ज़ोनल कौंसिलों के पास फैसले लागू करवाने के अधिकार नहीं
ऐ इश्क ये सब दुनिया वाले,
बेकार की बातें करते हैं।
पायल के ़गमों का इल्म नहीं,
झन्कार की बातें करते हैं।
—शकील बदायूंनी
उपरोक्त शे’अर मुझे उत्तरी ज़ोनल कौंसिल की 32वीं बैठक के बाद अलग-अलग राज्यों के मुख्यमंत्रियों द्वारा दिए गए बयानों के कारण याद आया। इस बैठक में चाहे देश के बड़े-बड़े समर्थ लोग शामिल हुए, अध्यक्षता देश के गृह मंत्री ने की। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री, राजस्थान, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, लद्दाख के उच्च पदों वाले प्रतिनिधि तथा लैफ्टिनैंट गवर्नर भी शामिल हुए, परन्तु अफसोस कि इसमें पेश होने वाले 28 मामलों में से पंजाब से जुड़े सभी प्रमुख 11 मामले स्थगित कर दिए गए। हमेशा की तरह इनके बारे में कोई सिफारिश नहीं की गई। इन मामलों में प्रमुख मामले जैसे चंडीगढ़ पंजाब का है, पंजाब यूनिवर्सिटी पर पंजाब का नियंत्रण, नदियों के पानी का मामला, सतलुज-यमुना सम्पर्क नहर, भाखड़ा-ब्यास प्रबंधन बोर्ड में राजस्थान तथा हिमाचल को न शामिल करना, अन्य हैडवर्क्सों के नियंत्रण की बात, पौंग डैम की डी-सिल्ंिटग (गाद निकालना) का खर्च अकेले पंजाब की जगह सभी हिस्सा ले रहे राज्यों में बराबर बांटना, छोटी पन-बिजली परियोजानओं की बात, चिनाब नदी का पानी बांटना, क्योंकि अब पाकिस्तान के साथ सिंधु पानी समझौता रद्द है, अन्य नदियों के पानी पर पंजाब का अधिकार, प्रदूषण तथा पराली के संबंध में पंजाब के सिर ़गलत ज़िम्मेदारी डालना आदि शामिल थीं। बैठक के बाद सभी राज्यों के प्रतिनिधियों ने अपनी-अपनी पीठ थपथपाई कि हमने यह मांग उठाई, हमने इतने ज़ोर से अपनी बात कही।
पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान ने तो दिल्ली में बड़ी भावपूर्ण प्रैस कांफ्रैंस करके दावा किया कि शेष सभी राज्य पंजाब के अधिकार छीनने की मांगें कर रहे थे, जिनका मैंने ज़बरदस्त विरोध किया और गृह मंत्री अमित शाह को कहा कि उन राज्यों को पंजाब के अधिकार छीनने की अनुमति न दी जाए। हरियाणा, राजस्थान तथा हिमाचल प्रदेश सहित बहुसंख्यक राज्य पंजाब के अधिकारों का उल्लंघन करने पर आमादा हैं और हमारे अधिकारों को छीनने के लिए अनावश्यक दबाव डाल रहे हैं। मान ने दावा किया कि बैठक के एजेंडे में शामिल 28 में से 11 मामले जो पंजाब से संबंधित थे, ये पहली बार राज्य सरकार (पंजाब सरकार) के यत्नों से स्थगित कर दिए गए।
पाठकों को यह पढ़ कर कितनी हैरानी होगी, मुझे नहीं पता, परन्तु मैं अवश्य हैरान-परेशान हूं कि पंजाब के मुख्यमंत्री पंजाब से संबंधित मामलों पर दूसरे राज्यों की किसी भी एक मामले पर कोई सहमति लेने की बजाय सिर्फ इन्हें स्थगित करवाने को ही अपनी उपलब्धि बता रहे हैं।
