तीन पुस्तकें, तीन रंग
मेरी कालम नवीसी मुझे देश-प्रदेश के लेखकों के साथ जोड़े रखती है। मेरे आंगन में इनती पुस्तकें आती हैं कि मैं पढ़ भी नहीं सकता। वैसे भी मैं अच्छा पाठक नहीं। मैंने तो अंग्रेज़ी की एम.ए. की परीक्षा देते समय पाठ्यक्रम के लिए लाज़िमी नावल भी स्वयं नहीं पढ़े थे। कम पृष्ठों वाले पढ़ लिए थे और बड़े नावलों की कहानी अपने सहपाठी मनमोहन सिंह से सुन कर परीक्षा में आया था। यह बात मैं अपने कालम में भी कई बार लिख चुका हूं। अब तो मेरी आयु तथा आंखों की रौशनी भी साथ नहीं दे रही। फिर भी मित्र प्यारे तथा उनके जानकार लेखकों की पुस्तकें हाथ लगती रहती हैं। उनमें से तीन का ज़िक्र करना चाहूंगा। एक प्रोफैसर कंवलप्रीत कौर रचित Bravehearts of Punjab (पंजाब दे सूरमे) है, जो अंग्रेजी भाषा में लिखी है। दूसरी ‘ज़ंबील-ए-रंग’ है। मलकीत सिंह मछाणा का उर्र्र्दू कहानी संग्रह और तीसरी सुरिन्दर सिंह रचित ‘खूनदान-अंगदान’ पंजाबी में। ये लेखक एक-दूसरे के जानकार नहीं। यदि कहीं इकट्ठे भी हो जाएं तो इन तीनों में साझ की कोई कड़ी नहीं। यदि कंवलप्रीत कौर चंडीगढ़ के कालेज में राजनीति की प्रोफैसर हैं तो मलकीत सिंह मछाणा जंगल के तौर पर जाने जाते बठिंडा क्षेत्र के गांव मछाणा के निवासी। वह बिजली विभाग से सेवा-मुक्त एस.डी.ओ. हैं। सुरिन्दर सिंह पंजाब स्टेट ब्लड ट्रांसफ्यूज़न कौंसिल में अस्सिटैंट डायरैक्टर हैं। तीनों का कार्य क्षेत्र भी अलग-अलग है और पुस्तकों का रंग भी अपना-अपना। इस विकोलितरे मेल-सुमेल को दिवाली का गुलदस्ता भी कहा जा सकता है। रंगों की टोकरी भी, जिसे मलकीत सिंह ‘ज़ंबील-ए-रंग’ कहते हैं।
पंजाब दे सूरमे
कंवलप्रीत कौर की अंग्रेजी की पुस्तक Bravehearts of Punjab भारत सरकार द्वारा परमवीर चक्र, अशोक चक्र, महावीर चक्र तथा कीर्ति चक्र से सम्मानित शख्सियतों का विवरण देने के अतिरिक्त प्रत्येक योद्धा की मनोभावना भी पेश करती है। उसमें कुल 121 परोपकारियों एवं सूरमाओं की उत्साह भरपूर जानकारी दर्ज है। हर एक का जीवन ब्यौरा ही नहीं, देश की रक्षा एवं विकास के लिए दी गई कुर्बानी का विवरण भी है। तीन दिसम्बर, 2023 को मिलिट्री साहित्य उत्सव चंडीगढ़ में सुखना झील वाले समारोह में लोकार्पित हुई इस पुस्तक का खुशवंत सिंह साहित्य उत्सव कसौली में भी विशेष तौर पर ज़िक्र हुआ। जब इसकी लेखिका अपने विद्यार्थियों को नई दिल्ली वाला नया संसद भवन दिखाने गई तो वहां की लायब्रेरी इन्चार्ज मैडम सिमी मुडगिल ने भी इसे प्यार से स्वीकार किया। उन्होंने लेखिका के विद्यार्थियों को छत पर दर्शायी गई तारा मंडल की वह स्थिति भी उत्साह से दिखाई जो स्वतंत्र देश का संविधान अपनाते समय सात दशक पहले के दिन आकाश में थी।
कंवलप्रीत के पिता सैन्य अधिकारी रह चुके होने के कारण उन्हेें इस विषय के साथ विशेष तौर पर लगाव था और उन्होंने इसकी पेशकारी में लैफ्टिनैंट जनरल डाक्टर जे.एस. चीमा से विशेष सहायता के लिए लेखिका अंग्रेज़ी भाषा में कविता लिखती हैं और उन्होंने हर शख्सियत की तस्वीर के बिल्कुल समान उसकी मनोभावना को काविक रूप में भी कलमबद्ध किया है। इस अनूठी पेशकारी की ओर पाठकों का विशेष ध्यान जाना स्वाभाविक है। यह रचना आने वाली नस्लों के लिए प्रकाश वाहक का कार्य करेगी। विशेषकर उनके लिए जो देश की रक्षा तथा इसके सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास को आगे बढ़ता देखने के इच्छुक हैं।
ज़ंबील-ए-रंग
