरीन फर्श बनते हैं। कागज बनाने में भी इसका अच्छा खासा इस्तेमाल होता है, क्योंकि इसमें खूब फाइबर होता है और ठोस होने के कारण इसका कोयला ऊंची गुणवत्ता वाला माना जाता है।
तून के पेड़ की छाल को अगर काटें तो इसमें एक बहुत तीखी और खास तरह की गंध आती है। जबकि इसके फूलों से मसालेदार गंध आती है, साथ ही इसके फूल बड़े रसीले भी होते हैं, इसलिए कई जगहों में इसे सब्जी बनाकर खाते हैं। उत्तराखंड में तून का पेड़ पूरे राज्य में पाया जाता है और यह किसानों की आय बढ़ाने में अच्छा योगदान करता है। इसका तना काफी मोटा होता है, आमतौर पर यह 3 से 6 फीट का होता है, जिससे इसकी लकड़ी के बेहतरीन पटरे बनते हैं और उन्हें बाज़ार में अच्छी कीमत मिलती है। जिन इलाकों का औसत तापमान 18 से 24 डिग्री सेल्सियस के बीच होता है और किन्हीं विषम परिस्थितियों में यह 10 डिग्री कम या 12 से 14 डिग्री ज्यादा भी हो जाता है, उन क्षेत्रों में तून के पेड़ की अच्छी बढ़त देखी जाती है। तून का पेड़ उन क्षेत्रों में भी अच्छी तरह से विकास करता है, जहां 1100 से लेकर 3000 मिली लीटर की औसत वार्षिक बारिश होती है। इसको अधिक प्रकाश की ज़रूरत होती है। तून की पत्तियां नीम की पत्तियों की हूबहू होती हैं, लेकिन ये लम्बी और बिना कटाव लिए होती हैं।
फरवरी माह में पत्तझड़ के मौसम में इसके पेड़ की पत्तियां झड़ती हैं। मार्च महीने में तून के पेड़ में नीम के पेड़ की तरह ही फूल गुच्छों में लगते हैं, जो आमतौर पर पीले रंग के होते हैं। लोग तून के पेड़ से झड़े हुए फूलों को उसके नीचे से इकट्ठा करके सुखा लेते हैं और इनका कई तरह से इस्तेमाल करते हैं। इसके फूल से रंग भी बनते हैं। तून बहुउपयोगी पेड़ है इसलिए लोग इसे अलग-अलग वजहों से लगाते हैं। तून की पत्तियों से निकले अर्क से कीटनाशक बनते हैं। तून की छाल में टेनिन होता है और इसके अर्क में कीड़े मकोड़ों को भगाने वाला गुण होता है। तून के बीज से सुगंधित तेल हासिल होता है जो कई तरह की औषधीय प्रॉपर्टी से भरपूर होता है। 
तून की छाल का स्वाद मधुर, तिक्त, कटु, कषाय, शीत तथा रेचनकारी होता है, साथ ही इसकी पत्तियां भी औषधीय उपयोग की होती हैं। दस्त लगी हो, सिरदर्द हो, शरीर के किसी अंग में मोच आ गई हो, लंबे समय से घाव न भर रहा हो, फोड़े-फुंसी जड़ से खत्म करने हों, तो तून के विभिन्न हिस्से इस्तेमाल होते हैं। इसकी लकड़ी बाजार में शीशम और सागौन की कीमत में ही बिकती है। हालांकि तून का पेड़ जल्दी तैयार नहीं होता, इसे कम से कम 10 साल लगते हैं लेकिन अच्छी तरह से विकसित तून का एक पेड़ कई लाख रुपये कीमत का होता है।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर