क्या डी.ए.पी. की कमी गेहूं उत्पादन को प्रभावित करेगी ?

धान के हुए नुकसान के कारण किसान गेहूं की अच्छी फसल और उत्पादन लेने के लिए उत्सुक हैं। उत्पादन बढ़ाने और अच्छी फसल लेने में मौसम की अहम भूमिका होती है। समय पर बोई जाने वाली गेहूं की किस्मों की बुवाई का उचित समय 1 नवम्बर से शुरू होता है, जो 20 नवम्बर तक चलता है। हालांकि किसान नवम्बर के अंत तक बुवाई करते रहते हैं। आलू, मटर और सब्ज़ियों की काश्त करने वाले उत्पादक तो दिसम्बर में भी फसल की बुवाई कर देते हैं। इस वर्ष तो कुछ अन्य उत्पादक भी गेहूं की बुवाई दिसम्बर तक करेंगे।
पंजाब में लगभग 35 लाख हेक्टेयर (3.5 मिलियन हेक्टेयर) रकबे पर गेहूं की काश्त की जाती है। कृषि एवं किसान कल्याण विभाग के निदेशक डॉ. जसवंत सिंह के अनुसार इस वर्ष भी यही लक्ष्य है। भारत में 19 राज्यों में 32 से 34 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में गेहूं की काश्त की जाती है, जिनमें पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान प्रमुख हैं। चीन के बाद भारत दूसरा सबसे बड़ा गेहूं उत्पादक देश है। पंजाब में सामान्य वर्षों में 170 से 180 लाख टन गेहूं का उत्पादन होता है। पंजाब कृषि एवं किसान कल्याण विभाग के अनुसार पंजाब के 20-25 प्रतिशत क्षेत्र पर गेहूं की बुवाई हो चुकी है। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पी.ए.यू.) लुधियाना और आई.ए.आर.आई. से सम्मानित प्रगतिशील किसान राजमोहन सिंह कालेका कहते हैं कि किसानों द्वारा अब तक बोये गए गेहूं का अंकुरण बहुत अच्छा रहा है। किसानों ने गेहूं के बड़े हिस्से की बुवाई ज़ीरो टिलेज तकनीक से की है। आई.सी.ए.आर., आई.ए.आर.आई. दिल्ली के गेहूं के मुख्य ब्रीडर और विशेषज्ञ डॉ. राजबीर यादव का कहना है कि ज़ीरो टिलेज तकनीक का उपयोग करने से भूमि की उर्वरता बढ़ती है, स्वास्थ्य बरकरार रहता है, समय की बचत होती है, पर्यावरण प्रदूषण कम होता है, गुल्ली डंडा की समस्या कम होती है और पानी की भी बचत होती है। लेकिन उनका कहना है कि लगातार तीन साल तक ज़ीरो टिलेज से फसल बोने के बाद ज़मीन की जुताई कर देनी चाहिए। हैप्पी सीडर से गेहूं की बुवाई करने पर खर्च भी कम आता है। पराली प्रबंधन एक्स-सीटू तकनीक से जिन्होंने इस वर्ष गेहूं बोनी चाही, उन्हें बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा। अवशेष एकत्र करने और ले जानी वाली मशीनों के मालिकों ने कई-कई दिन किसानों को परेशान किया। यहां तक कि अनेक स्थानों पर ज़मीन के नीचे सीलन भी जाती रही, जिसके बाद कुछ किसानों को रौणी करके गेहूं बोना पड़ा, जिससे देरी हुई और लागत बढ़ गई। देरी के कारण प्रति एकड़ उत्पादन भी प्रभावित होने की संभावना है। भू-वैज्ञानिकों का कहना है कि पराली प्रबंधन इन-सीटू तकनीक के उपयेग से भूमि की शक्ति बरकरार रहती है। पंजाब की भूमि जिसकी जैविक शक्ति नहीं बढ़ रही, के लिए इस तकनीक का उपयोग ज़मीन के स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद है। 
