भारत पर कूटनीतिक हमले के लिए चीन बना रहा है ब्रह्मपुत्र में सुपर डैम
अब यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है कि चीन यारलुंग त्संगपो नदी जो अरुणाचल प्रदेश में आकर ब्रह्मपुत्र नदी बन जाती है पर विशाल हाइड्रोइलेक्ट्रिक बांध बनाने जा रहा है। ब्रह्मपुत्र संसार की सबसे बड़ी नदियों में से एक है। प्रस्तावित बांध की अनुमानित लागत 137 बिलियन डॉलर है और इससे 60 गीगावाट्स बिजली का उत्पादन होगा। इसका अर्थ यह है कि यह थ्री गोर्जेस डैम (चीन की यांग्तज़ी नदी पर बना यह बांध 22,250 मेगावाट बिजली का उत्पादन करता है जोकि दुनिया में सबसे ज्यादा है) से भी ढाई गुना से अधिक बड़ा होगा। इस बांध का भारत पर बहुत गहरा असर पड़ेगा। सवाल है चीन यह बांध क्यों बना रहा है? साथ ही यह भी कि इस संदर्भ में भारत को क्या करना चाहिए? यह बांध बीजिंग के विशाल ऊर्जा सुरक्षा लक्ष्यों का हिस्सा है या सीमा वार्ता पर नई दिल्ली को बैकफुट पर करने की गहरी साज़िश? प्रश्न यह भी है कि उत्तरपूर्व में नई दिल्ली को अब जल प्रबंधन के संदर्भ में क्या करना चाहिए?
चीन द्वारा इस बांध को बनाने की योजना आश्चर्य के रूप में नहीं आयी है। जब मार्च 2021 में चीन ने अपनी 14वीं पंचवर्षीय योजना (2021-2025) गठित की थी, जिसमें उसने क्लाइमेट व ऊर्जा सुरक्षा के महत्वकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किये थे, तब उसने स्पष्ट रूप से यारलुंग के निचले हिस्सों में हाइड्रोपॉवर विकास को वरीयता दी थी। इसलिए अगर भारत में आज इस बात को लेकर आश्चर्य हो रहा है तो इसका मतलब है कि चीन के दीर्घकालीन इरादों को गंभीरता से नहीं लिया गया है। तथ्य यह है कि यारलुंग को लेकर चीन की महत्वकांक्षी योजनाएं बहुत पुरानी हैं। अपनी 12वीं पंचवर्षीय योजना (2011-2015) में बीजिंग ने यारलुंग के ऊपरी व बीच के हिस्सों में अनेक बांध बनाना प्रस्तावित किया था, जिसमें डागू डैम (640 मेगावाट), ज़न्गामू डैम (510 मेगावाट) व जीअचा डैम (320 मेगावाट) के अतिरिक्त एक अन्य ज़ेक्सु डैम भी था। ज़न्गामू डैम चल रहा है, जबकि तीन अन्य डैम रुके हुए हैं क्योंकि उनमें तकनीकी व लॉजिस्टिकल चुनौतियां बाधा बनी हुई हैं। ऊबड़ खाबड़ ज़मीन, तीव्र ढलान वाले पहाड़ और गहरी खाइयां ‘सुपर डैम’ के निर्माण में बहुत बड़ी चुनौती हैं। इसलिए यह संभव है कि चीन की बड़ी घोषणा वास्तविक निर्माण की बजाय भारत को परेशान करने के लिए हो।
चीन के लिए यह रणनीति लाभकारी हो सकती है कि वह भारत के साथ सीमा मुद्दों को उन नदियों से जोड़े जो दोनों देशों में बहती हैं। वह उम्मीद कर सकता है कि इस तरह दबाव डालने से भारत सीमा मुद्दों पर उसकी बात मानने के लिए तैयार हो जायेगा। सुपर डैम की घोषणा का समय मात्र संयोग नहीं है। इस घोषणा के साथ ही चीन ने यह भी ज़ाहिर किया कि उसने दो नई काउंटी भी बनायी हैं, जिनमें विवादित रूप से लदाख के भी कुछ हिस्सों को शामिल किया गया है, जिसके बारे में भारत ने सख्ती से कहा है कि वह ‘अवैध कब्जे’ में हैं। दरअसल, सबसे अधिक डरावनी बात यह है कि तिब्बत में भूकम्प के खतरे हमेशा