पंजाब यूनिवर्सिटी का गौरव बनाए रखने की ज़रूरत

पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ के चांसलर उप-राष्ट्रपति सी.पी. राधाकृष्णन को प्रो. रेणु विंग उप-कुलपति द्वारा सीनेट चुनावों की तिथियां निर्धारित करने संबंधी 9 नवम्बर को एक पत्र भेजा गया था, जिसकी स्वीकृति उन्होंने दे दी है। यह चुनाव आगामी वर्ष 9 सितम्बर से लेकर 4 अक्तूबर तक सम्पन्न किए जाएंगे। इससे पहले यूनिवर्सिटी के प्रबन्धकों द्वारा 4 वर्ष बाद होते रहे चुनावों संबंधी जो रवैया अपनाया गया और बाद में सीनेट और सिंडीकेट बहुत-से बदलावों से जैसे पुनर्गठन की अधिसूचना जारी की गई थी उससे यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों और पंजाब के राजनीतिक क्षेत्रों में एक तरह से भूकम्प ही आ गया था। इसके विरुद्ध विद्यार्थियों के अतिरिक्त राजनीतिक पार्टियों और अन्य संगठनों ने भी अपनी आवाज़ उठानी शुरू कर दी थी। विद्यार्थियों ने ‘यूनिवर्सिटी बचाओ मोर्चा’ बनाकर संघर्ष शुरू कर दिया था, जो लगातार 26 दिन तक चलता रहा। 
विगत लम्बी अवधि से केन्द्र सरकार की ओर से पंजाब के साथ किए जाते भेदभाव के सन्दर्भ में यूनिवर्सिटी का मामला भी अहम था, क्योंकि इस बेहद अहम संस्थान से विगत लम्बी अवधि से पंजाबियों की भावना जुड़ी आ रही है। देश के विभाजन  से पंजाब दो टुकड़ों में बंट गया था, जिसका प्रभाव इस उच्चतम शैक्षणिक संस्थान पर भी पड़ा था। इस यूनिवर्सिटी की शुरुआत वर्ष 1882 में लाहौर में हुई थी, जो उस समय पंजाब की राजधानी था। यह शैक्षणिक संस्थान शहर का गौरव माना जाता था। विभाजन के समय तक इसकी उम्र 65 वर्ष हो चुकी थी। विभाजन के समय लाहौर पाकिस्तानी पंजाब में रह गया था। इस तरह पंजाब के हुए विभाजन में यह यूनिवर्सिटी उधर ही रह गई थी। उसके बाद बहुत यत्नों से इसे 1956 में चंडीगढ़ में पुन: स्थापित किया गया। इस तरह से यह नायाब तोहफा पुन: पंजाब को मिल गया था। 1966 में पंजाब के पुनर्गठन के समय यूनिवर्सिटी का भविष्य एक बार फिर धूमिल होता दिखाई देने लगा था। पहले इसकी शाखाएं हरियाणा और हिमाचल तक भी फैली हुई थीं परन्तु बाद में हिमाचल और हरियाणा ने इससे अपने कालेज अलग कर लिए और इसके साथ सिर्फ चंडीगढ़ और पंजाब के कालेज ही जुड़े रह गए। इसका अधिकतर खर्च भी पंजाब ही उठाता रहा, परन्तु आज भी जिस तरह चंडीगढ़ का भविष्य अनिश्चित बना हुआ है, उसी तरह यह यूनिवर्सिटी भी अनिश्चतता के दौर से गुज़रती आ रही है।
इस पर प्रबन्धकों को हमेशा यह शिकायत रही है कि इसे पंजाब सरकार द्वारा ज़रूरी फंड उपलब्ध नहीं करवाए जाते, जबकि केन्द्र सरकार ही इसका ज्यादातर खर्च उठाती आई है। पंजाब की तत्कालीन सरकारों ने इस उत्तम शैक्षणिक संस्थान को और मज़बूत करने, अलग-अलग तरह के अनुसंधान के और केन्द्र यहां स्थापित करने और इसके शैक्षणिक प्रसार को बढ़ाने में अधिक दिलचस्पी इस कारण नहीं दिखाई, क्योंकि पिछले कई दशकों से पंजाब स्वयं आर्थिक ज़रूरतों और कमियों में घिरा रहा है, जिस कारण उसे अपने खर्च के लिए केन्द्र सरकार की ओर देखना पड़ रहा है या यूनिवर्सिटी के साथ जुड़े पंजाब के कालेजों से इसे कुछ फंड मिलते रहे हैं। पंजाब की पूर्व सरकारों के समय ऐसे अवसर भी आए जब प्रदेश सरकारों ने इसे आर्थिक सहायता देने से अपने हाथ पीछे करने शुरू कर दिए और एक समय उनकी ओर से केन्द्र को यह लिख कर भी दे दिया गया कि वह ही यूनिवर्सिटी का आर्थिक बोझ सम्भाले और इसे अपने अधिकार में ले ले। पहले ऐसी हिचकिचाहट दिखाने के बाद पंजाब की तत्कालीन सरकारों को इसके उपरांत यह अहसास ज़रूर हो गया था कि ऐसा करके वह एक उत्तम संस्थान को स्वयं ही अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर कर देंगी। इसलिए इस योजना पर पंजाब सरकारों ने अपने हाथ पीछे खींच लिए, परन्तु उसके बाद भी यह गौरवमय यूनिवर्सिटी लड़खड़ाती और गिड़गिड़ाती ही दिखाई दी, जिस कारण केन्द्र सरकार को इस पर अपना अधिक प्रभाव स्थापित करने का अवसर मिल गया। केन्द्र द्वारा 2024 के बाद सीनेट चुनावों संबंधी दिखाई गई उदासीनता भी इसी क्रम से जुड़ी हुई थी। केन्द्र सरकार इसे अपने हाथ में लेने हेतु यत्नशील हो गई थी।
हम इस बात पर संतुष्टि प्रकट करते हैं कि विगत दिवस विद्यार्थियों सहित बहुत-से संगठनों ने एक बार फिर यह दिखा दिया है कि यह संस्थान पंजाब से संबंध रखता है और पंजाब की भावना के अनुसार ही इसे चलाना चाहिए, परन्तु इसके साथ ही हम यह भी महसूस करते हैं कि जैसे अब पंजाब सरकार के कंधों पर इस यूनिवर्सिटी को सम्भालने और इसे आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी पड़ गई है, उसके दृष्टिगत निश्चित रूप में पंजाब सरकार को इसके लिए फंड आरक्षित करने पड़ेंगे, जिनसे पहले पंजाब सरकारें अपने हाथ पीछे खींचती रही हैं। रौशनी के इस मीनार को जगमगाता रखने के लिए पंजाब सरकार को एक विशेष नीति बनाने की ज़रूरत होगी, जो भविष्य में इसके प्रफुल्लित होने में लगातार सहायक होती रहे।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द

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