वैसे पाठक हैरान होंगे कि वास्तव में इस कौंसिल की कोई कानूनी हैसियत ही नहीं है कि यह किसी मामले पर कोई फैसला करवा सके या कानूनी रूप में लागू करवा सके। इस कौंसिल के पास कानूनी तौर पर कोई फैसला लेने या लागू करवाने की कोई शक्ति ही नहीं। यह सिर्फ बातचीत करने तथा ज़्यादा से ज़्यादा सिफारिश करने का अधिकार ही रखती है। यहां आप कोई भी मामला उठाएं, उसका कोई कानूनी प्रभाव नहीं है।
वास्तव में आज़ादी के बाद 1956 के राज्य पुनर्गठन एक्ट के तहत देश में 5 ज़ोनल कौंसिल उत्तरी, दक्षिणी, पूर्वी, पश्चिमी तथा उत्तर-पूर्वी राज्यों के मामलों बारे बनाई गई थीं। ये सभी कौंसिलें राज्य पुनर्गठन एक्ट की धाराओं 15 से 22 के तहत बनी थीं। इस एक्ट की धारा 21(2) में साफ-साफ लिखा गया है कि ज़ोनल कौंसिलों को राज्यों के बीच साझा हितों के मामलों जिनमें आर्थिक, सामाजिक, योजनाबंदी, सीमांत विवाद, भाषाई अल्पसंख्यक तथा अंतर्राजीय यातायात आदि शामिल हैं, बारे चर्चा करने तथा सिफारिशें करने का अधिकार है, परन्तु इसी एक्ट का इससे पहला हिस्सा धारा 21(1) यह साफ स्पष्ट करता है कि इन कौंसिलों को सलाहकार संस्थाओं के रूप में स्थापित किया गया है अर्थात् इन कौंसिलों के पास सिर्फ चर्चा तथा सिफारिशें करने का ही अधिकार है। इसलिए उत्तरी ज़ोनल कौंसिल में मामले उठाना कोई उपलब्धि नहीं है। यहां सिर्फ वे मामले ही हल हो सकते हैं, जिन पर आपसी सहमति हो जाए। वास्तव में कई बार ऐसा होता है कि अमित शाह जैसा कोई ताकतवर केन्द्रीय मंत्री जब इस कौंसिल का चेयरमैन होता है तो वह अपने दबाव से कोई फैसला करवा तो सकता है, परन्तु फिर भी कानूनी तौर पर उसका फैसला भी सिर्फ एक ‘सलाह’ की हैसियत ही रखता है, जिसे मानना या न मानना संबंधित राज्य की मज़र्ी है। हां, राज्यों के मामलों में फैसला देने का अधिकार प्रधानमंत्री कार्यालय या मंत्रिमंडल को पास अवश्य है, परन्तु उस फैसले को भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। अत: स्पष्ट है कि उत्तरी राज्यों की ज़ोनल कौंसिल में किस ने क्या कहा है, कौन-सा मामला उठाया, इस बात से मामले को चर्चा में तो लाया जा सकता है, परन्तु यहां की गई बात कोई कानूनी हैसियत नहीं रखती।
हां, पंजाब के मामले बड़े हैं, पंजाब के लिए जीने-मरने का सवाल हैं। इन्हें हल करवाए बिना पंजाब जो किसी समय प्रति सदस्य जी.डी.पी. में देश में पहले स्थान पर था किन्तु अब 19वें स्थान पर आ गया है, को ऊपर नहीं उठाया जा सकता। पंजाब के इस नुकसान के लिए अलेके भगवंत मान सरकार ज़िम्मेदार नहीं, अपितु 1947 के बाद की सभी सरकारें कम या अधिक ज़िम्मेदार हैं, और सबसे अधिक ज़िम्मेदार हैं केन्द्र की सरकारें, जो लगातार पंजाब के साथ अन्याय करती आ रही हैं। इनके समाधान के लिए पंजाब करे तो क्या करे? पंजाब को तो अदालतों में