कहानी-आखिरी मुलाकात
गांव से सम्पर्क के टूट सा गया था। कारण की एक तो सरकारी नौकरी और उसमें भी सीमित छुट्टी गिने चुने। उसमें से भी कुछ छुट्टियां बचाकर रखना भी होता था ताकि भविष्य में कोई ऐसा विकट कार्य आ जाए तो लेकर आगे का काम किया जा सके। इसलिए अक्सर पिताजी गांव आया-जाया करते थे।
पिताजी प्राइवेट नौकरी में थे और उस समय अभिभाज्य बिहार का वह उद्योग नगरी था जिसे जमशेदपुर टाटानगर के नाम से जाना जाता था। हम लोग सपरिवार टाटानगर में रहते थे और जब तक मेरी नौकरी नहीं हुई तब तक मैं ही गांव आना जाना करता था। कभी मां को गांव ले जाता तो कभी अपने छोटे भाई-बहनों को। हम चार भाईयों के बीच एक बहन थी। सबसे बड़ा मैं ही था। इसलिए पिताजी जिस काम को नहीं कर पाते थे वह मेरे कंधे पर आ जाता था।
पिताजी के सर्विस में रहते हुए मेरी सरकारी नौकरी हो गई थी और मेरा पहला पोस्टिंग नासिक में था। जो पुण्यनगरी व अंगुरनगरी के नाम से भी जाना जाता है। इसलिए जब भी छुट्टी मिलती तो अधिकतर में जमशेदपुर ही जाता था वहां छुट्टियां बीताकर वापस नासिक आ जाता। एक तरह से मैं गांव के अलावा अपने रिश्तेदारों से भी कट गया था। वैसे कोई-कोई नज़दीकी रिश्तेदारी वालों ने फोन पर उलाहना दे ही देता- ‘बबुआ जी आपका दर्शन दुर्लभ हो गया है बहुत दिन देखे हो गया आपको।’
तब मुझे लगता कि वाकई में, मैं गांव से कट गया हूं। इसलिए इस बार गर्मी के छुट्टियों में जमशेदपुर जाना हुआ तो सोच लिया था कि इस बार गांव जाऊंगा स्पेशल गाड़ी लेकर। ताकि सबसे मिल सकूं। घंटे-आध घंटे के लिए जाऊं पर इस बार सबसे मिलकर आऊंगा। इसलिए फोन से सूचित कर दिया था ताकि सहूलियत के अनुसार सबसे मिल सकूं।
रास्ते में ही नाना का गांव आता था जहां अपने जीवन के तकरीबन बीस साल बिताया था। जमशेदपुर से चला तो यही सोचकर चला था कि पहले नाना गांव धनगाई जाऊंगा। घर पर सभी लोग थे। क्योंकि फोन पर पहले ही मैं सूचित कर दिया था। इतने लंबे दिनों के बाद यानी तकरीबन आठ साल के बाद गया था। सब कुछ बदला-बदला सा लग रहा था। नाना गांव से मेरा काफी रागात्मक लगाव था। क्योंकि मेरा बचपन धनगाई में बीता था। खासकर घर के बाजू वाले बाग से काफी लगाव था।
वैसे भी मैं धनगाई जब भी जाता जितना समय वहां रुकता उससे कहीं अधिक वक्त बगीचे में बीताता। बगीचे में जाते ही चिड़िया चुरूंग व पक्षियों के कांव-कांव का जबरदस्त कलरव शुरू हो जाता।
मुझे याद आ रहा था वह दिन जब सुबह के समय हम बच्चे बगीचे में चिका का खेल-खेला करते थे। जब मैं बगीचे में आता था तो मेरे हाथों में खाने के लिए कुछ चबेना वगैरह रहता था। मैं खाता कम भरसक चिड़ियों को खिलाने का प्रयास करता और मुझे ऐसा करने में बड़ा मज़ा आता। सारे पक्षी पेड़ से जमीन पर आकर दाना चुगने लगते।
यह सिलसिला हमेशा चलता रहता। बगीचे में देखकर पक्षियों का झुंड मेरे आजू-बाजू कलरव करने लगते। एक तरह से उन सबके साथ लगाव हो गया था।
बरसात के दिनों में पानी का जमाव लग जाता तब घर के आंगन में उतरकर वहीं दाना चुगने लगते। मैं घर में जाकर मिट्टी के हांडी में से चावल निकाल कर लाता और इधर-उधर छिटक देता। और वे सब फुदक-फुदककर चहलकदमी करते हुए चुगने लगते। मैं उनके इस लगाव से हतप्रभ था।
आज एक लंबे अर्से के बाद भी मेरी आवाज़ सुन पहचान गए थे। मानो कह रहे हो अब तक कहां थे आप? मेरे मन में ऐसा भाव आते ही मेरा हृदय भीतर से काफी द्रवित हो गया था।
मैं उन पुराने स्मृतियों को एक बार ताजा कर वापस मैंने गांव की ओर रूख किया। जो नाना गांव से पांच किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और जिसे करथ नाम से जाना जाता है। यह गांव अपने ज़िले में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उसी राह से गांव से लौटते हुए बहन के यहां रात्रि विश्राम लेना था। गांव से लौटकर बहन के गांव जाते बीच रास्ते में ही मेरे फुआ का गांव था। मेरी फुआ सरकारी शिक्षक थी। अब वह अवकाश प्राप्त कर घर पर ही रहती है। लेकिन उस रात बहन के यहां नहीं बल्कि गांव पर ही रात्रि विश्राम हुआ।
गांव पर सभी से मुलाकात हो गई। बड़की माईमझिला बाबूजी, मंझली माई तथा छोटे भाई-भावजएभौजाई सबसे मिलकर अगले दिन नाश्ता करके फुआ के घर की तरफ मुड़ा था कि फुआ जी का फोन आया कि किसी कारण बस हम लोग एक घंटा पहले बेटे के ससुराल जा रहे हैं। क्योंकि समय से पहले बहू को दो माह पहले ही डिलीवरी हो गई है। अस्पताल में एडमिट है। अर्जेंट जाना पड़ा। बबुआ जी इस बार तो नहीं अगले बार आएगा तो मुलाकात होगी। खैर हुआ से मुलाकात नहीं हो पाई इसलिए बहन के गांव जहां रात गुजारने वाले थे शाम को ही वहां पहुंच गए थे।
अगले दिन ट्रेन से वापस टाटानगर जाना था। यहां बता दूं शहर जमशेदपुर के नाम से जाना जाना है और स्टेशन को टाटानगर के नाम से। सासाराम से गाड़ी ग्यारह बजे की थी जो टाटानगर उसी दिन आठ बजे रात्रि तक पहुंचा देती थी। किन्तु स्टेशन पर आने से पता चला कि गाड़ी छरूघंटा देर से चल रही है। इसलिए दोपहर का खाना बहन के घर खाकर ही निकलने में भला समझा। क्योंकि बहन के घर से स्टेशन मात्र पांच मिनट के दूरी पर स्थित है।
गाड़ी शाम को आई। जो ट्रेन आठ बजे रात को पहुंचने वाली थी अब वह अगले दिन सुबह पहूंचाएगी। इसलिए स्टेशन पर ही नाश्ता के रूप में समोसा कचौड़ी वगैरह ले लिया था। हम तीन लोग थे। मैं मेरी पत्नी शिवानी और लड़का अमोल।
(क्रमश:)