उर्दू के पाठकों के लिए मलकीत सिंह मछाणा का उर्दू कहानी संग्रह खुशी भी दे सकता है और अचम्भा भी। उस भाषा में होने के कारण जो अंतिम सांस ले रही है। मलकीत सिंह की रचनाकारी में मंटो, बेदी या कृष्ण चन्द्र जैसी रचनाकारी चाहे न हो परन्तु उर्दू का रंग प्रमुख है। वह भी गहरा एवं शुद्ध। यह बात भी नोट करने वाली है कि उन्होंने उर्दू समाचार एवं कार्यक्रम सुन-सुन ग्रहण की है।
उल उमदी अफसाना निगारी में सरलता, सहज तथा सुहज है। किसी भी घटना को अचानक ही शुरू करके अचम्भे वाला मोड़ देना उनका अंदाज़ भी है और सलीका भी कि ऐसे गांव में जन्मे जिसका डाकखाना भी खास नहीं, उर्दू की इतनी मुहारत का स्वामी हो जाना कोई छोटी बात नहीं।
उनकी कहानियों के पात्र ‘ज़ंबील-ए-रंग’ के राजू जैसे शरारती भी हैं और मलकीत रोड बठिंडा वाले माता-पिता के बेहद प्यारे भी जिन्हें माता-पिता अच्छी रोज़ी-रोटी की तलाश में बाहर भेजने को मजबूर हैं। लेखक ‘अजीत रोड बठिंडा’ नामक अफसाने के माध्यम से मौजूदा समाज एवं संस्कृति को अंग्रेज़ों के शासन से भी घटिया दर्शाता है। ऐसे अंदाज़ में कि जी.सी. विपन यूनिवर्सिटी सियालकोट की शगुफ्ता फिरदौस, मौलाना आज़ाद नैशनल उर्दू यूनिवर्सिटी के फिरोज़ आलम, दिल्ली के प्रसिद्ध विद्वान गज़नफर तथा महाराष्ट्र के डा. नूरअला मीन को ही प्रभावित नहीं किया, पंजाब के भाषा विभाग को भी प्रभावित किया है, जिसने लेखक को राजिन्दर सिंह बेदी 2024 पुरस्कार से सम्मानित किया है। वह पंजाब के वर्तमान समाज एवं संस्कृति का कैसा भी नक्शा पेश करें, उर्दू के पाठक उनका निम्नलिखित शे’अर से स्वागत करेंगे।
उर्दू का मुसाफर है सही पहचान है सिकी
जिस राह से गुज़रता है सलीका छोड़ जाता है
जीते-जी रक्तदान : जाते-जाते शरीरदान
रक्तदान तथा अंगदान का महत्व दर्शाने वाली सुरिन्दर सिंह की पुस्तक रक्तदान संबंधी प्रचलित डर तथा शंके ही निवृत्त नहीं करती, भारत में रक्त चढ़ाने के 1925 से चले आ रहे ढंग-तरीकों पर भी प्रकाश डालती है। भारत की कुल आबादी इतनी है कि इसके लिए प्रत्येक वर्ष एक करोड़ पचास लाख रक्त की बोतलें, एक लाख आंखें तथा दस हज़ार दिलों की ज़रूरत होती है। प्रत्येक जीवित व्यक्ति रक्त, रक्त के तत्व, बोन मैरे, गुर्दे, जिगर, पैनक्रीआज़, फेफड़े, आंतों, त्वचा, स्टैम सैल या पूरा का पूरा शरीर दान कर सकता है। ऐसा करके दानी का कुछ नहीं बिगड़ता, परन्तु ज़रूरतमंद मरीज़ को जीवन मिल जाता है। लेखक ने इस रचना में इतिहास मिथिहास के पक्ष से ही नहीं रक्त तथा रक्त से संबंधित, बिमारियों का ज़िक्र करके, रक्तदान के मापदंड तथा लाभ भी बताए हैं और रक्त पर निर्भर सभी अंगों के महत्व को भी खूब नितार कर पेश किया है। बोन मैरे, जिगर तथा पैनक्रीआज़ ट्रांसप्लांट सहित।
यह पुस्तक मानव की रगों में बह रहे रक्त को प्रकृति का अद्वितीय तोहफा दर्शा कर शरीरिक आप्रेशन या दुर्घटना के समय इसकी ज़रूरत एवं महत्व को ऐसी दलीलों के माध्यम से पेश करती है कि कोई भी महिला या पुरुष रक्तदान करके गर्व महसूस करेगा। जहां तक इस पुस्तक के लेखक का संबंध है, उसने आम आदमी को इस कार्य के लिए प्रेरित करने हेतु स्वर्गीय अजमेर सिंह ओलम्पियन तथा कहानीकार संतोख सिंह धीर को इसलिए महान शख्सियतें कहा है कि उन्होंने अपने शरीर की वसीहत अपने जीवन काल में ही पी.जी.आई. चंडीगढ़ को दान संबंधी लिख छोड़ी थी। उस पर क्रियान्वयन भी हुआ और इसकी चर्चा भी। यदि मिज़र्ा ़गालिब के जीते-जी रक्त दान की सुविधा होती तो उन्होंने अंतिका में दिया गया शे’अर कभी नहीं लिखना था। जीते-जी रक्तदान तथा जाते-जाते शरीरदान करें एवं खुशी प्राप्त करें।
अंतिका
(मिज़र्ा ़गालिब)
हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों ना ़गरक-ए-दरिया
ना कभी जनाज़ा उठता, ना कहीं मज़ार होता।