बने रहते हैं। केवल 2024 में तिब्बत में 100 से अधिक भूकम्प आये जिनकी तीव्रता कम से कम 3.0 थी। अभी कुछ दिन पहले तिनगरी के निकट 6.5 तीव्रता का भयंकर भूकम्प आया जिसमें जान व माल का ज़बरदस्त नुकसान हुआ। मेडोग काउंटी जहां सुपर डैम बनाना प्रस्तावित है, वहां से तिनगरी लगभग 1,200 किमी के फासले पर है। क्या यह प्राकृतिक आपदाएं चीन की महत्वकांक्षी योजना को पटरी से उतार देंगी? नहीं। चीन सुपर डैम बनाने के लिए इन खतरों को अनदेखा कर देगा। उसकी अतीत की हरकतें बताती हैं कि वह प्रकृति की सम्प्रभुता की परवाह नहीं करता है। बीजिंग के लिए सीमाओं को पार करने वाली अन्य नदियों की तरह यारलुंग भी स्ट्रेटेजिक एसेट है।
भारत के साथ सीमा विवाद में यारलुंग नदी उसके लिए राजनीतिक हथियार बन गई है। इसलिए भारत को तैयार रहना चाहिए, भले ही चीन सुपर डैम बनाये या न बनाये। यह कहना फिज़ूल है कि चीन का बांध अवैध है और चोरी छुपे बनाया जा रहा है। यह कहने से सिर्फ पब्लिक नैरेटिव ही बनता है कि चीन गैर-जिम्मेदार और आक्रमक देश है। लेकिन यह निश्चितरूप से भारत का मुख्य उद्देश्य नहीं हो सकता। यह सही है कि चीन की भौगोलिक ऊपरी तटवर्ती वास्तविकता को नहीं बदला जा सकता, लेकिन भारत की निचली तटवर्ती स्थिति भी आवश्यक रूप से पूर्णत: हानिकारक नहीं है।
ब्रह्मपुत्र पर स्टोरेज सुविधाएं बनाना आवश्यक है, लेकिन इस वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ जिसमें जगह के चयन, भूकम्प की आशंका, इकोलॉजी और स्थानीय ज़रूरतों का ख्याल रखा गया हो। अपनी ही भूमि पर अपस्ट्रीम (नदी के ऊपर) व डाउनस्ट्रीम (नदी के नीचे) जैसे बहाव बनाना भारत के लिए हानिकारक होंगे। तीसरा यह कि ब्रह्मपुत्र बेसिन में अंदरूनी नौपरिवहन को अधिक बढ़ाना होगा। अंदरूनी जलमार्गों पर अधिक निवेश करना होगा ताकि ब्रह्मपुत्र नेशनल वाटरवे 2 आर्थिक गलियारे के रूप में काम करे और उसका सीधा सम्पर्क चिट्टागोंग (बांग्लादेश) और हल्दिया (पश्चिम बंगाल) की बंदरगाहों से हो जाये। इससे दक्षिणपूर्व एशिया के देशों में व्यापार प्रोत्साहित होगा।
चीन के साथ जल समझौता होना मुश्किल ही लगता है। ऐसे में भारत यह कर सकता है कि पानी की मात्रा से आगे बढ़कर अपना वाटर एजेंडा तैयार करे और सीमा पर क्लाइमेट चेंज, आर्दभूमि व जैवविविधता की विस्तृत चिंताओं को सामने लेकर आये। इन पर दोनों भारत व चीन ने संबंधित कन्वेंशनों में हस्ताक्षर किये हुए हैं। इससे उन एमओयू में ताज़ा पहलू आ जायेगा जो 2002 से मौजूद हैं, जिनमें विशेषज्ञ स्तर की व्यवस्था भी शामिल है जो पारीछु नदी की घटना के बाद स्थापित की गई थी। ग्लेशियर झील के फटने से इस नदी में बाढ़ आ गई थी और हिमाचल प्रदेश में ज़बरदस्त नुकसान हुआ था। ब्रह्मपुत्र के संदर्भ में भारत को अपनी स्ट्रेटेजिक व नीतिगत पहल को बहुत ध्यानपूर्वक संतुलित रखना चाहिए। उसे चीन के साथ ‘जल वार्ता’ करनी चाहिए और साथ ही और भविष्य में पानी की उपलब्धता, बहाव पैटर्न और क्लाइमेट में हो रहे परिवर्तनों पर भी ध्यान देना चाहिए।-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर