लगातार बढ़ते व्यापार घाटे से बढ़ रहा विदेशी कज़र्

सरकार भले ही इससे सहमत न हो, लेकिन भारत का लगातार बढ़ता व्यापार घाटा देश की अर्थ-व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव डाल रहा है जबकि विकास दर शानदार है। पिछले महीने आयात पर ज़्यादा ध्यान देने वाले भारत का व्यापार घाटा 41 अरब डालर के रिकॉर्ड  स्तर पर पहुंच गया, क्योंकि निर्यात में एक साल में सबसे ज़्यादा गिरावट देखी गई। दुर्भाग्य से अक्तूबर के दौरान देश में सोने के आयात में भारी उछाल आया, जो बड़े व्यापार घाटा का एक कारण है। यह स्थिति तब है जब 2024 वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) के अनुसार भारत में दुनिया के सबसे ज़्यादा (लगभग 23.4 करोड़) लोग अत्यंत गरीबी में जी रहे हैं।
लगातार व्यापार घाटा देश को और ज़्यादा बाहरी उधार लेने के लिए मजबूर कर रहा है, जिससे भारतीय रुपये का मूल्य कम हो रहा है। दिसम्बर 2024 के आखिर में देश का बाहरी कज़र् लगभग 718 अरब डॉलर हो गया था, जो दिसम्बर 2023 से 69.2 अरब डॉलर ज़्यादा था, जिससे बाहरी कज़र् और जीडीपी का अनुपात 19.1 प्रतिशत हो गया। इस साल जून के आखिर तक, बाहरी कज़र् बढ़कर 747.2 अरब डॉलर हो गया था।
सवाल यह है कि देश सोना, चांदी, कीमती मेटल, कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स और गैजेट, एयर-कंडीशनर, हेडफोन, जूते, प्लास्टिक से बने सामान, फर्नीचर और घर की सजावट जैसे उत्पाद और सेब, बादाम एवं काजू जैसे खाद्य पदार्थों के आयात को बहुत कम क्यों नहीं कर रहा है? असल में, देश में गैर-ज़रूरी सामान के आयात में लगातार बढ़ोतरी देखी जा रही है, जो अमीर और उच्च मध्यम वर्ग की उपभोक्ता मांग और उद्योगों की वजह से हो रहा है, जो बढ़ते व्यापार घाटे में योगदान दे रहे हैं।
हालांकि माना जा रहा है कि सरकार हाल ही में इलेक्ट्रॉनिक्स और कुछ कंज्यूमर ड्यूरेबल्स समेत इनमें से कुछ आयात पर नज़र रख रही है, लेकिन ज़्यादा आयात शुल्क, क्वालिटी कंट्रोल ऑर्डर लागू करने और लैपटॉप और फोन जैसे कुछ सामान पर रोक लगाने जैसे उपायों के ज़रिए उनके आयात में वृद्धि को रोकने के लिए उठाए गए कदम काफी नहीं हैं। रूस से छूट रेट पर तेल के आयात से होने वाली भारी विदेशी मुद्रा की बचत का उपयोग गैर-ज़रूरी सामान के बढ़ते आयात में करने के कारण कुल व्यापारिक घाटे पर बहुत कम असर पड़ा।
हैरानी की बात है कि मुम्बई के ज्वेलरी बाज़ार में मौजूद इंडिया बुलियन एंड ज्वैलर्स एसोसिएशन की खुशी के लिए आयात शुल्क में हाल ही में की गई चुनिंदा बढ़ोतरी से सोने को बाहर रखा गया है। यह एसोसिएशन पूरे देश में काम करता है और देश में रोज़ाना सोने के रेट तय करने में अहम भूमिका निभाता है। भारत के पुराने और मौजूदा बुलियन ट्रेड का एक बड़ा हिस्सा गुजराती समुदाय और अहमदाबाद में गुजरात बुलियन रिफाइनरी जैसी बड़ी संस्थाओं से मज़बूत संबंध रखता है। भारत के सोने के आयात का स्विस कनेक्शन मज़बूत है। भारत को सोने का एक बड़ा आपूर्तिकर्ता है स्विट्ज़रलैंड, जो भारत के कुल सोने के आयात का एक बड़े हिस्से की आपूर्ति करता है।
