लघु कथाएं
पत्र-पत्रिकाएं !
लोक को समाचारपत्र पढ़ने की आदत अपने पिता जी से विरासत में मिली है। सुबह चाय पीने के बाद जब तक समाचार-पत्र पर सरसरी दृष्टि न डाले, चैन नहीं पड़ता। पत्रिकाएं पढ़ने का भी शौक पाल रखा है। आज छुट्टी का दिन है। पत्नी बच्चों के साथ मायके गई हुई है। नई-पुरानी पत्रिकाओं को उलटते-पलटते और अलग-अलग करने में तल्लीन आलोक के पास उनके घनिष्ठ, कारोबारी मित्र चतुरमल आ धमके। बिखरी पड़ी हुई पत्रिकाओं पर एक सरसरी दृष्टि दौड़ाई। मन में हिसाब जोड़ने लगे।
चतुरमल ने हालचाल पूछने के बदले, आलोक से सीधे सवाल किया, ‘तुम तो किताबी कीड़े बनते जा रहे हो। और छात्रों की तरह कॉलेज में पढ़ाई के दौरान लाइब्रेरी से नाममात्र मासिक शुल्क पर किताबें लाकर पढ़ते थे। मैं भी कभी-कभार लाकर पड़ता था। उसमें कुछ गलत नहीं था। अब नियमित रूप से समाचार-पत्र खरीदकर पढ़ते हो, यहां तक तो ठीक है। साथ में पत्रिकाएं भी? मुझे तो यह समय और धन की बर्बादी लगती है।
आलोक ने बुरा मानने की बजाये मुस्कराकर जवाब देते कहा, ‘आज भी तुम्हारे जैसे कई लोग पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ना फिजूलखर्ची समझते हैं। वे झूठी शान-शौकत, व्यर्थ के रीति-रिवाजों, आडंबरों पर हज़ारों रुपये खर्च करना पसंद करते हैं।
यही नहीं, कई लोग मदिरा सेवन पर हर महीने हज़ारों लुटाते हैं। इससे उन्हें शारीरिक, मानसिक, आत्मिक कौन सी तृप्ति मिलती है, वे ही जानें। पत्रिकाओं पर मैं हर महीने हज़ार रुपए तक भी खर्च नहीं करता। मैं लेखकों, प्रकाशकों को उत्साहित, प्रेरित करने के लिए पत्रिकाएं खरीदता और पढ़ता हूं। अगर हम खरीदकर पढ़ना छोड़ दें तो संभव है पत्रिकाएं नाममात्र ही छपेंगी और बिकेंगी। पत्रिकाएं पढ़ने से मुझे आत्मसुख और आत्मसंतुष्टि मिलती है। इनके सामने रुपए मेरे लिए गौण चीज है। रोज़ाना शराब पीने वाले चतुरमल समझ गए कि आलोक ने बातों ही बातों में उसे आईना दिखा दिया है।
फटे कपड़ों वाले
कूल में फैंसी ड्रेस का मुकाबला चल रहा था। गेट पर चौकीदार के साथ वलंटीयर ड्यूटी पर थे। आमंत्रित लोगों के अलावा किसी को भी प्रोग्राम में शामिल होने की अनुमती नहीं थी। बच्चों के साथ उनके मां-बाप भी पहुंचे हुये थे। स्कूल के प्रिंसीपल के साथ मुख्यातिथि अध्यापक मापे संगठन के प्रधान श्री ज्ञानेश्वर शर्मा जी मंच पर विराजमान थे। मंच पर दिखाई जा रही एक आईटम में एक बच्चा मार्डन फैशन के थीम को लेकर ड्रेस पहन कर आया था। उसने घुटनों से फटी जीन और कंधों से फटी टी-शर्ट पहन रखी थी। तालीयां गूंज उठी थी। बच्चे टिप्पणी दे रहे थे, ‘छोटू तो एक दिन हीरो बनेगा।’
‘क्या तैयार हो कर आया है, कोई कमी न छोड़ी।’ यह आईटम प्रोग्राम की अंतिम पेशकश थी। मंच संचालक ने निर्णायकों को रिज़ल्ट अनाऊंस करने के लिये मंच पर आमंत्रित किया। एक निर्णायक क़ागज़ हाथ में संभालते हुये, माईक पर आया और रिज़ल्ट सुनाना शुरू किया। बच्चे और उनके माता-पिता रिज़ल्ट सुन कर बहुत खुश हो रहे थे। फटी जीन और फटी टी-शर्ट वाले फैशनेबल बच्चे को भी पहला प्राइज़ मिला था। बच्चे एक के बाद एक प्राइज़ लेते रहे। तब फटी जीन वाला बच्चा भी प्राइज़ लेने आया। उसके साथ उसके पिता श्री भी आए। उन्होंने भी घुटनों से फटी जीन पहन रखी थी। मंच पर अजीब स्थिति बन गई। मुख्यातिथि के साथ उसके पोत्र ने भी फटी जीन पहने हुई थी।बच्चों में घुसरमुसर हो रही थी, ‘मुख्यातिथि के पोत्र की जीन तो ब्रैंडेड है। अलग सी दिखती है। पांच हज़ार से कम की नहीं होगी।’