भी न्याय नहीं मिला और अब तो मिलने की उम्मीद भी नहीं प्रतीत होती। ऐसी हालत में पंजाब के पास सिर्फ और सिर्फ एक ही रास्ता शेष है कि पंजाबियों को समझाया जाए कि पंजाब के अधिकार लेने क्यों ज़रूरी हैं, और इन अधिकारों से सिखों-हिन्दुओं के अलग-अलग नहीं, अपितु समूचे पंजाबियों को लाभ होगा और यदि ये अधिकार नहीं लिए गए तो समूचे पंजाब को बर्बाद होने से बचाया नहीं जा सकेगा। इन्हें प्राप्त करने के लिए समूह पंजाबियों के मन में पंजाब, पंजाबी तथा पंजाबियत की शमा जला कर शांतमयी संघर्ष ही एक रास्ता है। चाहे यह कठिन तथा थकाने वाला रास्ता है, परन्तु और कोई रास्ता भी नहीं है।
मुसलसल धूप में चलना चरागों की तरह जलना,
ये हंगामे ही मुझ को वक्त से पहले थकाअ न दें।
—अकबर जलालपुरी
सफेद कपड़ों वाले आतंकी—चिंता की बात
जम्मू-कश्मीर से संबंधित आतंकवाद नया नहीं है, कई दशकों से चल रहा है। पहले यह ज़्यादातर अनपढ़ों, कम पढ़े-लिखे लोगों तथा गिनती के पढ़े-लिखे दानिशवरों के ज़रिये चल रहा था। इन देश-विरोधी कार्रवाइयों में जान देने वाले अधिकतर लोग या तो पाकिस्तान से आते थे या कश्मीरी युवक होते थे, अधिकतर बेरोज़गार, परन्तु अब हैरानी है कि एक-दो नहीं अपितु दर्जनों डाक्टर जो करोड़-करोड़, 2-2 करोड़ रुपये खर्च करके डाक्टर बने, लाखों रुपये की कमाई करने के समर्थ थे, आत्मघाती बम बनने की ओर चल पड़े हैं और वह भी सिर्फ कश्मीरी ही नहीं, अपितु उत्तर प्रदेश में रहते लोग भी। इससे एक बात साफ समझ आती है कि देश के अल्पसंख्यकों में बेगानगी की भावना प्रबल हो गई है।
लम्बे समय तक मणिपुर में घटित हो रही हिंसक घटनाएं भी अल्पसंख्यकों में असंतोष की अभिव्यक्ति ही हैं। किसी भी लोकतंत्र में सिर्फ यह ज़रूरी नहीं कि धर्म के आधार पर भेदभाव न हो, अपितु यह भी ज़रूरी है कि न्याय सिर्फ हो ही न बल्कि होता भी दिखाई दे। देश के कर्णधारों को यह ज़रूर समझना चाहिए कि धर्म आधारित ध्रुवीकरण की राजनीति देश का भला नहीं करेगी, यह एक खतरनाक खेल है। जहां पैदा होती ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए कड़े कानूनों तथा क्रियान्वयन की ज़रूरत है, सीमाओं की रक्षा की आवश्यकता है, वहीं अल्पसंख्यकों में यह एहसास जगाने की भी ज़रूरत है कि वे इस देश में दूसरे दर्जे के शहरी नहीं हैं। मुस्लिम आतंकवाद को खत्म करने के लिए उन्हें सूफीवाद, इतिहाद, तौहीद तथा तरक्की-पंसद इस्लाम की पढ़ाई करवाने में पहल-कदमी की जाए। एक तरह के गुनाह के लिए दो अलग-अलग सम्प्रदायों के प्रति अलग-अलग रवैया न अपनाया जाए, सबके साथ समान व्यवहार का एहसास करवाना ज़रूरी है, नहीं तो यही एहसास ज़ोर पकड़ेगा कि :
यह नहीं है कि वो एहसान बहुत करता है,
अपने एहसान का ऐलान बहुत करता है।
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