बदलते ज़माने का नया शब्द कोष
विजयी भव। लगता है, यह आशीर्वाद एक बहुत छोटी-सी श्रेणी के लोगों के लिए आरक्षित होकर रह गया है। नहीं तो देश के करोड़ों विस्तारित नेत्रों वाले लोग सदा पराजित हो जाने का सत्य झेलते हुए सस्ते राशन की दुकानों के बाहर कतार लगाये क्यों खड़े रहते? इस कतार को बताया जाता है कि यही उनके लिए सबसे बड़ी जीत है, और उनके द्वारा आत्महत्या करके अपने आपको खत्म न कर सकने की गारण्टी। यह गारण्टी पहले बरस दो बरस की अवधि में बढ़ाई जाती थी, इस बार इकट्ठे पांच साल के लिए बढ़ा दी गई है, और कुर्सियों पर धन्ना सेठों, या द़ागी लोगों ने अपनी सफलता का बाजा बजा लिया है।
कहते हैं, इस समय दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं, जो एकमुश्त अस्सी करोड़ लोगों को सस्ते गेहूं की गारण्टी देकर उन्हें यथास्थितिवाद की धुन पर सफल नृत्य का संदेश दे।
इस देश में पूरा कारोबार या प्रशासन गारण्टियों पर चलता है। सुप्रीम कोर्ट इन अनुकम्पाओं को तत्काल बन्द कर उत्पादन निवेश की प्रेरणा देता है, लेकिन बड़े बूढ़ों से भरा यह देश इस हुक्म को सदा उस कूड़े के ढेर पर बैठा पाता है जहां उन्होंने कभी अंग्रेज़ी शासन की नींव उखाड़ी थी, लेकिन अब ललमुंहे अंग्रेज़ ही उनके पीर पैगम्बर हैं। इसलिए कोई तनाव न लीजिये। आप हर ऋण अपना आखिरी ऋण मान कर चलिये, और रात भर के लिए नज़दीकी और दूर के रिश्तों का मातम मनाते हुए नैतिकता का जनाज़ा निकालिये।
कुछ बातें यहां चलन से बाहर हो गई हैं। जैसे इस माहौल में भी ईमानदार बना रहने का हठ रखना। दल प्रपंच से दूर रहना, और अपना उल्लू साधने के लिए चाणक्य की ‘साम दाम दण्ड भेद’ नीति को भी शर्मिन्दा कर देना।
ज़माना तेज़ी से बदल गया है, और इसकी धूल भी देश का आम आदमी फांक नहीं सकता। मसलन इस देश की अस्सी प्रतिशत जनता का इस बात से कोई संबंध नहीं कि आज सोना एक लाख पच्चीस हज़ार रुपये प्रति दस ग्राम से ऊपर चला गया है। उसके पास तो चांदी का पानी चढ़ा पीतल का छल्ला भी नहीं। इसका कोई मतलब नहीं कि आज देश का उच्च मध्य वर्ग सस्ते नहीं, महंगे फ्लैट खरीद रहा है, या छोटी नहीं, बड़ी गाड़ियों की खरीद के पीछे भाग रहा है। उनका मतलब इतना है कि अगर हो सके तो उनके फुटपाथ की जगह को अतिक्रमण कह कर उसे फुटपाथ निकाला न दे दिया जाये, और जिस खैराती स्कूल में उनका बच्चा पढ़ता है, वहां एक ही अध्यापक पूरे स्कूल की पांच कक्षाओं को एक साथ न पढ़ाये।
उसे नेताओं के भाषणों से पता चलता है कि देश बड़ी तरक्की कर गया है। ग्यारह साल पहले अगर वह दुनिया की महा आर्थिक शक्तियों की तुलना में कहीं भी नहीं था, आज वह पांचवीं या चौथी बड़ी आर्थिक महाशक्ति बन गया है। तीसरी बड़ी महाशक्ति बन जाने का सपना उसके द्वार पर दस्तक दे रहा है। अब इस देश में आज़ादी की महाशताब्दी मनाई जाएगी, तो देश में तेज विकास की जादू की छड़ी चलेगी, और हमारा देश हो सकता है दुनिया की शीर्ष आर्थिक महाशक्ति बन जाये, लेकिन यह कैसी महाशक्ति? आम आदमी अपनी जेब टटोल कर सोचता है। कल भी वह फटी हुई थी, आज भी वह फटी देखता है। उसका जीवन बदलने की कोई गुंजाइश पैदा नहीं हुई। धड़धड़ाती हुई विकास की रेल उसके पुल के ऊपर से होकर गुज़र गई, लेकिन वह पुल न जाने कितनी देर तक थर्राता रहा, और अपने कायाकल्प का इंतज़ार करता रहा। उस कायाकल्प का इंतज़ार जिसकी घोषणा बहुत पहले नेता जी ने कर दी थी।
अधबनी सड़कें और टूटे हुए पुल आज भी उसकी नियति हैं। उसके लिए स्मार्ट शहरों की घोषणा हुई थी, जिसे जगह बेजगह कूड़े के डम्पों से भर दिया गया। ऐसा कूड़ा जिसे उठाने के लिए नगर निगम के प्रशासकों को भी चिरौरी करनी पड़ती है। अब इनकी हुक्म अदूली के लिए स्वच्छता के पैगम्बरों की बटालियनें लामबन्द हो चुकी हैं। पहले नारा लगता था, हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है। अब इन आदेशों के विरुद्ध आवाज़ उठती है कि उनकी गाड़ियों में पैट्रोल नहीं, या पहले उनकी मांगें पूरी करो, फिर काम होगा।
ये मांगें भी सुरसा की आंत की तरह लम्बी होती जाती हैं, और देखते ही देखते स्मार्ट शहर का दर्जा अनस्मार्ट हो जाता है। वैसे पिछले दिनों यह गम्भीर चर्चा होती रही, कि क्या इन शहरों के स्मार्ट और अन-स्मार्ट शहरों के भेद को मिटा दिया जाये, क्योंकि अब हर स्मार्ट शहर को अन्तत: अन-स्मार्ट ही होना है। वैसे इस पर्यावरण दोषी शहर में ऐसे वामवीय सपने देखना मना है। जैसे पिछले दिनों संविधान के मूल पाठ में यह चर्चा होती रही, कि क्यों न समाजवाद शब्द को वहां से हटा दिया जाये। जब पौन सदी में इसकी ओर हमने एक कदम भी नहीं उठाया, तो भला इस लक्ष्य की सार्थकता क्या?
लेकिन ़खुदा का शुक्र है कि अभी ये दोनों शब्द अपने-अपने स्थान पर बने हुए हैं। असमतावाद का सर्व-स्वीकार्य ही स्मार्ट शहरों की मुरम्मत कर रहा है।



