अमरीका-चीन व्यापार समझौते का भारत पर पड़ेगा प्रतिकूल प्रभाव
अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने चीन के साथ व्यापार और टैरिफ पर अपनी सौदे की कला की घोषणा कर हलचल मचा दी जबकि चीन ने इसे बहुत प्रचारित नहीं करने का विकल्प चुना क्योंकि वार्ता में अमरीका में आयातित सभी चीनी वस्तुओं के लिए 55 प्रतिशत का एक समान टैरिफ तय हुआ, जो व्यापार युद्ध में एशियाई दिग्गज पर लगाये गये135 प्रतिशत टैरिफ से बहुत कम है, और उस समय चीन ने अमरीका पर पारस्परिक 125 प्रतिशत टैरिफ लगाया था।
जेनेवा में पहली सफल वार्ता के बाद लंदन में चीनी उप प्रधानमंत्री हाय ली फंग और अमरीकी वित्त सचिव स्कॉट बेसेंट, वाणिज्य सचिव हॉवर्ड लुटनिक और यूएसटीआर जैमीसनग्रीर के बीच अनुवर्ती वार्ता के परिणामस्वरूप यह सौदा हुआ। दोनों में से कोई भी देश व्यापार युद्ध नहीं झेल सकता क्योंकि अमरीका बहुत से उत्पादों परिष्कृत प्रौद्योगिकियों के लिए चीन पर निर्भर है और टैरिफ युद्ध शुरू होने के बाद से इसका व्यापार एक तिहाई घट गया है।
लेकिन इस सौदे में सबसे बड़ी सफलता अमरीका की दुर्लभ खनिज और चुम्बकों तक पहुंच है जबकि चीन के लिए सेमीकंडक्टर तक सशर्त पहुंच और चीनी छात्रों के लिए वीज़ा विनियमन है, जो यद्यपि जांच और नियंत्रण के अधीन होंगे ताकि उन्हें रक्षा और जासूसी सॉफ्टवेयर में न बदला जाये। ट्रम्प ने इसे कैसे अंजाम दिया यह एक लाख टके का सवाल है, लेकिन तथ्य यह है कि उन्होंने ऐसा किया। इससे अमरीकी आयातकों को बहुत लाभ होगा क्योंकि विभिन्न वस्तुओं की एक बड़ी मात्रा तैयार और मध्यवर्ती उत्पादों के रूप में चीन से प्राप्त की जाती है।
यहां बड़ी तस्वीर भारत को होने वाले नुकसान की है। सबसे पहले इस बात को लेकर बहुत अनिश्चितता है कि क्या एप्पल आईफोन के लिए अपनी विनिर्माण सुविधाएं भारत में स्थानांतरित करेगा, जिसकी घोषणा इसके सीईओ टिम कुक ने तब की थी जब चीन पर टैरिफ उच्च सीमा पर पहुंच गये थे, लेकिन अब तस्वीर नाटकीय रूप से बदल गयी है। जैसे ही भारत ने दुनिया का कारखाना बनने के अपने सपने की दिशा में प्रगति की झलक दिखायी, वाशिंगटन और बीजिंग ने एक व्यापार ‘रीसेट’ की घोषणा की, जो चीन के साथ प्रतिस्पर्धा में वैश्विक विनिर्माण केंद्र के रूप में उभरने की दिल्ली की महत्वाकांक्षाओं को पटरी से उतार सकता है।
अमरीका-चीन समझौते से संभव है कि चीन से भारत की ओर जाने वाला विनिर्माण निवेश या तो ‘ठहर’ सकता है या ‘वापस लौट सकता है’, दिल्ली स्थित थिंक टैंक ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इंस्टीट्यूट (जीटीआरआई) के अजय श्रीवास्तव का ऐसा मानना है।
भारत की कम लागत वाली असेंबली लाइनें बच सकती हैं, लेकिन मूल्य-वर्धित विकास खतरे में है। भावना में यह बदलाव पिछले महीने दिल्ली में उस उत्साह से बिल्कुल अलग है, जब एप्पल ने संकेत दिया था कि वह आईफोन के अपने अधिकांश उत्पादन को चीन से भारत में स्थानांतरित कर रहा है। ऐसा अभी भी हो सकता है, भले ही अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने खुलासा किया हो कि उन्होंने एप्पल के सीईओ टिम कुक से कहा था कि वे भारत में निर्माण न करें क्योंकि यह दुनिया में सबसे अधिक टैरिफ वाले देशों में से एक है।
कुछ विश्लेषकों का मानना है कि बीजिंग और वाशिंगटन के बीच तथाकथित व्यापार ‘रीसेट’ के बावजूद चीन और अमरीका के बीच एक बड़ा रणनीतिक अलगाव लंबे समय में भारत को लाभान्वित करना जारी रखेगा।
नरेंद्र मोदी की सरकार वर्षों की संरक्षणवादी नीतियों के बाद विदेशी कंपनियों के लिए अपने दरवाज़े खोलने के लिए अधिक इच्छुक है, जो अनुकूल परिणाम दे सकती है। भारत और अमरीका एक व्यापार समझौते पर भी बातचीत कर रहे हैं, जो एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था को तथाकथित ‘चीन पलायन’ से लाभ उठाने के लिए एक अच्छी स्थिति में ला सकता है, क्योंकि वैश्विक फ र्म आपूर्ति श्रृंखलाओं में विविधता लाने के लिए परिचालन चीन से अन्यत्र स्थानांतरित कर रही हैं।
भारत ने हाल ही में ब्रिटेन के साथ एक व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं, जिसमें व्हिस्की और ऑटोमोबाइल जैसे संरक्षित क्षेत्रों में शुल्क में भारी कटौती की गयी है। यह उन रियायतों की एक झलक दिखाता है जो भारत-अमरीका व्यापार वार्ता में ट्रम्प को दे सकता है। अमरीका से आयातित वस्तुओं पर एक समान 10 प्रतिशत टैरिफ की बात चल रही है।
अगर भारत को मौजूदा अमरीकी-चीन व्यापार स्थिति का लाभ उठाना है, तो उसे किसी भी टैरिफ आर्बिट्रेज को गंभीर ईज-ऑफ डूइंग-बिजनेस सुधारों के साथ पूरक करने की ज़रूरत है। भारत के कठिन कारोबारी माहौल और व्यापार करने में कठिनाइयों ने लंबे समय से विदेशी निवेशकों को निराश किया है और भारत के विनिर्माण विकास को रोक दिया है, जिसका सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में हिस्सा दो दशकों से लगभग 15 प्रतिशत पर अटका हुआ है।
मोदी सरकार के उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना जैसे प्रयासों ने इस आंकड़े को बढ़ाने में केवल सीमित सफलता ही दी है। सरकार के थिंक टैंक, नीति आयोग ने चीन से निवेश आकर्षित करने में भारत की सीमित सफलता को स्वीकार किया है। इसने नोट किया कि सस्ते श्रम, सरल कर कानून, कम टैरिफ और सक्रिय मुक्त व्यापार समझौतों जैसे कारकों ने वियतनाम, थाईलैंड, कम्बोडिया और मलेशिया जैसे देशों को निर्यात बढ़ाने में मदद की जबकि भारत पीछे रह गया। व्यापार विशेषज्ञों के अनुसार एक और बड़ी चिंता यह है कि भारत आईफोन जैसे इलेक्ट्रॉनिक्स में इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल और घटकों के लिए चीन पर निर्भर है, जिससे आपूर्ति श्रृंखला में होने वाले बदलावों का पूरा लाभ उठाने की दिल्ली की क्षमता सीमित हो जाती है। (संवाद)