देश के सिर्फ शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों के ही आये ‘अच्छे दिन’

इस सप्ताह हमारे पास दो महत्वपूर्ण समाचार हैं—पहला, भारतीय दुनिया के सबसे दुखी लोगों में से हैं, और दूसरा, वायदा किये गये ‘अच्छे दिन’ केवल देश के शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों के लिए आये, जो 2022-23 में लगभग 3,758 रुपये प्रति दिन की औसत आय के साथ राष्ट्रीय आय का 57.7 प्रतिशत कमाने में सक्षम थे, लेकिन निचले 50 प्रतिशत लोग, जो केवल 15 प्रतिशत ही कमा पाये थे, उनकी औसत आय प्रतिदिन 198 रुपये से कम थी।
वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स के अनुसार भारत हैप्पीनेस इंडेक्स में 143 देशों में से 126वें स्थान पर है जबकि वर्ल्ड इनइक्वैलिटी लैब की रिपोर्ट में कहा गया है कि मोदी शासन के तहत भारत में असमानता उच्चतम ऐतिहासिक स्तर पर पहुंच गयी है। हालांकि हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे उभरता और विकसित होता हुआ भारत बताते हैं और 2047 तक विकसित भारत की गारंटी दे रहे हैं, जिनमें उनको भी काफी कुछ मिलेगा जिन्हें अब तक नहीं मिला है।
वर्ल्ड इनइक्वेलिटी लैब द्वारा प्रकाशित नितिन कुमार भारती  लुकासचांसल, थॉमस पिकेटी और अनमोल सोमांची द्वारा लिखित ‘भारत में आय और धन असमानता, 1922-23’ उपशीर्षक ‘द राइज़ ऑफ द बिलियनेयर राज’ शीर्षक वाली रिपोर्ट में बताया गया है कि 2014-15 और 2022-23 के बीच शीर्ष स्तर की असमानता में वृद्धि विशेष रूप से धन संकेंद्रण के संदर्भ में स्पष्ट हुई है।
रिपोर्ट में पाया गया कि 2022-23 में मध्य 40 प्रतिशत लोगों की औसत आय केवल 1,65,273 रुपये प्रति वर्ष (27,3 प्रतिशत) थी जबकि शीर्ष 10 प्रतिशत (57.7 प्रतिशत) के लिए यह 13,52,985 रुपये थी। शीर्ष एक प्रतिशत के लिए 53,00,549 रुपये (22.6 प्रतिशत) थी। निचले 50 प्रतिशत की औसत सम्पत्ति 1,73,184 रुपये (6.4 प्रतिशत), मध्य 40 प्रतिशतकी 9,63,560 रुपये (28.6 प्रतिशत), शीर्ष 10 प्रतिशत की औसत सम्पत्ति 87,70,132 रुपये (65 प्रतिशत) और शीर्ष एक प्रतिशत की 5,41,41,525 रुपये (40.1 प्रतिशत) थी।
ऐसी असमानता कैसे पैदा हुई? रिपोर्ट में इस बात के संकेत मिले हैं कि शुद्ध सम्पत्ति के नज़रिये से देखने पर भारतीय आयकर प्रणाली प्रतिगामी हो सकती है। इसमें इस बात पर ज़ोर दिया गया कि भारत में आर्थिक डेटा की गुणवत्ता काफी खराब है और हाल ही में इसमें गिरावट देखी गयी है। इसलिए यह संभावना है कि हमारे परिणाम वास्तविक असमानता स्तरों की निचली सीमा का प्रतिनिधित्व करते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है हम असमानता के अध्ययन को बढ़ाने और साक्ष्य-आधारित सार्वजनिक बहस को सक्षम करने के लिए आधिकारिक डेटा तक बेहतर पहुंच और अधिक पारदर्शिता का आह्वान करते हैं।
रिपोर्ट में बताया गया है, ‘कई पर्यवेक्षकों का मानना है कि अपने दो कार्यकाल के दौरान, इसने (मोदी शासन ने) निर्णय लेने की शक्ति के केंद्रीकरण के साथ-साथ बड़े व्यवसाय और सरकार के बीच बढ़ती सांठगांठ के साथ एक सत्तावादी सरकार का नेतृत्व किया है।’
