2024 के आम चुनाव नज़दीक आते ही हंगामा और भ्रम

राज्यसभा चुनाव ने भारत में राजनीतिक हलचल पैदा कर दी है, न केवल क्रॉस-वोटिंग के कारण, जैसा कि अतीत में अक्सर होता रहा है, बल्कि इसलिए भी क्योंकि भाजपा हर संभव सीट हासिल करने की कोशिश कर रही है और हिमाचल प्रदेश में आधिकारिक कांग्रेस उम्मीदवार और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा) के उम्मीदवारों की हार को लोकसभा चुनाव की पूर्व संध्या पर निराश एवं हतोत्साहित विपक्ष को और अधिक हतोत्साहित करने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है। हिमाचल प्रदेश की एक मात्र सीट जिसे कांग्रेस के जीतने की संभावना थी, उस पर कांग्रेस के उम्मीदवार अभिषेक मनु सिंघवी की हार ने कई लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया क्योंकि इसकी उम्मीद नहीं थी कि यह कांटे का मुकाबला होगा। कांग्रेस 43 विधायकों के साथ भाजपा से काफी आगे थी और विपक्षी दल के केवल 25 विधायक सिंघवी के खिलाफ खड़े थे। चुनाव से पहले सिंघवी ने खुले तौर पर संकेत दिया था कि भाजपा कांग्रेस विधायकों को अपने पाले में कर सकती है।
फिर कांग्रेस अपने सामने खड़ी स्थिति को संभालने में क्यों और कैसे विफल रही? क्या यह सिर्फ पार्टी में गुटीय लड़ाई थी? आखिरकार पार्टी उन सभी लाभों के साथ राज्य में सत्ता में है जो सत्ता अपने साथ लाती है। इसके विपरीत, कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और उप मुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार जो सत्ता में थे, ने दक्षिणी राज्य में राजनीतिक प्रबंधन किया और सुनिश्चित किया कि भाजपा और उसके सहयोगी जनता दल (सेक्युलर) के प्रयासों के बावजूद कांग्रेस के सभी तीन उम्मीदवार उच्च सदन के लिए चुने जायें। जब ऐसा लगने लगा कि कांग्रेस शिमला में सरकार खोने की कगार पर है- सिंघवी की हार ने विधानसभा में उसके बहुमत पर सवाल खड़े कर दिये, तो पार्टी का नेतृत्व हरकत में आया और कम से कम फिलहाल के लिए सरकार को वापस गिरने के खतरे से बाहर खींच लिया। जैसे-जैसे ये घटनाक्रम सामने आये और प्रधानमंत्री ने आगामी लोकसभा चुनावों में भाजपा के लिए 370 सीटों की वकालत की, देश की वित्तीय राजधानी मुंबई के केंद्र में बैठे व्यापार तथा कॉर्पोरेटजगत के दिग्गजों एवं फंड मैनेजरों से पत्रकारों ने बातचीत की।
अतीत में वे आर्थिक निरंतरता और राजनीतिक स्थिरता और भारत के दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की दिशा में आगे बढ़ने के पक्ष में बोलते थे। वे अब भी ऐसा ही करते हैं। लेकिन इस बार कुछ लोगों के स्वर में चिंता की झलक थी। उन्होंने पूछा कि प्रधानमंत्री 370 सीटें जीतने पर इतना अधिक ध्यान क्यों केंद्रित कर रहे हैं। यह दो-तिहाई बहुमत होगा और उन्होंने हाल में राज्यसभा चुनाव लड़ने के भाजपा के तरीके के बारे में भी बात की।
बड़े प्रश्नों को छोड़ दें, तो एक समय था जब राज्यसभा बुजुर्गों के सदन के रूप में कार्य करती थी। जो लोग इसके हॉल में प्रवेश करते थे, वे सीधे निर्वाचित नहीं होते थे, लेकिन लोकसभा सदस्य द्वारा किये जाने वाले तात्कालिक दबावों और अन्य दबावों से दूर रहकर सावधान, सचेत, उच्च स्तरीय मानदंड बनाते थे, देश के लिए एक दृष्टिकोण रखते थे और व्यापक हित के लिए समझदार सलाह देते थे। आज राज्यसभा पार्टियों को तोड़ने वाली लड़ाई का ‘अखाड़ा’ बन गयी है। यह प्रलोभन और शासनादेशों के उल्लंघन की कहानी है। फिर कई लोगों का मानना है कि यह एक ऐसी प्रवृत्ति है जिसे पलटना कठिन होगा। सोनिया गांधी इस बार राजस्थान से उच्च सदन के लिए निर्विरोध चुने गए 41 सांसदों में से एक हैं। 25 साल तक लोकसभा में रहने के बाद कांग्रेस संसदीय दल (सीपीपी) की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने नेहरू-गांधी परिवार की रायबरेली सीट छोड़ने का फैसला किया।
रायबरेली के पूर्व सांसदों में उनकी सास इंदिरा गांधी और ससुर फिरोज़ गांधी थे। यह देखते हुए कि भारत के 14 प्रधानमंत्रियों में से आठ उत्तर प्रदेश से रहे हैं, यह आश्चर्य की बात नहीं थी कि नरेंद्र मोदी ने 2014 में वाराणसी से चुनाव लड़ने का फैसला किया। क्योंकि यह एक तथ्य है कि दिल्ली का रास्ता अक्सर उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है। (संवाद)