हाल ही में मंज़ूर हुए इंडिया-यूएफ टीए(यूरोपियन फ्री ट्रेड एसोसिएशन) ट्रेड और इकोनॉमिक पार्टनरशिप एग्रीमेंट से भारत और स्विट्ज़रलैंड के बीच व्यापार और निवेश को और बढ़ावा मिलने की उम्मीद है। मज़े की बात यह है कि स्विट्ज़रलैंड को भारत का निर्यात हमेशा बहुत कम रहा है। 2024-25 में स्विट्ज़रलैंड को भारत का कुल निर्यात सिर्फ 1.51 अरब डॉलर के आसपास था जबकि आयात ़22.4 अरब डॉलर था, जिससे भारत को काफी व्यापार घाटा हुआ। स्विट्ज़रलैंड से भारत के ज़्यादातर आयात में सोना होता है। 2020-21 और 2024-25 के बीच स्विट्ज़रलैंड के साथ कुल व्यापार 4.62 प्रतिशत की सालाना कंपाउंडरेट से बढ़ा।
भारत का लगातार बढ़ रहा व्यापार घाटा और बहुत बढ़ता बाहरी कज़र् रुपये के मूल्य पर काफी नीचे की ओर दबाव डाल रहा है क्योंकि अमरीकी डॉलर जैसी विदेशी मुद्रा की मांग लगातार बढ़ रही है ताकि ज़्यादा से ज़्यादा आयात और कज़र् चुकाने के लिए भुगतान किया जा सके। पहले से देश कच्चे तेल, सोने और इलेक्ट्रॉनिक्स के आयात पर बहुत ज़्यादा निर्भर रहा है। बड़े व्यापार घाटा से भुगतान संतुलन पर असर पड़ रहा है। लगातार व्यापार घाटा से करेंट अकाउंट डेफिसिट बढ़ता है, जिसे विदेशी निवेशक अक्सर आर्थिक अस्थिरता का संकेत मानते हैं, जिससे घरेलू करंसी पर और दबाव पड़ता है।
इससे पता चलता है कि भारत के बड़े और बढ़ते बाज़ार तथा शानदार आर्थिक विकास के बावजूद विदेशी निवेशक भारत में निवेश करने के लिए ज़्यादा उत्साह क्यों नहीं दिखा रहे हैं। रुपया लगातार दबाव में रहा है। 2014 में जब राजग सरकार सत्ता में आई थी, तो रुपया-अमरीकी डालर क्सचेंज रेट था—1 डॉलरके लिए 60.95 रुपया। पिछले शुक्रवार को, यह प्रति अमरीकी डॉलर के लिए 90 रुपये को पार कर गया। महीना अभी खत्म नहीं हुआ है। 2025 में रुपया काफी कमज़ोर हुआ, खराब आर्थिक फंडामेंटल्स (जो मज़बूत बने हुए हैं) की वजह से नहीं, बल्कि मुख्य रूप से पूंजी के आवक में तेज़ गिरावट की वजह से, जिसमें कमज़ोर एफडीआई और 16अरब डॉलर का एफपीआई निकास शामिल है।
रुपये की लगातार गिरावट ने एक गलत चक्र बना दिया है, जिससे रुपये के हिसाब से आयात महंगा हो गया है और घरेलू करंसी का एक्सचेंज मूल्य कम होने से विदेशी कज़र् चुकाना और भी महंगा हो गया है। रुपये में विदेशी कज़र् चुकाना और भुगतान करना और भी महंगा साबित होता है। इससे सरकार और विदेशी कज़र् वाली भारतीय बिज़नेस कंपनियों के वित्त पर दबाव पड़ता है। एक्सचेंज रेट में उतार-चढ़ाव का सीधा असर कज़र् चुकाने की लागत पर पड़ता है।
अचानक या तेज़ अवमूल्यनसे कज़र् का बोझ अचानक और काफी बढ़ सकता है। ऐसी स्थिति से निवेशकों के भरोसे पर बुरा असर पड़ना तय है। विदेशी कज़र् का बढ़ता स्तर, खासकर अल्पावधि कज़र्, वैश्विक आर्थिक झटकों या कज़र् संकट के प्रति संभावित कमज़ोरी का संकेत दे सकता है। यह फॉरेन पोर्टफोलियो इन्वेस्टर्स (एफपीआई) और फॉरेन डायरेक्ट इन्वेस्टर्स (एफडीआई) को रोक सकता है। असल में इस स्थिति से पूंजी का निकास हो रहा है, जिससे रुपया और कमज़ोर हो रहा है। (संवाद)

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