यह एक गंभीर व्यापक आर्थिक तस्वीर भी पेश करता है। रिपोर्ट में कहा गया है, ‘आधिकारिक आकड़े मोदी के शासनकाल के दौरान धीमी आर्थिक वृद्धि का सुझाव देते हैं । आय की वास्तविक वर्ष-दर-वर्ष वृद्धि दर 2015 और 2016 में 6 प्रतिशत से गिरकर 2017 और 2018 में 4.7 प्रतिशत और 4.2 प्रतिशत हो गयी और फिर नाटकीय रूप से 2019 में 1. 6 प्रतिशत गिर गयी। यह सब कोविड-19 महामारी की चपेट में आने से पहले था और 2020 में आय में 9 प्रतिशत की गिरावट आयी थी। 2021 में आधार-वर्ष प्रभाव था और 2022 में आय में 4.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई।’ आधिकारिक आंकड़ों पर आधारित अनुमान बताते हैं कि बचत और निवेश दरें 2017-18 तक एक दशक से अधिक समय तक लगातार गिरती रहीं, निर्यात 2014-15 में गिरना शुरू हुआ और सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण और उद्योग की हिस्सेदारी 2013 और 2018 के बीच स्थिर रही।
बेरोज़गारी दर, विशेष रूप से युवाओं (15-29 वर्ष) के बीच 2011-12 और 2017-18 के मध्य काफी बढ़ गयी। पिछले लगभग एक दशक से विभिन्न क्षेत्रों में वास्तविक मज़दूरी कमोबेश स्थिर रही है। आर्थिक मंदी में योगदान देने वाला एक अन्य संभावित कारक नवम्बर 2016 में अर्थव्यवस्था को दिया गया कठोर ‘नोटबंदी’ झटका था, जब प्रचलन में लगभग 86 प्रतिशत मुद्रा रातोंरात वैध मुद्रा नहीं रह गयी थी। हालांकि इस कदम का उद्देश्य मुद्रा नोटों के रूप में संग्रहीत ‘काले धन’ (बेहिसाब आय) से लड़ना था, लेकिन माना जाता है कि इससे अनौपचारिक क्षेत्र, छोटे-मध्यम व्यवसायों और गरीबों को काफी नुकसान हुआ। अनुमानों के एक सेट से पता चलता है कि अल्पावधि जीडीपी में 2 प्रतिशत अंक की गिरावट आयी।
मोदी सरकार ने निश्चित रूप से आवास, शौचालय, बिजली और बैंकिंग जैसे विभिन्न बुनियादी ढांचे के लाभों की कवरेज का विस्तार करने में निवेश किया है, जिसे कुछ लोगों ने ‘भारत के दक्षिणपंथ का नया कल्याणवाद’ कहा है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि इन निवेशों से बाज़ार में क्रय शक्ति में सुधार हुआ है या नहीं। इसके अलावा हाल के वर्षों में किसी भी एनएसएसओ उपभोग सर्वेक्षण के अभाव में यह स्पष्ट नहीं है कि भारत ने अत्यधिक गरीबी को कम करने में कितनी प्रगति की है।
असमानता की गतिशीलता के संदर्भ में 2014-2023 के मोदी वर्षों को 3 चरणों में विभाजित किया जा सकता है— 2014-2017, 2018-2020 और 2021 से आगे। पहले चरण में अर्थव्यवस्था मामूली तेज़ी से बढ़ रही थी और आय और धन असमानता दोनों में वृद्धि जारी रही। दूसरे चरण में 2017-18 से 2020 तक विकास काफी धीमा हो गया और फिर 2020 में गिर गया। इस दूसरे चरण में हम शीर्ष 10 प्रति शत लोगों की आय और सम्पत्ति में 1.2 प्रतिशत अंक की गिरावट आयी। इसकी सबसे अधिक संभावित व्याख्या असमानता की प्रति-चक्रीय प्रकृति है यानी अमीरों को तेज़ी की अवधि से असमान रूप से लाभ होता है और मंदी के दौरान उन्हें असमान रूप से नुकसान होता है। यह सबसे संभावित स्पष्टीकरण प्रतीत होता है। विशेष रूप से यह देखते हुए कि हमें इस चरण के दौरान आय और धन दोनों के लिए समान रुझान मिलते हैं। इसके अलावा राष्ट्रीय आय के हिस्से के रूप में सबसे अमीर भारतीयों की सम्पत्ति में भी 2018 और 2020 के बीच गिरावट आयी है। ऐसे अन्य कारकों के बारे में सोचना मुश्किल है जो आय और धन दोनों के लिए इन रुझानों की व्याख्या करते हैं। (संवाद)