उत्पादन बढ़ाने में गेहूं की किस्म का चयन भी बहुत महत्वपूर्ण है। पटियाला के प्रसिद्ध उत्पादक और बीज विक्रेता डी.एस. एग्रो के पवन कुमार (टोनी) के अनुसार किसान इस वर्ष अपने स्वयं के संग्रहित गेहूं (गैर-प्रमाणित) का अधिकांश उपयोग बीज के रूप में कर रहे हैं, जिससे प्रति हेक्टेयर उत्पादन प्रभावित होगा। लुधियाना के प्रसिद्ध विक्रेता भट्टल बीज फार्म के रविंदरजीत सिंह भट्टल और बराड़ बीज फार्म के हरविंदर सिंह बराड़ भी इसकी पुष्टि करते हैं। राज्य भर में विक्रेताओं के पास अलग-अलग किस्मों के बीज भारी मात्रा में पड़े हैं। किसानों को पूरा उत्पादन लेने के लिए प्रमाणित किस्मों के तस्दीकशुदा बीज इस्तेमाल करने चाहिए। पी.ए.यू., आई.ए.आर.आई. और इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ व्हीट एंड बार्ले रिसर्च (आईआईडब्ल्यूबीआर) ने गेहूं की कई किस्में विकसित की हैं, जिनमें से अनेक किस्मों को अखिल भारतीय फसलों की किस्में एवं मानक प्रमाणन समिति द्वारा भी स्वीकार भी किया गया है। लेकिन किसानों में अधिक पी.ए.यू. द्वारा विकसित पी.बी.डब्ल्यू.-826 और पी.बी.डब्ल्यू.-872 (जिसकी पुष्टि प्रगतिशील किसान बलबीर सिंह जड़िया धर्मगढ़ भी करते हैं), आई.ए.आर.आई. द्वारा विकसित एच.डी.-3386 और आई.आई.डब्ल्यू.बी.आर. द्वारा जारी की गई डी.बी.डब्ल्यू.- 327 और डी.बी.डब्ल्यू.-372 किस्में भी किसानों की अधिक पसंदीदा बनी हैं। आई.आई.डब्ल्यू.बी.आर. के डॉ. अमित शर्मा के अनुसार डी.बी.डब्ल्यू.-327 किस्म की किसानों की ओर से भारी मांग है। आई.ए.आर.आई. के वैज्ञानिकों के अनुसार एच.डी.-3386 किस्म किसानों के बीच काफी प्रचलित हुई है। 
बढ़िया उत्पादन के लिए ज़मीन में खादों का उचित इस्तेमाल करना चाहिए। पी.ए.यू. के कुलपति डॉ. सतबीर सिंह गोसल के अनुसार किसानों को ज़मीन में (यदि जांच नहीं करवाई हो) 55 किलो डीएपी या 155 किलो सुपर फॉस्फेट और 110 किलो यूरिया प्रति एकड़ डालना ज़रूरी है। लेकिन डी.ए.पी. की कमी के कारण ज्यादातर किसानों को यह मिल नहीं रही। क्या इससे उत्पादन प्रभावित होगा? पंजाब एग्रो-इनपुट्स डीलर्स एसोसिएशन के उपाध्यक्ष धर्म बंसल के अनुसार किसानों ने कई स्थानों पर डी.ए.पी. की कमी पूरी करने हेतु बुवाई के लिए ट्रिपल सुपर फॉस्फेट (टीएसपी), एन.पी.एस. 20:20:013, एन.पी.के. 16:16:16 और 12:32:16 जैसे कम्पलैक्स उर्वरक का उपयोग करके डी.ए.पी. की कमी पूरी की है। चाहे कुछ किसानों का कहना था कि इन कम्पलैक्स खादों के नतीजे डी.ए.पी. के समान नहीं। दूसरी ओर डायरेक्टर कृषि तथा किसान कल्याण विभाग डा. जसवंत सिंह का कहना है कि डी.ए.पी. की राज्य के किसानों के लिए कोई कमी नहीं है। वैज्ञानिकों के अनुसार किसानों को पूरा उत्पादन लेने के लिए बीज को संशोधित करके बोना चाहिए, जिसके लिए प्रवैक्स/इलेक्ट्रॉन (यू.पी.एल.), विटावैक्स और पी.ए.यू. द्वारा सिफारिश की गईं अन्य दवाइयों में से किसी एक के साथ बुवाई से पहले बीजों को संशोधित कर लेना चाहिए। गुल्ली डंडा ऐसा नदीन है, जो कई जगह उपज को 40 प्रतिशत से भी अधिक तक कम कर देता है। इसलिए दोस्तो, इस नदीन को खत्म करने के लिए स्परूस का इस्तेमाल करना हो तो इसका छिड़काव बुवाई के 72 घंटे के भीतर कर देना चाहिए ताकि इस घोल का छिड़काव गुल्ली डंडा को नष्ट करने में सफल रहे।

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