‘सभी के घुटने दिख रहे हैं।’ ‘ओ माई गौड़! अजीब ज़माना आ गया। पूरे कपड़े पहनने वाले प्रतियोगी पीछे रह गये और फटे कपड़े वाले ईनाम जीत गए।’ एक माता ने कहा। मुख्यातिथि के भाषण से फंक्शन समाप्त हो गया। बच्चे मां बाप के साथ घर जा रहे थे। स्कूल के गेट पर चौकीदार फटे कपड़े पहने एक बच्चे को पकड़े बैठा था। उसके सर पर वालों के अजीब गुच्छे थे। उस लड़के ने दीवार कूद कर प्रोग्राम में शामिल होने की कोशिश की थी। चौकीदार ने देख लिया तो उसे पकड़ लिया था। प्रोग्राम खत्म होते ही प्रिंसीपल ने गेट का चक्र लगाया। चौकीदार ने उस बच्चे को उनके सम्मुख पेश किया। बच्चे के देख कर प्रिंसीपल दंग रह गया कि पूरे फैंसी ड्रेस मुकाबले में कोई भी इस बच्चे के मुकाबले का नहीं था। प्रिंसीपल ने उस बच्चे से बस उसका नाम पूछा। कंटीन से मंगवा कर उसे खाने को स्नैकस और मीठाइयां दी गई। फिर उसे छोड़ दिया गया। प्रिंसीपल देर तक सोचता रहा, ‘काश! ऐसे बच्चों को भी आगे बढ़ने के मौके मिलते।’
-मो. 9780667686
दीपक और झालर संवाद
पावली की संध्या पर घर की बाहरी दीवारें रंग-बिरंगी चाइनीज़ झालरों से सजी हुई थीं। हर झालर अपनी चमक बिखेरते हुए मानो अंधकार को चुनौती दे रही थी। घर के द्वार पर कुछ मिट्टी के दीपक और मोमबत्तियां भी शांत भाव से जल रहे थे।
टिमटिमाती झालर ने दीपक और मोमबत्ती की ओर तिरछी नज़र डालते हुए तंज कसा, ‘स्मार्टफोन युग में लैंडलाइन भाई, कैसे हो? अब तो तुम लोग बीते ज़माने की चीज़ बन गए हो। मुझे देखो, आज तो मेरा ही जलवा है! बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं से लेकर छोटे-छोटे खपरैल मकानों तक, हर जगह मेरी ही रोशनी जगमगाती है।’
दीपक शांत भाव से उसकी बातें सुनता रहा। कुछ क्षण बाद मुस्कुराते हुए बोला, ‘सच कहा तुमने बहन। एक समय था जब अमीर से लेकर गरीब तक-ृमहलों से झोपड़ियों तक- सबको हम ही रोशन करते थे। अब तुम्हारी रोशनी हर घर तक पहुँचती है और लोग तुम्हारी जगमगाहट को पसंद भी करते हैं। पर एक बात बताना- बिजली न हो तो तुम्हारी क्या पहचान रह जाती है? बिना विद्युत के क्या तुम अंधकार से मुकाबला कर सकती हो? स्मार्टफोन युग की बहना, बिना बिजली के तुम्हारी स्थिति भी डेड हो चुके लैंडलाइन जैसी ही है।’
झालर थोड़ी सकपका गई। दीपक ने आगे कहा, ‘तुम्हारी चमक क्षणिक है, जबकि हमारी जगमगाहट शाश्वत। मंदिरों में दीपक और चर्चों में मोमबत्तियां ही जलती हैं, क्योंकि वहां रोशनी नहीं, श्रद्धा चाहिए।’
दीपक की बातें सुनकर झालर की लाइटें एक क्षण के लिए झिलमिलाईं, पर उसका गर्व कहीं खो गया।
रात गहराती रही, झालर की रोशनी टिमटिमाती रही और मिट्टी के दीपक की स्थिर लौ आत्मविश्वास के साथ उसकी जगमगाहट को चुनौती देती रही। दीपक की छोटी-सी लौ में जो तेज़ था, वह बिजली से नहीं, विश्वास से उपजा था।
-मो. 7765954969

